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इस धरती पर हर जीव का एक अपना ठिकाना होता है, जिसे हम उसका घर या वैज्ञानिक भाषा में वास-स्थान (Habitat) कहते हैं। वास-स्थान सिर्फ रहने की एक जगह भर नहीं है; यह एक जटिल प्राकृतिक व्यवस्था है जो किसी भी जीव को जीवित रहने के लिए ज़रूरी हर चीज़ - भोजन, पानी, हवा और आश्रय - प्रदान करती है। इन्हीं घरों में, विशालकाय जानवरों से लेकर अत्यंत सूक्ष्म जीवों तक, जीवन एक बड़े ही नाजुक संतुलन पर टिका होता है।
मोटे तौर पर, हम इन प्राकृतिक घरों को दो मुख्य भागों (ज़मीन (स्थलीय) और पानी (जलीय)) में बांट सकते हैं।
स्थलीय वास-स्थान धरती की सतह पर पाए जाते हैं, जिनमें हरे-भरे जंगलों और विशाल घास के मैदानों से लेकर कठोर रेगिस्तान तक शामिल हैं। यहाँ रहने वाले जानवर ठोस ज़मीन और खुली हवा में जीवन जीने के आदी होते हैं। वे आम तौर पर फेफड़ों से सांस लेते हैं और चलने या दौड़ने के लिए अपने पैरों का उपयोग करते हैं।
इसके विपरीत, जलीय वास-स्थान पानी की दुनिया है। यहाँ के जीव पानी के भीतर जीवन के लिए अनुकूलित होते हैं। ज़्यादातर जीव गलफड़ों (gills) का उपयोग करके सीधे पानी में घुली ऑक्सीजन (oxygen) लेते हैं और तैरने के लिए अपने पंखों (fins) का इस्तेमाल करते हैं। पानी के इन घरों को भी आगे दो हिस्सों में बांटा गया है - समुद्री, जिनमें विशाल, खारे महासागर आते हैं, और मीठे पानी के, जिनमें जीवन देने वाली नदियाँ, झीलें और झरने शामिल हैं।
लेकिन सोचिए, क्या कोई ऐसा जीव हो सकता है जो इन दो दुनियाओं के बीच की खाई को पाटता हो? एक ऐसा प्राणी जो अपना पूरा जीवन नदी के पानी में बिताता है, लेकिन सांस लेने के लिए ज़मीन पर रहने वाले स्तनपायी जीवों की तरह फेफड़ों का इस्तेमाल करता है? ऐसे आकर्षक जीव को खोजने के लिए हमें कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। इसका घर हमारी पवित्र गंगा का जल ही है, जो एक अद्वितीय और प्राचीन जलीय स्तनपायी का निवास स्थान है।
हमारी धरती पर जीव-जंतुओं की एक अद्भुत और विविध दुनिया बसती है। इस विशाल दुनिया को समझने के लिए हम प्राणियों को अलग-अलग श्रेणियों में बांटते हैं। लेकिन किसी भी जीव को समझने का सबसे सरल तरीका है, उसके वास-स्थान (Habitat) यानी उसके प्राकृतिक घर को जानना। विशाल घास के मैदानों से लेकर गहरे महासागरों तक, हर वास-स्थान जीवों के सामने अनोखी चुनौतियाँ और अवसर पेश करता है, जो उनके विकास और व्यवहार को आकार देते हैं।
आज हम एक ऐसे ही वास-स्थान पर ध्यान केंद्रित करेंगे जो हमारे अपने शहर हरिद्वार की जीवनधारा है “हमारी पवित्र गंगा नदी।” इसी बहती धारा के बीच एक असाधारण जीव रहता है, जो जीवन और पर्यावरण के नाजुक संतुलन का जीता-जागता प्रमाण है! यह जीव है “गंगा की डॉल्फिन”।
