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जौनपुरवासियो, क्या आप जानते हैं कि हमारे देश की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और इसका असर हमारे न्याय वितरण प्रणाली पर सीधे तौर पर पड़ रहा है? यह केवल राष्ट्रीय स्तर की समस्या नहीं है, बल्कि इसका असर हमारे अपने जिले और छोटे-बड़े शहरों तक भी महसूस किया जा सकता है। जब मुक़दमे सालों या दशकों तक लंबित रहते हैं, तो केवल न्याय में देरी नहीं होती, बल्कि आम लोगों की समस्याओं का समाधान भी लंबा खिंच जाता है। इससे जनता के मन में न्यायपालिका के प्रति भरोसा प्रभावित होता है और लोग न्याय पाने के वैकल्पिक रास्तों के बारे में सोचने लगते हैं। हमारे दैनिक जीवन में कभी-कभी हमें खुद भी ऐसे मामलों का सामना करना पड़ता है - जैसे संपत्ति के विवाद, सरकारी या निजी कागज़ात से जुड़ी समस्याएँ, या छोटे-मोटे कानूनी मामले। यदि अदालतें समय पर इन्हें निपटा नहीं पातीं, तो व्यक्ति की परेशानियाँ और बढ़ जाती हैं। यही वजह है कि लंबित मामले सिर्फ आंकड़ों में नहीं, बल्कि हर नागरिक के जीवन पर असर डालते हैं।
इस लेख में सबसे पहले हम भारत की अदालतों में लंबित मामलों की चौंकाने वाली तस्वीर देखेंगे। इसके बाद, हम सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों के बढ़ते बोझ और उसके कारणों को समझेंगे। फिर, हम उच्च न्यायालयों में दशकों पुराने मुक़दमों की स्थिति पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, हम यह जानेंगे कि भारत में अदालती मामलों के लंबित होने के पीछे कौन-कौन से मूल कारण ज़िम्मेदार हैं। अंत में, हम समझेंगे कि इन लंबित मामलों का हमारी न्याय प्रणाली पर क्या-क्या प्रभाव पड़ता है।
भारत की अदालतों में लंबित मामलों की चौंकाने वाली तस्वीर
आज भारत में कुल लंबित अदालती मामलों की संख्या 51 मिलियन (million) से भी अधिक है। इनमें से लगभग 87% मामले ज़िला अदालतों में लंबित हैं, जबकि उच्च न्यायालयों में करीब 60 लाख मामले अभी भी निपटने का इंतज़ार कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या वर्तमान में लगभग 83,000 से अधिक है, जो अब तक का सबसे उच्च रिकॉर्ड है। यह आंकड़ा यह दर्शाता है कि देश की अदालतें लगातार बढ़ते मामलों के बोझ से दब रही हैं और समय पर न्याय प्रदान करना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। लंबित मामलों की यह विशाल संख्या दर्शाती है कि केवल केस दर्ज होने और निपटने की प्रक्रिया ही नहीं, बल्कि पूरी न्याय वितरण प्रणाली पर लगातार दबाव बढ़ रहा है। इस परिदृश्य से साफ़ है कि न्यायिक तंत्र में न केवल संसाधनों की कमी है, बल्कि व्यवस्थागत चुनौतियाँ भी गंभीर रूप से मौजूद हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों का बढ़ता बोझ और उसके कारण
सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या पिछले दशक में लगातार बढ़ती रही है। 2009 में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 26 से बढ़ाकर 31 की गई थी, लेकिन इसके बावजूद 2013 तक लंबित मामलों की संख्या 66,000 तक पहुँच गई। हालांकि 2014 और 2015 में कुछ कमी देखने को मिली, परंतु 2016 में फिर से यह संख्या 63,000 पर पहुँच गई। सूचना प्रौद्योगिकी के एकीकरण और कागज़ रहित अदालतों के प्रयासों से थोड़ी कमी आई, पर 2018 में यह 57,000 और 2019 में न्यायाधीशों की संख्या 34 होने के बावजूद 60,000 तक पहुँच गई। कोविड-19 (Covid-19) महामारी ने न्याय वितरण प्रणाली को और गंभीर रूप से प्रभावित किया। कार्यवाही अस्थायी रूप से रोकने और वस्तुतः फिर से शुरू करने में देरी के कारण लंबित मामलों की संख्या 65,000 से बढ़कर 70,000 और 2022 के अंत तक 79,000 तक पहुँच गई। वर्तमान में 83,000 से अधिक लंबित मामलों के बीच 27,604 (33%) मामले एक वर्ष से भी कम पुराने हैं। सुप्रीम कोर्ट में 38,995 नए मामले दाखिल हुए और 37,158 मामलों का निपटान किया गया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि निपटान की दर नए मामलों की दर के लगभग बराबर है, लेकिन बैकलॉग (backlog) लगातार बढ़ता जा रहा है।

उच्च न्यायालयों में दशकों पुराने मामलों की हकीकत
उच्च न्यायालयों की स्थिति भी बेहद गंभीर है। इस वर्ष तक भारत के विभिन्न उच्च न्यायालयों में लगभग 62 मामले ऐसे हैं जो 30 वर्षों से अधिक पुराने हैं। इनमें 1952 से लंबित तीन मामले भी शामिल हैं, जिनमें से दो कलकत्ता उच्च न्यायालय में और एक मद्रास उच्च न्यायालय में है। कुल लंबित 58.59 लाख मामलों में 42.64 लाख दीवानी और 15.94 लाख आपराधिक हैं। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) के अनुसार, लगभग 2.45 लाख ऐसे मामले हैं जो 20 से 30 वर्षों से लंबित हैं। इन पुराने मामलों में बड़ी संख्या के पक्षकार अब न तो सक्रिय हैं और न ही मामले को आगे बढ़ाने में रुचि रखते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि उचित कदम उठाकर 25-30% ऐसे मामलों को तुरंत निपटाया जा सकता है। यह स्थिति स्पष्ट करती है कि उच्च न्यायालयों में सिर्फ संख्या का ही नहीं, बल्कि समय और प्रक्रिया की प्रबंधन क्षमता का भी बड़ा अंतर है।
भारत में अदालती मामलों के लंबित होने के मूल कारण
अदालती मामलों के लंबित रहने के कई मुख्य कारण हैं।
न्याय प्रणाली पर लंबित मामलों के दूरगामी प्रभाव
लंबित मामलों का सबसे गंभीर असर यह है कि न्याय में देरी होती है। "जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइड" (Justice delayed is justice denied) यानी न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने जैसा ही है। इसके कारण कई व्यक्तियों और व्यवसायों को नुकसान उठाना पड़ता है। लंबे समय तक चलने वाले मामले जनता के न्यायपालिका पर विश्वास को घटाते हैं और लोग वैकल्पिक समाधान ढूँढने लगते हैं। साथ ही, पुराने मामलों का बोझ अदालतों की नई कार्यवाहियों पर ध्यान केंद्रित करने की क्षमता को बाधित करता है। यह एक दुष्चक्र की तरह काम करता है - जहाँ पुराने मुक़दमे लंबित रहते हैं, नए मामलों की प्रक्रिया धीमी हो जाती है, और बैकलॉग लगातार बढ़ता रहता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/3f5r7yns