समय - सीमा 261
मानव और उनकी इंद्रियाँ 1054
मानव और उनके आविष्कार 829
भूगोल 241
जीव-जंतु 305
| Post Viewership from Post Date to 24- Jul-2025 (31st) Day | ||||
|---|---|---|---|---|
| City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Messaging Subscribers | Total | |
| 2527 | 56 | 0 | 2583 | |
| * Please see metrics definition on bottom of this page. | ||||
भारतीय उपमहाद्वीप की सांगीतिक परंपरा अत्यंत समृद्ध और विविधतापूर्ण है। इसी परंपरा में तबले को ताल और लय का राजा कहा जाता है। यह वाद्ययंत्र केवल संगत का माध्यम नहीं है, बल्कि इसकी लयात्मकता, विविध गतियाँ, और बौद्धिक गहराई इसे एक स्वतंत्र वादन विधा भी बनाती हैं। तबला शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, सूफी, भक्ति और नृत्य शैलियों में अपनी विशेष पहचान रखता है। इसकी ध्वनि सजीवता, भावना और अनुशासन का अद्भुत संगम है। यह एक ऐसा ताल वाद्य है जिसे न केवल शास्त्रीय संगीत में बल्कि लोक, सूफी, भक्ति और फिल्मी संगीत में भी प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है। तबला न केवल संगत का माध्यम है बल्कि एकल वादन में भी इसकी विशिष्ट पहचान है।
इस लेख में हम तबले के नाम की उत्पत्ति से लेकर इसकी गूढ़ ऐतिहासिक परंपरा, शास्त्रीय ग्रंथों में उल्लेख, निर्माण की पेचीदगियाँ, वादन की सूक्ष्मता और लखनऊ घराने की उत्कृष्ट परंपरा तक के हर पहलू को विस्तारपूर्वक जानेंगे।
तबले का परिचय और भारतीय संगीत में उसका स्थान
तबला एक प्रमुख ताल वाद्य है, जो दो भागों – दायां (दयां) और बायां (बायां) – में विभाजित होता है। दायां हिस्सा आमतौर पर शीशम या आम की लकड़ी से बनाया जाता है, जबकि बायां हिस्सा मिट्टी, पीतल या तांबे का होता है। इस वाद्य यंत्र की सबसे खास बात यह है कि इसे अंगुलियों और हथेली के सहारे बजाया जाता है, जिससे अनेक प्रकार की जटिल और सूक्ष्म ध्वनियाँ उत्पन्न की जाती हैं। तबले का इस्तेमाल केवल संगत के लिए नहीं होता, बल्कि इसे एकल वादन में भी अत्यंत सम्मान प्राप्त है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में तबले का प्रयोग खयाल, ठुमरी, तराना, दादरा, ध्रुपद, भजन, और विशेषतः कथक नृत्य के साथ किया जाता है। यह केवल ताल का वाहक नहीं, बल्कि प्रस्तुति को भावनात्मक और बौद्धिक रूप से समृद्ध बनाने वाला यंत्र है। तबले के माध्यम से कलाकार ‘लेयकारी’, ‘गति’, ‘उथान’, ‘परन’, ‘कायदा’, ‘रिला’ और ‘तिहाई’ जैसे तत्वों की रचना करता है, जिससे श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

तबले के नाम की व्युत्पत्ति और विवादास्पद उत्पत्ति सिद्धांत
‘तबला’ शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में लंबे समय से बहस होती रही है। अधिकांश विद्वान इसे अरबी शब्द 'तबल' (ṭabl) से निकला मानते हैं, जिसका अर्थ है ढोल या ड्रम। यह शब्द मध्यकालीन मुस्लिम सेनाओं के युद्ध वाद्य 'तबल-नक्कारे' से जुड़ा माना जाता है, जो भारत में सल्तनत काल के दौरान प्रचलित हुए।
सबसे चर्चित किंवदंती के अनुसार 13वीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने पखावज को दो भागों में विभाजित करके तबले का आविष्कार किया। हालाँकि यह मत अत्यंत लोकप्रिय है, परंतु इसे ऐतिहासिक रूप से पूर्ण समर्थन नहीं मिला है, क्योंकि न तो अमीर खुसरो के ग्रंथों में ऐसा कोई उल्लेख मिलता है और न ही उस काल की कलाकृतियों में स्पष्ट रूप से तबले के चित्र हैं।
वैकल्पिक सिद्धांत यह भी प्रस्तुत करते हैं कि तबला किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि विभिन्न सांस्कृतिक वाद्य परंपराओं और तकनीकी विकासों के सम्मिलन से विकसित हुआ। यह भी संभव है कि प्राचीन भारतीय वाद्य: ढोलक और पुष्कर; और पश्चिम तथा मध्य एशियाई ड्रम परंपराओं के परस्पर संपर्क से तबले का वर्तमान स्वरूप विकसित हुआ हो।
भारतीय उपमहाद्वीप में तबले की प्राचीन जड़ें और पुष्कर वाद्य से संबंध
प्राचीन भारतीय वाद्य परंपराओं में 'पुष्कर' नामक वाद्य को तबले का पूर्वज माना जाता है। नाट्यशास्त्र में इसे 'अवनद्ध वाद्य' के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें दो भाग होते थे – एक बड़ा और एक छोटा, जिनकी ध्वनि-प्रणाली, रूप-रेखा और वादन तकनीक तबले से मेल खाती है। मतंग मुनि की रचना 'बृहत्देशी' और शार्ङ्गदेव की 'संगीत रत्नाकर' में पुष्कर की चर्चा विस्तार से की गई है।
यह दर्शाता है कि भारतीय संगीत में दोहरे ड्रम वाद्य की परंपरा काफी प्राचीन है। जब विदेशी सांस्कृतिक प्रभावों के साथ भारतीय परंपरा का मिलन हुआ, तो संभवतः तबले का आधुनिक स्वरूप आकार लेने लगा। इसलिए, तबले को केवल एक मध्यकालीन आविष्कार कहना इसकी समृद्ध भारतीय जड़ों को नज़रअंदाज़ करना होगा।

