कैसे सूक्ष्मजीव बना रहे हैं जौनपुरवासियों की थाली को स्वाद और सेहत से भरपूर

बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ, क्रोमिस्टा और शैवाल
18-10-2025 09:22 AM
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कैसे सूक्ष्मजीव बना रहे हैं जौनपुरवासियों की थाली को स्वाद और सेहत से भरपूर

जौनपुरवासियो, क्या आपने कभी ठहरकर सोचा है कि हमारी थाली में रखा दही, गर्मी की दोपहर में गिलास भरकर पी जाने वाली ठंडी लस्सी, या किसी खास मौके पर परोसा जाने वाला मलाईदार पनीर आखिर इतना खास क्यों लगता है? यह सिर्फ़ स्वाद या तृप्ति की बात नहीं है, बल्कि इसके पीछे छिपा है विज्ञान और परंपरा का अद्भुत मेल। जौनपुर की गलियों और बाज़ारों में आपको दूध से बने ये उत्पाद आसानी से मिल जाते हैं, और यही कारण है कि घर-घर में लोग इन्हें बड़े चाव से खाते-पीते हैं। दही जमाने से लेकर लस्सी बनाने तक और पनीर को काटकर परोसने तक - ये सब हमारे भोजन और संस्कृति का हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन इन स्वादिष्ट व्यंजनों के पीछे काम करती है एक अदृश्य और रोचक दुनिया - सूक्ष्मजीवों की दुनिया। ये छोटे-छोटे जीव हमारे लिए दूध को नए-नए रूपों में बदल देते हैं। किण्वन (fermentation) नामक यह प्रक्रिया न केवल दही और पनीर को जन्म देती है, बल्कि उनके स्वाद, बनावट और पौष्टिकता को भी बढ़ाती है। यही वजह है कि हमारे बुज़ुर्ग हमेशा कहते हैं - किण्वन केवल खाना बनाने की तकनीक नहीं, बल्कि भोजन को जीवनदायी बनाने की कला है। सच तो यह है कि किण्वन के बिना हमारी थाली का स्वाद अधूरा रह जाएगा।
आज के इस लेख में हम किण्वन और इसके अद्भुत प्रभावों को आसान भाषा में समझने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले हम जानेंगे कि डेयरी किण्वन (dairy fermentation) का हमारे रोज़मर्रा के स्वादिष्ट उत्पादों से क्या गहरा संबंध है और यह हमारी थाली को किस तरह और समृद्ध बना देता है। इसके बाद हम विस्तार से देखेंगे कि लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (Lactic Acid Bacteria - LAB) दूध को दही और पनीर जैसे रूपों में कैसे बदलते हैं और इस प्रक्रिया के पीछे क्या रहस्य छिपा है। आगे चलकर हम यह भी समझेंगे कि दही केवल एक खाद्य पदार्थ नहीं, बल्कि भारतीय परंपरा और वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनूठा संगम क्यों माना जाता है। और अंत में, हम किण्वन की व्यापक दुनिया में झांकते हुए सोया सॉस (soya sauce), वाइन (wine), बीयर (beer) और ब्रेड जैसे उदाहरणों पर नज़र डालेंगे, जिनमें यीस्ट (yeast) और अन्य सूक्ष्मजीव स्वाद, सुगंध और गुणवत्ता को खास बनाते हैं।

डेयरी किण्वन और स्वादिष्ट उत्पादों का संबंध
भारतीय भोजन में दही, लस्सी और पनीर जैसे उत्पाद केवल स्वाद की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि पोषण और स्वास्थ्य के लिहाज़ से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। एक कटोरी ताज़ा दही, गर्मियों में शरीर को ठंडक देती है, तो लस्सी पेट को हल्का और पचने योग्य बनाती है। मलाई पनीर से बने व्यंजन किसी भी दावत की शान होते हैं। लेकिन इन सभी स्वादिष्ट और पौष्टिक खाद्य पदार्थों का आधार है किण्वन। यह वह प्रक्रिया है जिसमें सूक्ष्मजीव दूध को संरक्षित करते हैं, उसके स्वाद को निखारते हैं और उसे नए रूप में प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में, यही कारण है कि किण्वन भारतीय आहार का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। हमारी दादी-नानी से लेकर आधुनिक रसोइयों तक - सभी ने इस प्रक्रिया को अपने-अपने ढंग से अपनाया है और इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है।

डेयरी किण्वन में लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया की भूमिका
जब दूध को दही या पनीर में बदला जाता है, तो इसमें मुख्य भूमिका निभाते हैं लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया। यह सूक्ष्मजीव दूध में मौजूद शर्करा लैक्टोज को लैक्टिक एसिड में बदल देते हैं। जैसे ही अम्लता बढ़ती है, दूध गाढ़ा होकर दही में बदल जाता है और पनीर के लिए जमाव (Coagulation) की स्थिति बनती है। पारंपरिक तरीकों में घर की रसोई से बचा हुआ दही अगले दिन का स्टार्टर कल्चर (starter culture) बनता था। बड़े पैमाने पर उत्पादन में विशेष प्रकार के स्टार्टर कल्चर डाले जाते हैं, जिससे स्वाद और गुणवत्ता में एकरूपता बनी रहती है।
इसके अलावा, दही या पनीर के पकने का समय, तापमान और आर्द्रता इनके अंतिम स्वाद और बनावट को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि कभी-कभी घर में जमाया दही हल्का खट्टा होता है, तो बाजार से लिया गया दही थोड़ा अलग स्वाद देता है। वास्तव में, लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया ही वह अदृश्य कलाकार हैं, जो दूध को स्वादिष्ट और पौष्टिक रूपों में ढालते हैं।

