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जौनपुरवासियों, हमारे शहर की गलियों में लकड़ी के खिलौनों की दुकानों की चहल-पहल अब केवल व्यापार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बनती जा रही है। आपने भी देखा होगा कि कैसे बच्चों की आंखों में चमक भर देने वाले रंग-बिरंगे लकड़ी के खिलौने फिर से लोकप्रिय हो रहे हैं। इस पुनरुत्थान की प्रेरणा अगर कहीं से आई है, तो वह है आंध्र प्रदेश का प्रसिद्ध कोंडापल्ली। कोंडापल्ली खिलौने न केवल एक हस्तशिल्प हैं, बल्कि यह भारत की जीवंत परंपराओं, रंगों और जीवन के विविध पहलुओं को प्रदर्शित करने वाली चलती-फिरती कहानियां हैं। आज के लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि इन खिलौनों की ऐतिहासिक उत्पत्ति क्या है, कैसे इनका निर्माण होता है, इनका सांस्कृतिक महत्व क्या है, कौन-कौन से खिलौने सबसे प्रसिद्ध हैं, और इन सबके बीच भारत के पारंपरिक खिलौना उद्योग की स्थिति कैसी है।
इस लेख में हम कोंडापल्ली खिलौनों की अनोखी दुनिया को पाँच पहलुओं में समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम देखेंगे कि इन खिलौनों की शुरुआत कहाँ से हुई और इन्हें गढ़ने वाले कारीगरों की परंपरा कितनी समृद्ध है। फिर हम जानेंगे कि इनका निर्माण कैसे होता है—कौन-सी खास लकड़ी, रंग और तकनीकें इसमें इस्तेमाल होती हैं। तीसरे भाग में हम समझेंगे कि त्योहारों और धार्मिक आयोजनों में इन खिलौनों की क्या भूमिका होती है। इसके बाद, हम देखेंगे कि कोंडापल्ली खिलौनों के कौन-कौन से प्रकार हैं और उनमें कैसे लोकजीवन और पौराणिक कथाएँ जीवंत हो उठती हैं। अंत में, हम जानेंगे कि आज के तेज़ी से बदलते खिलौना उद्योग में इस पारंपरिक शिल्प की क्या स्थिति है और इसे संरक्षित रखने के लिए क्या किया जा रहा है।

कोंडापल्ली खिलौनों की ऐतिहासिक उत्पत्ति और कारीगर परंपरा
कोंडापल्ली खिलौनों की कहानी केवल लकड़ी या रंगों की नहीं, बल्कि सदियों पुराने शिल्प कौशल की कहानी है। 16वीं शताब्दी में राजस्थान से आए आर्य क्षत्रिय कारीगरों का एक समुदाय, आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले के कोंडापल्ली क्षेत्र में आकर बसा। यह प्रवास सामान्य नहीं था—इन्हें अनवेमा रेड्डी नामक स्थानीय शासक ने आमंत्रित किया था ताकि वे अपनी शिल्प परंपरा को दक्षिण भारत में स्थापित कर सकें। इन कारीगरों की विरासत का उल्लेख ‘ब्रह्माण्ड पुराण’ तक में मिलता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह कला केवल व्यावसायिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी जुड़ी हुई है।
किंवदंती है कि इन कारीगरों के पूर्वज ‘मुक्थर्षि’ नामक एक ऋषि थे, जिन्हें स्वयं भगवान शिव ने यह कौशल प्रदान किया था। इस कारण, खिलौनों का निर्माण केवल एक हस्तकला नहीं, बल्कि एक धार्मिक कर्म की भांति भी किया जाता था। कोंडापल्ली के कारीगर, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘नक्काशी’ या ‘बोम्मालु’ बनाने वाले कहा जाता है, आज भी इस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं, जो उनकी पीढ़ियों के अनुभव, आस्था और कल्पना से उपजी है।
कोंडापल्ली खिलौनों का निर्माण: टेला पोनिकी लकड़ी से लेकर चमकीली रंगाई तक
कोंडापल्ली खिलौनों का निर्माण, तकनीक और कल्पना का ऐसा संगम है, जो प्रत्येक खिलौने को जीवंत बना देता है। यह प्रक्रिया शुरू होती है ‘टेला पोनिकी’ नामक विशेष प्रकार की लकड़ी से, जो हल्की, मुलायम और आसानी से तराशी जा सकने वाली होती है। यह लकड़ी विशेष रूप से आंध्र प्रदेश के जंगलों में पाई जाती है और पर्यावरण के अनुकूल भी होती है।
सबसे पहले, लकड़ी को कुछ समय के लिए सुखाया जाता है ताकि उसकी नमी निकल जाए और उसमें कीड़े न लगे। फिर इसे छोटे टुकड़ों में काटकर खिलौने के अंगों जैसे सिर, धड़, हाथ-पैर आदि के आकार में तराशा जाता है। इन अंगों को गोंद से जोड़कर खिलौने का ढांचा तैयार किया जाता है। इसके बाद खिलौनों को गर्म किया जाता है ताकि वे टिकाऊ हो जाएं। इसके बाद आता है ‘आकड़ा’ पेस्ट का चरण, जो दरारों को भरता है और सतह को चिकना बनाता है।
अब बारी होती है रेत के कागज से घिसाई की, और फिर एक बेस कोट या प्राइमर की। इसके बाद खिलौने को जीवंत बनाता है रंग—चटकीले, बोलते हुए रंग। लाल, पीला, हरा, नीला और काला—हर रंग एक कहानी बयां करता है। पहले ये रंग प्राकृतिक होते थे, पर अब इनमे एनामेल और सिंथेटिक रंगों का भी प्रयोग होता है, जो चमकदार और टिकाऊ होते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में एक कारीगर कई दिनों तक एक ही खिलौने पर काम करता है, जिससे हर टुकड़ा अनोखा बन जाता है।