शास्त्रीय ग्रंथों और कलाकृतियों में तबले जैसे वाद्ययंत्रों के प्रमाण
तबले जैसे वाद्ययंत्रों के प्रमाण हमें कई प्राचीन भारतीय कलात्मक स्रोतों में मिलते हैं। अजंता-एलोरा की गुफाओं की चित्रकारी में वादकों को दोहरे ड्रम बजाते हुए दिखाया गया है। मध्यकालीन मंदिरों की मूर्तिकला, जैसे कोणार्क सूर्य मंदिर और होयसलेश्वर मंदिर, में भी ऐसे वाद्य यंत्रों के दृश्य मिलते हैं जो तबले के पूर्ववर्ती रूप प्रतीत होते हैं।
संगीत शास्त्रों में 'पुष्कर', 'मुरज', और 'दुंदुभि' जैसे अवनद्ध वाद्ययंत्रों का उल्लेख मिलता है। ये सभी या तो एकल या द्वैत ड्रम रूप में उपयोग होते थे, जिनमें से कई की वादन शैली और बनावट तबले से मिलती-जुलती है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि तबला भारतीय वाद्य परंपरा का एक सहज विकास है और इसकी जड़ें हजारों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक विरासत में हैं।
तबले की संरचना, निर्माण तकनीक और वादन शैली
तबले की संरचना अत्यंत वैज्ञानिक और कलात्मक होती है। दायां (दयां) लकड़ी का होता है और बायां (बायां) धातु या मिट्टी का। दोनों के सिरों पर बकरी की खाल के टुकड़े चढ़ाए जाते हैं, जिन्हें 'पुरी' कहते हैं। मध्य भाग में काले घेरे, जिन्हें 'स्याही' कहते हैं, लोहे के चूर्ण, मैदा, चावल की लेई और गोंद से बनाए जाते हैं। यही स्याही तबले की अनूठी ध्वनि और नाद-संपन्नता का मूल स्रोत होती है।
तबले के वादन में अंगुलियों, हथेली और कलाई के संयुक्त संचालन से स्वर निकाले जाते हैं। विभिन्न 'बोल' जैसे — ‘धा’, ‘धिन’, ‘ना’, ‘तिन’, ‘तेत’, ‘गें’, ‘के’ आदि — प्रत्येक का अपना स्थान, उच्चारण तकनीक और ध्वनि विशेषता होती है। तबले की विभिन्न वादन शैलियाँ 'घरानों' द्वारा विकसित की गई हैं — जैसे दिल्ली घराना अपने स्पष्ट बोलों के लिए, बनारस घराना पखावज प्रभाव वाली गतों के लिए, और लखनऊ घराना अपनी कोमलता और नफासत के लिए प्रसिद्ध है।

लखनऊ के प्रमुख तबला उस्ताद और उनकी विरासत
लखनऊ घराना तबला वादन की सबसे कोमल और मोहक शैली का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी स्थापना उस्ताद मोदू खां और बख्शू खां ने 18वीं सदी में अवध दरबार में की थी। इस घराने की शैली में नाजाकत, नफासत और लय की अत्यंत सूक्ष्म प्रस्तुति होती है, जो कथक नृत्य की ताल संरचना को सजीव बनाती है।
लखनऊ घराने के प्रमुख उस्तादों में उस्ताद आबिद हुसैन खां, वाजिद हुसैन खलीफा, और उस्ताद ताफ़्फ़ु खां का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लखनऊ की ताल परंपरा का प्रचार किया। इस घराने की शैली को 'हथेली का बाज' कहा जाता है, जिसमें अंगुलियों की बजाय हथेली के प्रयोग से कोमल और गंभीर ध्वनियाँ निकाली जाती हैं।
विदेशी विद्वान डॉ. जेम्स किपेन की पुस्तक द तबला ऑफ़ लखनऊ (The Tabla of Lucknow) में लखनऊ घराने की वंशावली, तकनीकी विशिष्टता और सामाजिक परिप्रेक्ष्य को प्रमाणिक रूप से दर्ज किया गया है। आज भी लखनऊ में संगीत संस्थानों, महोत्सवों और गुरुकुल परंपरा के माध्यम से यह घराना जीवित है और युवा पीढ़ी में इसे सहेजने का कार्य जारी है।