दही: भारतीय परंपरा और वैज्ञानिक प्रक्रिया
भारत में दही केवल भोजन नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और आस्था से भी जुड़ा हुआ है। शादी-ब्याह से लेकर धार्मिक अनुष्ठानों तक, दही का उपयोग शुभता के प्रतीक के रूप में होता आया है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो, दही जमाने की प्रक्रिया अत्यंत रोचक है। दूध में मौजूद लैक्टोज शर्करा (lactose sugar), बैक्टीरिया की मदद से लैक्टिक एसिड में बदल जाती है। यह अम्लता दूध को गाढ़ा बनाती है और दही को उसका विशिष्ट खट्टा-मीठा स्वाद देती है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में दही की विविधताएँ देखने को मिलती हैं। उत्तर भारत में हल्का खट्टा दही, बंगाल का मीठा दही (मिष्ठी दही), दक्षिण भारत का मठ्ठा या दही से बने व्यंजन - ये सभी स्थानीय स्वाद और परंपरा का हिस्सा हैं। यह विविधता दर्शाती है कि कैसे एक ही वैज्ञानिक प्रक्रिया ने देशभर में अलग-अलग स्वाद और सांस्कृतिक पहचान विकसित की है। यही कारण है कि दही को भारतीय भोजन में "पवित्र और पोषक" दोनों माना जाता है।

सोया सॉस निर्माण में किण्वन की परंपरा
भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर भी किण्वन का इतिहास उतना ही समृद्ध है। एशियाई देशों में सोया सॉस का निर्माण हजारों वर्षों से हो रहा है। इसे बनाने की प्रक्रिया लंबी और धैर्यपूर्ण होती है। सबसे पहले, सोयाबीन और गेहूं को पकाकर व भूनकर एक मिश्रण बनाया जाता है। इसमें कोजी (Koji) नामक विशेष फंगस (fungus) मिलाया जाता है। यही कोजी सोया सॉस के गहरे स्वाद का पहला चरण तैयार करता है। इसके बाद यह मिश्रण ब्राइन किण्वन (Brine fermentation) में जाता है, जहाँ महीनों या सालों तक धीरे-धीरे प्रोटीन (protein) और कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) टूटकर स्वादिष्ट यौगिकों में बदलते हैं। इसमें विशेष रूप से ग्लूटामिक एसिड (glutamic acid) नामक अमीनो एसिड (amino acid) उत्पन्न होता है, जो उमामी स्वाद देता है। यही स्वाद मशरूम या परमेसन चीज़ (parmesan cheese) में भी पाया जाता है। कई पुरानी ब्रुअरीज (breweries) सोया सॉस को वर्षों तक पकने देती हैं, जिससे इसका स्वाद और सुगंध बेहद समृद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार सोया सॉस, किण्वन की परंपरा और धैर्य का एक जीवंत उदाहरण है।

यीस्ट और पेय उद्योग: वाइन व बीयर में योगदान
यदि किण्वन की बात हो और यीस्ट का नाम न आए, तो यह अधूरी होगी। वाइन, बीयर और अन्य अल्कोहलिक पेय पदार्थों के निर्माण में यीस्ट की भूमिका केंद्रीय है। यह सूक्ष्मजीव फलों या अनाज में मौजूद शर्करा को तोड़कर अल्कोहल (alcohol) और कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) में बदल देता है। वाइन निर्माण में, अंगूर का रस (मस्ट - must) यीस्ट की मदद से धीरे-धीरे वाइन में बदलता है। बीयर में जौ और अन्य अनाज का उपयोग किया जाता है। इन पेय पदार्थों का स्वाद, रंग और सुगंध कई कारकों पर निर्भर करते हैं - जैसे तापमान, किण्वन की अवधि और उपयोग किए गए यीस्ट का प्रकार। यही कारण है कि फ्रांस की वाइन और जर्मनी (Germany) की बीयर का स्वाद आपस में बिल्कुल अलग होता है। इस प्रकार यीस्ट केवल अल्कोहल बनाने तक सीमित नहीं, बल्कि स्वाद और संस्कृति को आकार देने में भी भूमिका निभाता है।

ब्रेड उत्पादन में यीस्ट की भूमिका
हमारे रोज़मर्रा के जीवन का हिस्सा बनी ब्रेड भी यीस्ट की देन है। आटे में यीस्ट डालने से यह शर्करा को खाकर कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करता है। यही गैस आटे को फुलाकर उसे हल्का और स्पंजी बनाती है। इस प्रक्रिया को प्रूफिंग (Proofing) कहा जाता है। बेकिंग (baking) के समय गर्मी से यीस्ट नष्ट हो जाता है, लेकिन आटे में बनी संरचना स्थायी हो जाती है। ब्रेड की मुलायम बनावट और उसके ऊपर की कुरकुरी परत - दोनों का श्रेय यीस्ट को जाता है। साथ ही, किण्वन के दौरान बनने वाले सुगंधित यौगिक ब्रेड को उसका मनमोहक स्वाद और खुशबू देते हैं। यही कारण है कि ताज़ा पकी हुई ब्रेड की महक किसी भी इंसान को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। चाहे साधारण रोटी हो, राई ब्रेड (Rye Bread) हो या आधुनिक बेकरी (bakery) का कोई विशेष व्यंजन - सबकी आत्मा यीस्ट ही है।

संदर्भ-
https://shorturl.at/EEbjo 



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