समय - सीमा 269
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प्रस्तुत कविता मशहूर कवि अकबर इलाहाबादी द्वारा लिखी गयी है जिसका शीर्षक है ‘कितात’:
बे पर्दा कल जो आयीं नज़र, चंद बीबियाँ,
अकबर ज़मीन में गैरत-ए-कौमी से गिर गया,
पूछा जो उनसे, आपका पर्दा वो क्या हुआ,
कहने लगीं के, अक्ल पर मर्दों की पड़ गया।
मेरे मनसूबे तरक्की के, हुए सब पैमाल,
बीज मग़रिब ने जो बोया, वो उगा और फल गया,
बूट दसन ने बनाया, मैंने इक मज़मून लिखा,
मुल्क में मज़मून ना फैला, और जूता चल गया।
जो कहा मैंने के, प्यार आता है मुझको तुम पर,
हंस के कहने लगे, “और आपको आता क्या है?”
आम इलज़ाम है, अकबर पे के पीता है क्यों,
इसकी पुरसिश नहीं होती के, खाता क्या है।
पुरानी रौशनी में, और नयी में, फर्क इतना है,
उसे कश्ती नहीं मिलती, इसे साहिल निहीं मिलता;
किताब-ए-दिल मुझे काफी है, अकबर, दरस-ए-हिकमत को,
मैं स्पेंसर से मुस्तगनी हूँ, मुझ से मिल नहीं मिलता।
छोड़ लिटरेचर को, अपनी हिस्ट्री को भूल जा,
शेख-ओ-मस्जिद से ताल्लुक तर्क कर, स्कूल जा,
चार दिन की ज़िन्दगी है, कोफ़्त से क्या फायदा,
खा डबल रोटी, क्लर्की कर, ख़ुशी से फूल जा।
दौलत भी है, फलसफा भी है, जाह भी है,
लुतफ़-ए-हुस्न-ए-बुतान-ए-दिल ख्वाह भी है,
सब से कता-ए-नज़र है मुश्किल, लेकिन,
इतना समझे रहो कि अल्लाह भी है।
संदर्भ:
1. मास्टरपीसेज़ ऑफ़ ह्यूमरस उर्दू पोएट्री, के.सी. नंदा