गंगा नदी में पाई जाने वाली डॉल्फिन, जिसका वैज्ञानिक नाम 'प्लैटनिस्टा गैंगेटिका गैंगेटिका' (Platanista gangetica gangetica) है, मीठे पानी में रहने वाला एक स्तनधारी जीव है। यह दक्षिण एशिया की नदी प्रणालियों में रहने के लिए खास तौर पर अनुकूलित है। यह एक बहुत ही प्राचीन वंश का जीव है, जिसे 'जीवित जीवाश्म' भी कहा जा सकता है, जो हजारों वर्षों से इन लहरों के बीच अपना जीवन बिता रहा है। स्थानीय लोग इसे प्यार से 'सोंस' या 'सुसु' कहकर बुलाते हैं। यह नाम उसे पानी की सतह पर सांस लेते समय निकलने वाली 'सुसु' जैसी आवाज़ के कारण मिला है। इसके महत्व को देखते हुए भारत सरकार ने गंगा डॉल्फिन को 'भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव' का प्रतिष्ठित दर्जा दिया है।
इस डॉल्फिन को जो बात वाकई में असाधारण बनाती है, वह है गंगा के अक्सर गंदले और मटमैले पानी में रहने की इसकी क्षमता। गंगा डॉल्फिन असल में लगभग नेत्रहीन होती है। यह देखने के बजाय, ध्वनि के माध्यम से अपना रास्ता खोजती है, संवाद करती है और अपना शिकार पकड़ती है।
इसके लिए यह इकोलोकेशन (Echolocation) की एक उन्नत प्रणाली का उपयोग करती है। यह अपने शरीर से बहुत तेज़ फ्रीक्वेंसी (Frequency) वाली 'क्लिक' (click) की आवाजें निकालती है और अपने रास्ते में आने वाली चीजों से टकराकर वापस आने वाली गूँज को सुनती है। यह अद्भुत क्षमता इसे ध्वनि की मदद से अपनी दुनिया को 'देखने' में मदद करती है, जिससे यह नदी के तल, बाधाओं और सबसे महत्वपूर्ण, अपने शिकार की एक सटीक ध्वनि-तस्वीर बना लेती है। इसके भोजन में कई तरह की मछलियाँ और दूसरे छोटे जलीय जीव शामिल हैं।
गंगा डॉल्फिन केवल एक आकर्षक जीव ही नहीं, बल्कि यह एक 'सूचक प्रजाति' (Indicator Species) भी है, जो पूरी नदी के पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य का एक जीता-जागता पैमाना है। ठीक वैसे ही जैसे किसी जंगल में बाघ की मौजूदगी एक स्वस्थ जंगल का प्रतीक है, उसी तरह गंगा में डॉल्फिन की मौजूदगी एक स्वस्थ और जीवंत नदी की निशानी है।
एक शीर्ष शिकारी (Top Predator) होने के नाते, यह अपने प्राकृतिक घर में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। डॉल्फिन की अच्छी-खासी आबादी इस बात का संकेत है कि नदी में जलीय जीवन समृद्ध है, पानी साफ है और नदी पूरी तरह से स्वस्थ है। इसके विपरीत, इनकी संख्या में गिरावट इस बात की एक गंभीर चेतावनी है कि हमारी नदी प्रणाली गहरे संकट में है।
गंगा डॉल्फिन का वास-स्थान गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना और कर्णफुली-सांगू नदी प्रणालियों तक फैला हुआ है, जो भारत, नेपाल और बांग्लादेश तक विस्तृत हैं। ये डॉल्फिन आमतौर पर नदी के गहरे कुंडों और ऐसी जगहों को पसंद करती हैं जहाँ पानी का बहाव धीमा या उल्टा हो, ताकि वे कम ऊर्जा खर्च करके आसानी से शिकार कर सकें। हालांकि, दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक होने के कारण, इनके इस महत्वपूर्ण वास-स्थान पर आज भारी दबाव है।

गंगा डॉल्फिन का अस्तित्व आज एक बेहद नाजुक मोड़ पर है। इस प्रजाति को ‘संकटग्रस्त’ (Endangered) की श्रेणी में रखा गया है, और इसकी आबादी कई खतरों का एक साथ सामना कर रही है, जिनमें से अधिकांश मानवीय गतिविधियों की देन हैं।
