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प्रातः काल में जौनपुर के श्री गोमेतेश्वर महादेव और त्रिलोचन महादेव मंदिरों में गूंजती घंटियों की ध्वनि से पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है। भोर में ही भगवान के दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। मंदिर परिसर में व्याप्त भक्ति-भावना मन को शांति से भर देती है। क्या आपने ध्यान दिया है, कि ऐसे पावन स्थानों पर कदम रखते ही अक्सर मन में जीवन को लेकर गहरे प्रश्न मन में उमड़ने लगते हैं! जैसे कि क्या जीवन बस वही है, जो हमारी आंखें देखती हैं? या इसके पार भी कोई अदृश्य सत्य छिपा है? लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसे कई रहस्यमयी प्रश्नों का उत्तर आदि शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत दर्शन में मिलता है। उन्होंने कर्मकांड से अधिक ज्ञान (बोध) पर बल दिया और आत्म-जागरूकता व आंतरिक शांति का मार्ग दिखाया। उनकी शिक्षाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जो हमें सिखाती हैं कि भेदभाव से ऊपर उठकर जीवन के हर पहलू में एकता को देखना चाहिए। आज आदि शंकराचार्य की जयंती के इस पावन अवसर पर, हम उनके द्वारा प्रदत्त अद्वैत वेदांत दर्शन को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे । हम जानेंगे कि आत्म-साक्षात्कार में ज्ञान की क्या भूमिका है। साथ ही, उनके साहित्यिक और दार्शनिक योगदानों पर भी चर्चा करेंगे। अंत में, उनके हिंदू दर्शन और आध्यात्मिकता पर पड़े स्थायी प्रभाव का विश्लेषण करेंगे ।
आदि शंकराचार्य भारतीय इतिहास के एक महान दार्शनिक और अद्वैत वेदांत के पुनर्जागरणकर्ता थे। उनका संदेश स्पष्ट था "यह संपूर्ण ब्रह्मांड और सभी जीव ब्रह्म के साथ एक हैं।" आइए सबसे पहले आदि शंकराचार्य की शिक्षाओं और वेदांत के सार को समझते हैं:
क्या है अद्वैत वेदांत?
अद्वैत वेदांत को आदि शंकराचार्य के दर्शन की बुनियाद माना जाता है। 'अद्वैत' का अर्थ होता है – "दो नहीं, बस एक"। उनके अनुसार, यह एकमात्र अंतिम सत्य ब्रह्म है – जो निराकार, असीम और शाश्वत वास्तविकता है। शंकराचार्य का मानना था कि व्यक्तिगत आत्मा (जीवात्मा) और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है – “वे दोनों एक ही हैं।” जो भेदभाव या द्वैत हमें संसार में दिखाई देता है, वह सिर्फ़ एक भ्रम (माया) है। वास्तव में, यह सारा संसार मिथ्या (भ्रम) है, जबकि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। शंकराचार्य के अनुसार, मोक्ष (मुक्ति) तभी संभव है, जब व्यक्ति इस अद्वैत सत्य को जान लेता है और अपनी आत्मा को ब्रह्म के साथ एक रूप में अनुभव करता है।
शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "ब्रह्म सूत्र भाष्य" में लिखा है:
"ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव न अपारः"
इसका अर्थ है:
"ब्रह्म ही परम सत्य है, यह संसार मात्र एक भ्रम है, और जीवात्मा ब्रह्म से अलग नहीं है।"
यह वाक्य उनके अद्वैत वेदांत दर्शन का सार है।
उनका मानना था कि: दुनिया की असली पहचान को जानना ही ज्ञानोदय (आत्मिक जागृति) का मार्ग है। जब व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, तभी उसे मुक्ति मिलती है।
शंकराचार्य के अनुसार, मुक्ति का मार्ग ज्ञान योग यानी ज्ञान की खोज है। उनका मानना था कि व्यक्ति अज्ञान (अविद्या) के कारण जन्म और मृत्यु के चक्र में फ़ंसा रहता है। इस अज्ञान को मिटाने के लिए उन्होंने आत्म-चिंतन और आत्म-जांच पर जोर दिया।
उन्होंने साधकों को खुद से यह सवाल पूछने के लिए प्रेरित किया:
"मैं कौन हूँ?" (कोहम)
इस प्रश्न का उत्तर अंततः व्यक्ति को यह अनुभव कराता है:
