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जौनपुरवासियो, जब भी हम अपने शहर की गलियों, चौक-चौराहों या गंगा-गोमती की हवाओं में सांस लेते हैं, तो यह हवा हमें जीवन का एहसास कराती है। लेकिन क्या हमने कभी ठहरकर सोचा है कि यही हवा अब धीरे-धीरे ज़हर बनती जा रही है? कभी हरियाली, ठंडी हवाओं और स्वच्छ वातावरण के लिए पहचाना जाने वाला हमारा जौनपुर अब प्रदूषण की चपेट में आ रहा है। खेतों की मिट्टी की खुशबू अब धूल के गुबार में छिपने लगी है, सड़कों पर बढ़ते वाहनों का धुआं आसमान तक छा रहा है, और सुबह की ताज़ी हवा में भी एक अजीब सी जलन महसूस होने लगी है। वायु प्रदूषण अब केवल दिल्ली या मुंबई जैसे महानगरों की समस्या नहीं रहा, बल्कि यह धीरे-धीरे हमारे जैसे शांत और सांस्कृतिक शहरों को भी अपनी गिरफ्त में ले रहा है। विकास और आधुनिकता की दौड़ में जहां सड़कों, इमारतों और कारखानों का विस्तार हो रहा है, वहीं पेड़-पौधों की संख्या घटती जा रही है। शहर की सुंदरता बढ़ाने के नाम पर पेड़ों को काटा जा रहा है, तालाबों को पाट दिया गया है और खुले मैदान अब कंक्रीट में बदलते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप, जो हवा कभी जीवन देती थी, अब वही हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरा बनने लगी है।
इस लेख में हम वायु प्रदूषण की वर्तमान स्थिति और उसके बढ़ते ख़तरे को विस्तार से समझेंगे। इसके साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि यह प्रदूषण हमारे मानव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है और किस तरह हमारे पेड़-पौधे व हरियाली इस खतरे से लड़ने में सबसे बड़ी ढाल हैं। आगे, हम देखेंगे कि पेड़ों की कटाई और शहरीकरण ने किस प्रकार पर्यावरण का संतुलन बिगाड़ा है और क्यों आज हर नागरिक और सरकार की साझा जिम्मेदारी बनती है कि आने वाली पीढ़ियों को एक स्वच्छ और सुरक्षित वातावरण दिया जाए।
वायु प्रदूषण की वर्तमान स्थिति और बढ़ता खतरा
आज भारत ऐसी सच्चाई का सामना कर रहा है जहाँ हमारी साँसें भी सुरक्षित नहीं रहीं। हवा, जिसे जीवन का आधार माना जाता है, अब धीरे-धीरे हमारे ही खिलाफ होती जा रही है। दिल्ली, लखनऊ, पटना, कानपुर, वाराणसी और मुंबई जैसे बड़े शहर तो पहले ही गैस चेंबर (gas chamber) बन चुके हैं, लेकिन अब समस्या सिर्फ इन तक सीमित नहीं है। छोटे शहरों - जैसे जौनपुर - की गली-कूचों की हवा भी भारी, दूषित और जहरीली होती जा रही है। पीएम2.5 (PM2.5) और पीएम2.5 (PM10) जैसे सूक्ष्म कण आँखों से दिखाई तो नहीं देते, लेकिन ये इतने घातक हैं कि फेफड़ों को चीरते हुए सीधे रक्त प्रवाह (Bloodstream) तक पहुँच जाते हैं। कारखानों की चिमनियों से उठता जहरीला धुआँ, बढ़ते वाहनों से निकलते धुएं, निर्माण स्थलों की उड़ती धूल, खेतों में पराली जलाना, धार्मिक समारोहों में पटाखे - ये सब मिलकर वातावरण को ऐसा बना रहे हैं जो धीरे-धीरे हमें बीमारियों की ओर धकेल रहा है। अगर अब भी हमने इसे गंभीरता से नहीं लिया तो आने वाला समय साँस लेने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर (Oxygen Cylinder) या एयर प्यूरीफायर (Air Purifier) पर निर्भर होने का होगा।