कोंडापल्ली खिलौनों का सांस्कृतिक महत्त्व और त्योहारों में इनकी भूमिका
कोंडापल्ली के खिलौने सिर्फ बच्चों के खेलने की वस्तुएँ नहीं हैं, वे भारतीय जीवनशैली, धार्मिक परंपराओं और सांस्कृतिक मूल्यों के वाहक हैं। हर साल आंध्र प्रदेश में मकर संक्रांति के अवसर पर ‘बोम्मला कोलुवु’ नामक प्रदर्शनी आयोजित की जाती है, जहाँ घर-घर में रंग-बिरंगे कोंडापल्ली खिलौनों की सीढ़ीदार सजावट की जाती है। यह सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि महिलाओं और बच्चों के बीच संवाद और रचनात्मकता का जरिया भी होता है। इन खिलौनों का उपयोग लोककथाओं और पुराण कथाओं को सुनाने में भी होता है। जब एक दादी अपने पोते को महाभारत की कोई कहानी सुनाते हुए अर्जुन की लकड़ी की मूर्ति दिखाती है, तो वह क्षण केवल कहानी नहीं, एक संस्कार बन जाता है। कोंडापल्ली के कारीगर इन खिलौनों को कभी-कभी अपने पारिवारिक अनुभवों और सामुदायिक संस्कृति से भी जोड़ते हैं, जिससे उनमें मानवीय गहराई आ जाती है। कोंडापल्ली का ऐतिहासिक किला भी इन खिलौनों की पहचान में एक भूमिका निभाता है। यह 14वीं शताब्दी का किला, जहां से इन खिलौनों की लोकप्रियता फैली, खुद भी इस क्षेत्र की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतीक है। ऐसे में, ये खिलौने केवल सजावटी वस्तुएँ नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा के संवाहक हैं।
कोंडापल्ली खिलौनों के प्रमुख प्रकार और उनकी विशिष्टता
कोंडापल्ली के खिलौनों की विविधता देखने लायक होती है। हर खिलौना, एक अलग कहानी और एक विशिष्ट शैली को दर्शाता है। उदाहरण के लिएं:
गांव का सेट – इसमें 24 गुड़ियाँ होती हैं जो ग्रामीण जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे किसान, मछुआरे, संगीतकार, पुजारी आदि को दर्शाती हैं।
अम्बारी हाथी – यह एक राजसी हाथी होता है जिस पर राजा सवारी करते हुए दिखाया जाता है। इसकी नक्काशी अत्यंत बारीक और सुंदर होती है।
राजा और रानी – ये खिलौने पारंपरिक पोशाकों और गहनों के साथ होते हैं, जो शाही जीवनशैली को दर्शाते हैं।
ऋषि – इन खिलौनों में एक ध्यानस्थ ऋषि को अग्निवेदी के सामने बैठे दिखाया जाता है, जो धार्मिक आस्था को मजबूत करता है।
मछली बेचने वाली महिला – यह खिलौना आंध्र के तटीय जीवन को दर्शाता है, जिसमें एक महिला अपने सिर पर मछलियों की टोकरी लिए बाज़ार जाती है।
कामकाजी लोग – जैसे कुम्हार, बुनकर, लोहार आदि के चित्रण वाले खिलौने बच्चों को परंपरागत कामों से जोड़ते हैं।
इन खिलौनों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे न केवल सुंदर होते हैं, बल्कि सामाजिक ज्ञान और जीवन-मूल्यों को भी प्रस्तुत करते हैं। एक प्रकार से ये खिलौने बच्चों के लिए ‘खेल के साथ ज्ञान’ का माध्यम बन जाते हैं।

भारतीय खिलौना उद्योग: पारंपरिक शिल्प बनाम मशीन निर्मित विकल्पों की प्रतिस्पर्धा
भारत का खिलौना निर्माण उद्योग कोई नया नहीं, बल्कि 8,000 वर्षों पुराना है। हड़प्पा काल से लेकर आज तक, भारत में मिट्टी, बांस, कपड़े और लकड़ी से बने खिलौनों की परंपरा रही है। लेकिन आज, ग्लोबल मार्केट और चीनी मशीन-निर्मित खिलौनों की बाढ़ के बीच, पारंपरिक हस्तशिल्प खिलौनों की पहचान और अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है।
कोंडापल्ली जैसे शिल्प क्षेत्रों को यह चुनौती दोहरी है—एक ओर सस्ते आयातित उत्पाद, दूसरी ओर आधुनिक बच्चों की तकनीकी रुचि। लेकिन सरकार द्वारा ‘वोकल फॉर लोकल’ जैसी योजनाओं से हस्तनिर्मित खिलौनों को फिर से बढ़ावा दिया जा रहा है। साथ ही, GI टैग जैसी पंजीकरण व्यवस्थाएं इन शिल्पों की पहचान को कानूनी संरक्षण देती हैं।
वर्तमान में भारत का खिलौना उद्योग 1.5 बिलियन डॉलर का है, और इसके 2025 तक 3 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। जौनपुर जैसे शहरों में, जहाँ परंपरागत शिल्प को नया जीवन दिया जा रहा है, वहाँ यदि स्थानीय हस्तकला को संगठित रूप में बढ़ाया जाए, तो यह न केवल रोजगार का साधन बनेगा, बल्कि सांस्कृतिक गर्व का विषय भी बनेगा।
संदर्भ-