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जौनपुरवासियो, हमारी भारतीय संस्कृति में गाय का स्थान केवल एक पशु तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसे माता का दर्जा दिया गया है। वेदों, पुराणों और लोककथाओं में गाय को करुणा, शांति और समृद्धि का प्रतीक बताया गया है। पूजा-पाठ से लेकर घरेलू जीवन तक, पंचगव्य (दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र) का महत्व यह दर्शाता है कि गाय हमारे सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन का अभिन्न हिस्सा रही है। जौनपुर जैसे ऐतिहासिक नगर के ग्रामीण इलाकों में भी लंबे समय से गाय न सिर्फ दूध और खाद का स्रोत रही है, बल्कि परिवार का हिस्सा मानी जाती रही है। लेकिन आज जब आप अपने आस-पास की सड़कों और खेतों में आवारा और असहाय गायों को भटकते हुए देखते हैं, तो दिल में पीड़ा भी उठती है और सवाल भी। यह दृश्य हमारी उस समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और बदलते सामाजिक यथार्थ के बीच की गहरी खाई को उजागर करता है। एक ओर हम गाय को “गौमाता” कहकर पूजते हैं, वहीं दूसरी ओर आधुनिक आर्थिक दबाव और सामाजिक ढांचे की कठिनाइयाँ इसे असुरक्षा और उपेक्षा की ओर धकेल रही हैं। यह विरोधाभास हमें सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर हम परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन कैसे बना सकते हैं और उस गाय की रक्षा कैसे कर सकते हैं, जिसे हमारी संस्कृति ने इतना ऊँचा स्थान दिया है।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारतीय संस्कृति में गाय को माता का दर्जा क्यों दिया गया और इसका धार्मिक व सामाजिक महत्व क्या है। इसके बाद, हम जानेंगे कि आवारा और परित्यक्त गायों की समस्या आज क्यों बढ़ती जा रही है और यह समाज व किसानों के लिए किस प्रकार की कठिनाइयाँ खड़ी करती है। फिर, हम देखेंगे कि गौवध प्रतिबंध जैसे कानूनों ने इस समस्या को हल करने के बजाय कभी-कभी और गंभीर क्यों बना दिया है। साथ ही, हम गौशालाओं की वर्तमान स्थिति और कुप्रबंधन पर भी चर्चा करेंगे और यह समझेंगे कि इन्हें आत्मनिर्भर बनाकर किस तरह से समाधान खोजा जा सकता है। अंत में, हम भविष्य की संभावनाओं पर विचार करेंगे कि कैसे एक सशक्त और टिकाऊ मॉडल बनाकर इस समस्या का राष्ट्रीय स्तर पर हल निकाला जा सकता है।
भारतीय संस्कृति और गाय का महत्व
भारत में गाय को माता का दर्जा दिया गया है और यही कारण है कि इसे गौमाता कहकर पुकारा जाता है। धार्मिक ग्रंथों से लेकर लोककथाओं तक, गाय को करुणा, समृद्धि और जीवनदायिनी शक्ति का प्रतीक माना गया है। पूजा-पाठ और यज्ञ में पंचगव्य (दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र) का उपयोग आज भी गाय की पवित्रता और धार्मिक महत्ता को दर्शाता है। हमारे पूर्वजों ने गाय को सिर्फ दूध देने वाले पशु के रूप में नहीं देखा, बल्कि उसे जीवन का आधार और परिवार का सदस्य माना। लेकिन दुख की बात यह है कि आज बदलते सामाजिक और आर्थिक हालात में वही गायें, जिन्हें कभी देवत्व की दृष्टि से पूजनीय माना जाता था, आवारा और असहाय होकर सड़कों पर भटक रही हैं। यह स्थिति हमारी संस्कृति और वर्तमान वास्तविकता के बीच की खाई को उजागर करती है और यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम परंपरा का सम्मान तो करते हैं, पर उसके मूल भाव को निभाने में चूक क्यों जाते हैं।
आवारा और परित्यक्त गायों की समस्या
पशुपालन मंत्रालय की 2019 की 20वीं पशुधन गणना के अनुसार भारत में लगभग 50 लाख मवेशी बेघर और आवारा पाए गए। यह संख्या अपने आप में चिंता का विषय है, क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर जानवर सड़कों और खेतों में भटक रहे हैं। इनमें से अधिकतर गायें और बैल भोजन और पानी की तलाश में यहाँ-वहाँ घूमते हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में स्थिति और गंभीर है, क्योंकि यहाँ गौवध प्रतिबंधित है। किसान बूढ़ी या दूध न देने वाली गायों को बेच नहीं पाते और मजबूरी में उन्हें खुला छोड़ देते हैं। ऐसे जानवर रात के समय खेतों में घुसकर फसलें नष्ट कर देते हैं, जिससे किसानों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर, सड़कों पर आवारा मवेशी अक्सर दुर्घटनाओं का कारण भी बनते हैं। यह समस्या सिर्फ ग्रामीणों और किसानों के लिए ही नहीं, बल्कि शहरों में रहने वाले आम नागरिकों की सुरक्षा के लिए भी बड़ी चुनौती है। और सबसे दुखद यह है कि इन परिस्थितियों में गायों को सम्मान और सुरक्षा नहीं, बल्कि भटकाव और उपेक्षा का जीवन मिलता है।