वायु प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव
स्वास्थ्य केवल अस्पतालों या दवाइयों से नहीं बचाया जा सकता - स्वास्थ्य सांसों की शुरुआत से ही बनता या बिगड़ता है। प्रदूषित हवा सबसे पहले हमारे फेफड़ों पर हमला करती है, पर इसका असर सिर्फ सांस लेने तक सीमित नहीं रहता। यह धीरे-धीरे हमारी आँखों में जलन, सिरदर्द, नींद न आना, थकान, बार-बार खाँसी और एलर्जी (allergy) जैसी समस्याओं को जन्म देती है। छोटी उम्र के बच्चे, गर्भवती महिलाएं और बुजुर्ग इसके सबसे आसान शिकार होते हैं। डॉक्टर बताते हैं कि लंबे समय तक दूषित हवा में रहने से शरीर के भीतर ऑक्सीजन की कमी होने लगती है, दिल पर दबाव बढ़ता है, प्रतिरोधक क्षमता घटती है और कैंसर का खतरा तक बढ़ सकता है। डब्ल्यूएचओ (WHO) के आंकड़े बताते हैं कि हर साल लगभग 70 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण मरते हैं। ये सिर्फ एक संख्या नहीं बल्कि ऐसे घरों की कहानी है जहां परिवार का कोई सदस्य धुएं की वजह से हमेशा के लिए खो गया।
पेड़ों और हरियाली की प्रकृति को संतुलित रखने में भूमिका
धरती पर अगर कोई जीवित प्राणी हमारी सांसों को बचाने के लिए चुपचाप पहरा देता है, तो वो हैं - पेड़। पेड़ सिर्फ छाया या लकड़ी देने वाला पौधा नहीं, बल्कि यह धरती के असली 'ग्रीन लंग्स' (Green Lungs) हैं जो कार्बन डाइऑक्साइड (carbon dioxide) को सोखकर ऑक्सीजन देते हैं। नीम का पेड़ हवा को जीवाणुरहित बनाता है, पीपल रात में भी ऑक्सीजन छोड़ता है, तुलसी वायुरोगाणुओं को खत्म करती है, और बड़ (बरगद) वातावरण का तापमान नियंत्रित रखता है। यह पेड़ हमारे शहरों के फेफड़े हैं। जब सूरज तपता है तो ये तापमान को कम करते हैं, जब धूल उड़ती है तो इसे रोकते हैं, और जब प्रदूषण बढ़ता है तो यह उसे अवशोषित करके हवा को शुद्ध बनाने का काम करते हैं। अगर पेड़ ना हों तो हवा का संतुलन, मिट्टी की नमी और बारिश का चक्र टूटने लगते हैं।

पेड़ों की कटाई और पर्यावरणीय असंतुलन
आज विकास का चेहरा चमकीला दिखता है, लेकिन उसकी छाया में सबसे ज्यादा नुकसान पेड़ों को हुआ है। चौड़ी सड़कें, नई फैक्ट्रियाँ, मकान, शॉपिंग मॉल (shopping mall) और फ्लाईओवर (flyower) बनाने के लिए लाखों पेड़ों को काट दिया जाता है। जिससे प्रकृति की छतरी धीरे-धीरे गायब हो रही है। जब जंगल खत्म होते हैं, तो सिर्फ पेड़ नहीं जाते - उनके साथ हवा की शुद्धता, पक्षियों का बसेरा, मिट्टी की नमी और जलचक्र भी टूट जाता है। तापमान बढ़ता है, गर्म हवाएं और लू पहले से कही ज़्यादा घातक हो जाती हैं। यही कारण है कि ग्लोबल वॉर्मिंग (global warming) बढ़ी, हिमालय की बर्फ पिघली, बारिश का समय बिगड़ा और मानसून अनियमित होने लगा। पेड़ों का न होना मतलब - धरती से उसका प्राकृतिक संतुलन छिन जाना।
शहरों में हरियाली की कमी और कंक्रीट का बढ़ता साम्राज्य
एक समय था जब शहरों में पेड़, तालाब, कुएँ और खुली ज़मीनें होती थीं। लोग सुबह टहलने जाते थे तो हवा में ठंडक, पेड़ों की खुशबू और चिड़ियों की आवाज़ महसूस होती थी। लेकिन आज के शहर कंक्रीट का जंगल बन चुके हैं। इमारतों का विस्तार, रोड, पार्किंग, प्लॉट (plot) और मॉल्स ने पेड़ों की जगह ले ली है। ऐसे शहरों में गर्मी ज्यादा महसूस होती है क्योंकि डामर और सीमेंट धरती की गर्मी को सोखकर वापस छोड़ते हैं। हवा का प्रवाह रुक जाता है, धूल और धुआँ सड़कों के बीच चिपककर रह जाते हैं। अगर ग्रीन बेल्ट (green belt), पार्क और सड़कों के किनारे पेड़ लगाने के जो प्लान कागजों में हैं, वो जमीन पर नहीं उतरे तो आने वाला समय शहरों को रहने लायक नहीं छोड़ेगा।

समाज और सरकार की साझा जिम्मेदारी
प्रश्न यह नहीं है कि जिम्मेदारी किसकी है - सरकार की या जनता की। असल सवाल यह है कि शुरुआत कौन करेगा? सरकार प्रदूषण नियंत्रण के नियम बनाती है, वृक्षारोपण अभियान चलाती है, इलेक्ट्रिक (electric) वाहनों को बढ़ावा देती है और प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर जुर्माना भी लगाती है। लेकिन अगर जनता सहयोग न करे तो ये सब सिर्फ फाइलों और भाषणों तक सीमित रह जाते हैं। हर नागरिक अगर साल में एक पेड़ लगाए, उसका ध्यान रखे, अनावश्यक वाहनों का इस्तेमाल कम करे, सार्वजनिक परिवहन अपनाए और आस-पास सफाई रखे - तो एक बड़ा बदलाव आ सकता है। समाज स्तर पर "एक व्यक्ति - एक पेड़", स्कूलों में पर्यावरण शिक्षा, रूफटॉप गार्डन (rooftop garden), रेनवाटर हार्वेस्टिंग (rainwater harvesting) और स्थानीय पर्यावरण समूहों की मदद ही इस संकट का असली समाधान बन सकती है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2r2k8b86
https://tinyurl.com/48m4p3ft
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