इनमें से कुछ प्रमुख खतरे इस प्रकार हैं:
इन गंभीर चुनौतियों के बावजूद, गंगा डॉल्फिन के संरक्षण की उम्मीद अभी बाकी है। वैज्ञानिकों, संरक्षणवादियों, सरकारी निकायों और स्थानीय समुदायों का एक बढ़ता हुआ आंदोलन इस प्रतिष्ठित प्रजाति की रक्षा के लिए अथक प्रयास कर रहा है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया (WWF-India) जैसी संस्थाएं इन प्रयासों में सबसे आगे हैं और विभिन्न हितधारकों के साथ मिलकर एक बहु-आयामी संरक्षण रणनीति को लागू कर रही हैं।
इस रणनीति में कई पहलू शामिल हैं, जैसे: डॉल्फिन के जीव विज्ञान और व्यवहार को बेहतर ढंग से समझने के लिए वैज्ञानिक अनुसंधान करना, स्थानीय लोगों को नदी का संरक्षक बनने के लिए सशक्त बनाने वाले सामुदायिक कार्यक्रम चलाना, और टिकाऊ जल प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत स्तर पर काम करना आदि। इन सब में एक मुख्य केंद्र-बिंदु 'पर्यावरणीय प्रवाह' (Environmental Flows) की अवधारणा है। इसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि नदी में हमेशा इतना पानी बना रहे जिससे उसकी पारिस्थितिक अखंडता और उसमें बसने वाला विविध जीवन सुरक्षित रहे।
खुशी की बात है कि इन कोशिशों के सकारात्मक परिणाम भी दिखने लगे हैं। हाल ही में बिहार में हुई एक जनगणना में गंगा डॉल्फिन की एक स्वस्थ और बढ़ती हुई आबादी दर्ज की गई, जो राज्य में चलाए जा रहे संरक्षण पहलों की सफलता का एक बड़ा प्रमाण है। इसके अलावा, भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) द्वारा भारत में पहली बार किए गए एक व्यापक सर्वेक्षण में 6,300 से अधिक डॉल्फिन पाई गईं। यह एक उत्साहजनक संख्या है जो भविष्य के संरक्षण प्रयासों के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करती है।
गंगा डॉल्फिन का भाग्य सीधे तौर पर स्वयं गंगा नदी के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। हरिद्वार के निवासी होने के नाते, एक ऐसा शहर जिसका अपनी नदी के साथ एक गहरा और आध्यात्मिक संबंध है, इस समाधान का हिस्सा बनना हमारी एक विशेष जिम्मेदारी है। हम सभी डॉल्फिन के महत्व और उसके सामने आने वाले खतरों के बारे में जागरूकता फैलाकर अपना योगदान दे सकते हैं। हम उन पहलों का समर्थन कर सकते हैं जो पानी के सही उपयोग को बढ़ावा देती हैं और प्रदूषण को कम करती हैं। यदि सरकारें, व्यवसाय, समुदाय और हम सब मिलकर काम करें, तो हम एक ऐसा भविष्य बना सकते हैं जहाँ 'सोंस' हमारी पवित्र नदी की शोभा बढ़ाती रहेगी - एक स्वस्थ और जीवंत गंगा का जीता-जागता प्रतीक। गंगा के इस खामोश प्रहरी के पास सुनाने के लिए एक कहानी है, लचीलेपन, अनुकूलन और अस्तित्व की कहानी। यह सुनिश्चित करना अब हम सब पर निर्भर करता है कि इस कहानी का अंत सुखद हो।
संदर्भ
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https://tinyurl.com/262cuuvw
https://tinyurl.com/2c2uak5x
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