गौवध प्रतिबंध और उससे उत्पन्न चुनौतियाँ
उत्तर प्रदेश सरकार ने 2020 में गौवध निवारण (संशोधन) अधिनियम लागू किया। इसका उद्देश्य धार्मिक भावनाओं की रक्षा करना और गौहत्या पर सख़्ती से रोक लगाना था। कानून ने अपने मकसद को जरूर पूरा किया, लेकिन इसके अप्रत्याशित नतीजे भी सामने आए। दूध न देने वाली गायों को न तो मारा जा सकता है और न ही आसानी से पाला जा सकता है, क्योंकि उनके पालन-पोषण पर अतिरिक्त खर्च आता है। ऐसी स्थिति में किसान मजबूर होकर इन जानवरों को खुला छोड़ देते हैं। नतीजतन, आवारा मवेशियों की संख्या और बढ़ने लगी। यानी एक ओर यह कानून धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, लेकिन दूसरी ओर इसने किसानों और पशुपालकों के लिए नई मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। आज हालात यह हैं कि गाँवों और कस्बों में बड़ी संख्या में आवारा मवेशी दिख जाते हैं, और उनका प्रबंधन करना सरकार के लिए चुनौती बन गया है।
गौशालाओं की वर्तमान स्थिति और कुप्रबंधन
गौशालाओं को आवारा मवेशियों की समस्या का समाधान माना गया था, लेकिन ज़मीनी हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। कई जगहों पर गौशालाएं सिर्फ नाम मात्र की हैं। उदाहरण के लिए, फर्रुखाबाद गांव में एक भूखंड गायों के शवों का डंपिंग यार्ड बन चुका है। स्थानीय ग्रामीणों के अनुसार, यहाँ पिछले कई वर्षों से मृत गायों को फेंका जा रहा है। वहीं, हनुमान टेकरी जैसी सरकारी गौशालाओं में भी कुप्रबंधन की स्थिति देखने को मिलती है। ग्रामीण और श्रमिक बताते हैं कि वहाँ गायों को न तो पर्याप्त हरा चारा मिलता है और न ही पर्याप्त पानी। कई बार उन्हें सिर्फ सूखा चारा खिलाया जाता है और दिन में एक बार ही पानी दिया जाता है। ऐसी लापरवाही के कारण गायें कुपोषण और प्यास से मर जाती हैं। गौशालाओं के लिए आवंटित धन अक्सर अपर्याप्त होता है या सही जगह खर्च नहीं हो पाता, जिसकी वजह से बुनियादी ढांचे और संसाधनों की भारी कमी रहती है। यह स्थिति साफ़ बताती है कि सिर्फ गौशाला खोल देना समाधान नहीं है, बल्कि उसके संचालन और प्रबंधन की पारदर्शिता और गुणवत्ता भी उतनी ही आवश्यक है।
गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाने की संभावनाएँ
गौशालाओं को आत्मनिर्भर बनाना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। गाय केवल दूध देने में ही उपयोगी नहीं, बल्कि उसका गोबर और मूत्र भी बहुत मूल्यवान है। गोबर से बायोगैस बनाई जा सकती है, जिसका इस्तेमाल खाना पकाने, बिजली उत्पादन और छोटे उद्योगों में किया जा सकता है। इसी तरह, गोबर से जैविक खाद तैयार करके किसानों को सस्ती और पर्यावरण-अनुकूल उर्वरक दी जा सकती है। इससे किसानों को भी फायदा होगा और रासायनिक खादों पर निर्भरता घटेगी। मूत्र का इस्तेमाल औषधीय और कृषि कार्यों में किया जा सकता है। अगर इन संसाधनों का सही इस्तेमाल किया जाए तो गौशालाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सकती हैं और सरकार पर उनका बोझ कम होगा। इससे न केवल गायों की देखभाल ठीक से हो सकेगी, बल्कि पर्यावरण संरक्षण और ग्रामीण रोजगार में भी मदद मिलेगी।
भविष्य की संभावनाएँ और राष्ट्रीय विस्तार
मुजफ्फरनगर जिले में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (National Dairy Development Board) की मदद से 63 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली विशाल गौशाला इस दिशा में एक प्रेरणादायक पहल है। इसमें लगभग 5,000 जानवरों के लिए आवास की व्यवस्था की जाएगी। साथ ही, यहाँ बायोगैस (biogas) संयंत्र, खाद निर्माण और मृत पशुओं के निपटान की सुविधाएँ भी होंगी। यह गौशाला न केवल आवारा पशुओं के लिए सुरक्षित ठिकाना होगी, बल्कि अनुसंधान और प्रशिक्षण का भी केंद्र बनेगी। अगर यह पायलट परियोजना सफल होती है, तो इसे पूरे देश में लागू किया जा सकता है। इसमें गैर सरकारी संगठन, किसान संगठन, स्वयं सहायता समूह और ट्रस्ट भी भागीदार बन सकते हैं। इससे न केवल गायों का संरक्षण होगा, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी एक नया बल मिलेगा। यह परियोजना एक ऐसा मॉडल प्रस्तुत कर सकती है जिसमें परंपरा, आस्था, विज्ञान और आर्थिक विकास सब एक साथ आगे बढ़ें।
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