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जौनपुरवासियों, आपने शायद चिड़ियाघर या टीवी पर जिराफ को देखा होगा - वह लंबी गर्दन वाला शांत विशालकाय जीव, जो अपने सिर से आसमान को छूता-सा लगता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह सुंदर प्राणी आज धीरे-धीरे दुनिया से गायब हो रहा है? जिस तरह जौनपुर की हरियाली और परिंदों की चहचहाहट हमारे पर्यावरण की पहचान है, उसी तरह जिराफ अफ्रीका के सवाना मैदानों की आत्मा माने जाते हैं।
आज के इस लेख में हम जिराफ की अनोखी शारीरिक संरचना और जीवनशैली के बारे में जानेंगे। फिर देखेंगे कि अफ्रीका में जिराफों की संख्या कैसे घट रही है और इसे “मौन विलुप्ति” क्यों कहा जा रहा है। इसके बाद हम समझेंगे कि अवैध शिकार और व्यापार इस जीव के अस्तित्व को कैसे खतरे में डाल रहे हैं, और बदलते पर्यावरण तथा मानव गतिविधियों ने इसके आवास को कितना प्रभावित किया है। अंत में, हम भारत में जिराफों की ऐतिहासिक उपस्थिति और उनके संरक्षण के लिए चल रहे प्रयासों पर भी नज़र डालेंगे।
जिराफ — पृथ्वी का सबसे ऊँचा और अनोखा स्तनधारी
जिराफ पृथ्वी पर पाया जाने वाला सबसे ऊँचा भूमि-स्तनधारी है, जिसकी ऊँचाई 18 फीट तक पहुँच सकती है। उसकी लंबी गर्दन, विशिष्ट भूरे धब्बों से ढकी त्वचा, और लगभग 45 सेंटीमीटर लंबी नीली जीभ उसे अद्वितीय बनाती है। जिराफ मुख्यतः अफ्रीका के सवाना, बबूल और मिमोसा के जंगलों में पाए जाते हैं, जहाँ वे पेड़ों की ऊँचाई पर मौजूद पत्तियों से भोजन करते हैं। इनकी सामाजिक प्रकृति भी रोचक है - यह "टॉवर" (Tower) नामक समूहों में रहते हैं और 35 मील प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। उनकी ऊँचाई न केवल उन्हें भोजन तक पहुँचने में मदद करती है, बल्कि दूर से शिकारी को देखने का भी लाभ देती है।

अफ्रीका में जिराफों की घटती आबादी और “मौन विलुप्ति”
अफ्रीका में जिराफों की संख्या में चिंताजनक गिरावट देखी जा रही है। 1985 में जहाँ लगभग 1.57 लाख जिराफ थे, वहीं अब यह संख्या घटकर 80 हजार से भी कम रह गई है। इस गिरावट को विशेषज्ञ “साइलेंट एक्सटिंक्शन” (Silent Extinction) - यानी “मौन विलुप्ति” कहते हैं। नाइजीरिया (Nigeria), सेनेगल (Senegal) और बुर्किना फासो (Burkina Faso) जैसे देशों से तो यह प्रजाति लगभग समाप्त हो चुकी है। यह गिरावट इतनी धीमी और चुपचाप हुई कि आम जनता का ध्यान ही नहीं गया। अफ्रीकी वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो आने वाले दशकों में जिराफ केवल इतिहास की किताबों में रह जाएगा।

