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हमारे शहर हरिद्वार के चारों ओर फैले जीवन के विशाल पुस्तकालय में हर जीव की अपनी एक अलग कहानी है। राजाजी नेशनल पार्क के शाही हाथियों से लेकर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों तक, सभी का अपना एक अनूठा अध्याय है। वैज्ञानिकों ने, ठीक किसी लाइब्रेरियन (Librarian) की तरह, इस विविधता को सूचीबद्ध करने का हमेशा प्रयास किया है। इसके लिए उन्होंने 'टैक्सोनॉमी' (Taxonomy - वर्गीकरण) नामक एक प्रणाली का उपयोग किया। इस प्रणाली के तहत, विशाल जीव जगत को उनके शरीर की बनावट के आधार पर अलग-अलग संघों में बांटा गया है। इसमें साधारण स्पंज से लेकर जटिल कशेरुकी (रीढ़ की हड्डी वाले) जीव तक शामिल हैं, जिनसे हम मनुष्य भी संबंधित हैं।
यह वर्गीकरण हमें कुदरत की दुनिया को समझने का एक ढांचा देता है। लेकिन तब क्या होता है, जब कोई कहानी अधूरी रह जाती है? क्या होता है जब कोई जीव हमेशा के लिए गायब हो जाता है, और किताबों में सिर्फ उसका नाम और एक अनसुलझा सवाल पीछे रह जाता है?
यह कहानी हिमालयी बटेर (Himalayan Quail) की है। यह एक ऐसा पक्षी है जो भारतीय पक्षी विज्ञान के पन्नों में एक याद से कहीं ज़्यादा, एक रहस्य की तरह दर्ज है। तीतर के आकार का यह खूबसूरत पक्षी, जिसकी चोंच और पैर सुर्ख लाल थे, इसे आखिरी बार सन 1876 में मसूरी के पास हिमालय की तलहटी में निश्चित रूप से देखा गया था। यह क्षेत्र हमारे हरिद्वार से कुछ ही दूरी पर है। महान पक्षी विज्ञानी डॉ. सलीम अली समेत कई विशेषज्ञों ने इसे खोजने के लिए अनेक अभियान चलाए, लेकिन यह बटेर एक पहेली ही बना रहा। इस पक्षी की खोज, कुछ पल की मोहक मुलाकातों और दशकों की खामोशी की एक अनसुनी दास्ताँ है।
क्या यह घने तराई घास के मैदानों में छिपने में माहिर है? या यह हमेशा के लिए खो गया है, और हमारी धरती की जैविक कहानी का एक अध्याय बंद हो चुका है? यह गहरा रहस्य हमारी कल्पनाओं को आज भी उड़ान देता है। लेकिन आज, विज्ञान के पास एक ऐसा उपकरण है जो उन कहानियों को भी पढ़ सकता है जिन्हें खत्म मान लिया गया था - और वह है “डीएनए (DNA)।”

किसी भी प्रजाति का जेनेटिक कोड (Genetic Code) ही उसकी असली पहचान होता है। हिमालयी बटेर जैसे जीव के लिए, उसका एक पंख या अंडे के छिलके का एक छोटा सा टुकड़ा भी उसका भाग्य फिर से लिखने के लिए ज़रूरी डीएनए दे सकता है। यह हमें आधुनिक जीव विज्ञान के सबसे रोमांचक और विवादास्पद क्षेत्र की ओर ले जाता है: 'डी-एक्सटिंक्शन' (Di-extinction) यानी विलुप्त प्रजातियों का पुनरुत्थान। यह विचार अब केवल विज्ञान-कथाओं तक सीमित नहीं है।
'डी-एक्सटिंक्शन' एक ऐसी संभावित प्रक्रिया है जिससे किसी विलुप्त प्रजाति को फिर से जीवित किया जा सकता है। वैज्ञानिक इसे संभव बनाने के लिए कई तरीकों पर काम कर रहे हैं। एक तरीका क्लोनिंग (cloning) है, जिसमें विलुप्त जानवर की संरक्षित कोशिका से केंद्रक (न्यूक्लियस - nucleus) निकालकर उसके सबसे करीबी जीवित रिश्तेदार के अंडाणु में डाल दिया जाता है। एक और तरीका, जो उन प्रजातियों के लिए ज़्यादा व्यावहारिक है जिनकी कोई जीवित कोशिका मौजूद नहीं है, वह है उन्नत 'जीनोम एडिटिंग' (genome editing)।