"मैं ब्रह्म हूँ" (अहम ब्रह्मास्मि)
यह शिक्षा बताती है कि हर व्यक्ति की असली पहचान उसकी भौतिक देह नहीं, बल्कि ब्रह्मस्वरूप आत्मा है। जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वही मोक्ष को प्राप्त करता है। शंकराचार्य ने लोगों को भौतिक संसार की क्षणभंगुरता को समझने की सलाह दी।
उनका मानना था कि धन, संबंध और बाहरी सुख-सुविधाएं अस्थायी हैं। इन क्षणिक चीज़ो में उलझने के बजाय, व्यक्ति को शाश्वत सत्य (ब्रह्म) को पाने का प्रयास करना चाहिए। उनकी शिक्षाएँ हमें सिखाती हैं कि सच्चा सुख बाहरी चीज़ो में नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान में छिपा है। वे आज भी आत्म-अनुसंधान और आध्यात्मिक जागरूकता की प्रेरणा देती हैं।
आइए अब आदि शंकराचार्य के दार्शनिक और साहित्यिक योगदान को समझते हैं:
भारतीय दर्शन, धर्म और आध्यात्मिक विकास में आदि शंकराचार्य का योगदान अतुलनीय रहा है। उनकी शिक्षाएँ साधक को ब्रह्म (परम सत्य) का अनुभव कराती हैं। उन्होंने हिंदू सनातन धर्म को मज़बूत आधार देने के लिए कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जो आज भी धार्मिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए प्रमुख स्रोत हैं। आदि शंकराचार्य ने संस्कृत में लगभग 300 ग्रंथ लिखे, जिनमें टिप्पणियाँ (भाष्य), व्याख्याएँ और काव्य रचनाएँ शामिल हैं।
हालाँकि, इनमें से सभी को प्रमाणिक नहीं माना जाता, फिर भी कुछ प्रमुख रचनाएँ पूरी तरह प्रमाणिक मानी जाती हैं:
आदि शंकराचार्य का उद्देश्य मानव जाति को सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त करना था। उनका मानना था कि संसार में हर व्यक्ति तीन प्रकार के दुखों से पीड़ित है:
आदि शंकराचार्य के अनुसार, इन कष्टों से मुक्ति का एकमात्र मार्ग ब्रह्मज्ञान है – यानी यह समझना कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। उन्होंने जीवनभर अद्वैत वेदांत का प्रचार किया, जिसका मूल संदेश है: "ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है।"
आइए अब जानते हैं कि हिंदू दर्शन और अध्यात्म में आदि शंकराचार्य का क्या योगदान रहा है:
आदि शंकराचार्य का हिंदू दर्शन में योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और अतुलनीय माना जाता है। उन्होंने उपनिषद, भगवद गीता और ब्रह्मसूत्र जैसे जटिल ग्रंथों पर सरल और स्पष्ट भाष्य (टिप्पणियाँ) लिखकर इन दार्शनिक ग्रंथों को आम लोगों के लिए भी सुलभ बना दिया। उनके प्रयासों ने विभिन्न विचारधाराओं को एकीकृत किया और अद्वैत वेदांत को एक मज़बूत आधार प्रदान किया।
- दर्शन के साथ भक्ति का समावेश: शंकराचार्य ने केवल दार्शनिक विचार ही नहीं दिए, बल्कि भक्ति को भी उतना ही महत्व दिया। उन्होंने 'भज गोविन्दम् ', 'आत्म शतकम' और 'सौंदर्य लहरी' जैसे मधुर और गहरे भक्ति भजन भी रचे। ये भजन आध्यात्मिक ज्ञान को सरल और काव्यात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे साधकों में भक्ति और आत्मचिंतन की भावना जाग्रत होती है।
- अध्यात्म और जीवन का समन्वय: शंकराचार्य ने अपने ग्रंथों और भजनों के माध्यम से सिर्फ़ दर्शन का प्रचार नहीं किया, बल्कि लोगों को आध्यात्मिक जीवन का महत्व भी समझाया। उनके विचार आज भी लाखों लोगों को आत्मज्ञान, भक्ति और मोक्ष की राह दिखाते हैं। उनका जीवन और शिक्षा हमें सिखाते हैं कि ज्ञान और भक्ति, दोनों का समन्वय ही सच्चा अध्यात्म है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में सांता क्रूज़, कैलिफ़ोर्निया में शंकराचार्य की मूर्ति का स्रोत : Wikimedia
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