अवैध शिकार, व्यापार और अंतरराष्ट्रीय खतरे
जिराफ के लिए सबसे बड़ा खतरा इंसान ही बना है। अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में हर साल हज़ारों जिराफों के अंगों, त्वचा और हड्डियों का व्यापार होता है। उनकी हड्डियों से नक्काशीदार सजावटी वस्तुएँ, त्वचा से जूते और बैग, तथा पूंछ से की-चेन या ट्रॉफी बनाई जाती हैं। यह “नया हाथीदांत” का बाजार बन चुका है, जो नैतिक और पारिस्थितिक दोनों दृष्टि से विनाशकारी है। अफ्रीका के कई इलाकों में जिराफ का मांस भी अवैध रूप से बेचा जाता है। यह सब मिलकर इस प्रजाति को धीरे-धीरे विलुप्ति की कगार पर पहुँचा रहा है।
बदलते पर्यावरण और मानव गतिविधियों से घटता आवास
मानव जनसंख्या के विस्तार के साथ-साथ जिराफ का घर सिमटता गया है। अफ्रीका में खेती, खनन, सड़क निर्माण और शहरीकरण के कारण बबूल के जंगलों का विनाश हुआ - जो जिराफों का मुख्य भोजन स्रोत हैं। बिजली की ऊँची लाइनों से टकराने या सड़कों पर वाहनों से दुर्घटनाएँ भी इनके लिए नई चुनौतियाँ हैं। यह सब दिखाता है कि विकास की इस दौड़ में हम अपने ग्रह के सबसे शांत जीवों को अनजाने में खत्म कर रहे हैं।

संकटग्रस्त उप–प्रजातियाँ और IUCN की चेतावनी
आईयूसीएन (IUCN - International Union for Conservation of Nature) ने हाल में जिराफ की कई उप-प्रजातियों को खतरे की श्रेणी में रखा है। कोर्डोफान (Kordofan) और न्युबियन (Nubian) जिराफ को “गंभीर रूप से संकटग्रस्त” (Critically Endangered) घोषित किया गया है, जबकि जालीदार जिराफ “लुप्तप्राय” (Endangered) सूची में शामिल हैं। हालांकि कुछ उप-प्रजातियाँ जैसे रोथ्सचाइल्ड (Rothschild) और पश्चिमी अफ्रीकी जिराफ में हल्का सुधार देखा गया है, लेकिन समग्र स्थिति अब भी चिंताजनक है। इन प्रजातियों का खो जाना पूरे पारिस्थितिक संतुलन के लिए एक गंभीर चेतावनी होगी।
भारत में जिराफों का इतिहास और वर्तमान उपस्थिति
भारत में जिराफ का इतिहास बेहद दिलचस्प है। पाँचवीं शताब्दी में भारत से पूर्वी रोमन सम्राट अनास्तासियस को “कैमलोपार्डालिस” (Camelopardalis) नामक उपहार भेजा गया था, जिसे आज जिराफ के रूप में जाना जाता है। 16वीं सदी के फ्रांसीसी यात्री आंद्रे थेवेट और अंग्रेजी लेखक एडवर्ड टॉपसेल (Edward Topsell) ने भी भारतीय जिराफ का उल्लेख किया है। आज भारत में जिराफ केवल चिड़ियाघरों में देखे जा सकते हैं - जैसे लखनऊ, कोलकाता, मैसूर और पुणे में।

संरक्षण की आवश्यकता और भविष्य की राह
अब समय आ गया है कि हम जिराफ को केवल देखने या सराहने का नहीं, बल्कि बचाने का संकल्प लें। अफ्रीका में चल रहे “जिराफ़ कंज़र्वेशन फ़ाउंडेशन” (Giraffe Conservation Foundation) जैसे प्रयासों से प्रेरणा लेकर भारत अपने चिड़ियाघरों में प्रजनन कार्यक्रम और जागरूकता अभियान शुरू कर सकता है। हमें यह समझना होगा कि जिराफ केवल एक प्रजाति नहीं, बल्कि हमारी पृथ्वी की जैवविविधता और संतुलन का प्रतीक है। जैसे हम अपने स्थानीय पर्यावरण को बचाने का प्रयास करते हैं, वैसे ही वैश्विक स्तर पर इन प्राणियों की रक्षा भी हमारी साझा जिम्मेदारी है।
संदर्भ
https://bit.ly/2rexUVH
https://bit.ly/3JDPrxT
https://tinyurl.com/4z683uez
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