इस प्रक्रिया की कल्पना एक धुँधली, प्राचीन पांडुलिपि को फिर से सहेजने जैसी है। वैज्ञानिक सबसे पहले विलुप्त जानवर के संरक्षित नमूनों से मिले डीएनए के टुकड़ों का अनुक्रमण (sequence) करते हैं। फिर, इस जेनेटिक ब्लूप्रिंट (genetic blueprint) की तुलना उस प्रजाति के सबसे करीबी जीवित रिश्तेदार के डीएनए से की जाती है। उदाहरण के लिए, विशालकाय ऊनी मैमथ (woolly mammoth) के डीएनए की तुलना एशियाई हाथी से की जाती है। 'क्रिस्पर' (CRISPR) जैसे क्रांतिकारी जीन-एडिटिंग उपकरणों का उपयोग करके, वे जीवित रिश्तेदार के भ्रूण (embryo) में मौजूद डीएनए को इस तरह बदलते हैं कि वह विलुप्त प्रजाति के आनुवंशिक गुणों से मेल खाने लगे।
इसके बाद इस संशोधित भ्रूण को एक सरोगेट (surrogate) माँ द्वारा जन्म दिया जाता है। परिणामस्वरूप एक ऐसा जीव पैदा होता है, जो हर मायने में उस खोई हुई प्रजाति का एक प्रतिरूप (proxy) होता है। दुनिया भर में कई टीमें इस काम में बहुत आगे बढ़ चुकी हैं। उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वे पैसेंजर पिजन (Passenger Pigeon) और विशालकाय मैमथ की वापसी देखेंगी। ये जीव सिर्फ कौतूहल का विषय नहीं होंगे, बल्कि बहाल किए गए पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystems) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनेंगे।
हालांकि, किसी प्रजाति की कहानी के अंतिम अध्याय को फिर से लिखने की यह शक्ति अपने साथ गहरी नैतिक जिम्मेदारियाँ भी लाती है। 'डी-एक्सटिंक्शन' की यह धारणा हमें कुछ कठिन सवाल पूछने पर मजबूर करती है। क्या यह प्रकृति के लिए एक सुधारात्मक न्याय है, या इंसानी अहंकार का प्रदर्शन?
जैसा कि जैव-नीतिशास्त्री (bioethicists) बताते हैं, किसी जीव को ऐसी दुनिया में वापस लाना जो उसके जाने के बाद बहुत बदल चुकी है, चुनौतियों से भरा है। क्या उसके रहने के लिए कोई प्राकृतिक आवास बचा होगा? क्या वह नई बीमारियों और शिकारियों वाले आधुनिक पारिस्थितिकी तंत्र में जीवित रह पाएगा? एक बड़ी नैतिक चिंता यह भी है कि 'डी-एक्सटिंक्शन' का आकर्षक वादा हमारा कीमती धन और ध्यान उन हजारों प्रजातियों को बचाने के महत्वपूर्ण काम से भटका सकता है, जो आज विलुप्त होने की कगार पर हैं। हमें मृतकों को पुनर्जीवित करने पर ध्यान देना चाहिए, या जो जीवित हैं उन्हें बचाने पर? यह बहस केवल वैज्ञानिक क्षमता के बारे में नहीं है, बल्कि मानवीय विवेक के बारे में है।
विज्ञान, प्रकृति और विरासत के बीच चल रहे इस गहरे संवाद की एक अनूठी और शक्तिशाली गूँज यहीं, हमारे हरिद्वार में पवित्र गंगा के तट पर सुनाई देती है। पीढ़ियों से हम यह मानते आए हैं कि इसका जल विशेष है, जिसमें एक पवित्र और दिव्य गुण है। आज, विज्ञान भी इस प्राचीन मान्यता पर अपनी मुहर लगा रहा है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) के एक ऐतिहासिक अध्ययन ने गंगा की असाधारण आत्म-शोधन क्षमता की पुष्टि की है। उनके शोध से पता चला है कि नदी के जल में 'बैक्टीरियोफेज' की मात्रा काफी अधिक है। ये ऐसे वायरस होते हैं जो बैक्टीरिया को संक्रमित करके नष्ट कर देते हैं।
यह खोज सचमुच अद्भुत है। यह हमें बताती है कि हमारे शहर से बहने वाले जल में एक अनूठी जैविक पहचान है, एक ऐसी जीवित शक्ति है जो इसे स्वच्छ रखती है। इन सूक्ष्म 'फेज' का डीएनए और आरएनए (RNA) इस नदी की पहचान का उतना ही अहम हिस्सा हैं, जितना हिमालयी बटेर का जेनेटिक कोड उसकी प्रजाति के लिए है। एक तरफ जहाँ वैज्ञानिक पहाड़ों में एक खोए हुए पक्षी का डीएनए खोज रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने उसी नदी के भीतर जीवन देने वाला एक जैविक खाका (blueprint) पाया है जो हमारा पोषण करती है। यह एक सशक्त अनुस्मारक है कि पहाड़ों से लेकर नदी के मैदानों तक, प्रकृति की दुनिया ऐसे रहस्यों और समाधानों से भरी है, जिन्हें हम अभी समझना शुरू ही कर रहे हैं।
संदर्भ