हरियाली से सरसब्ज़ लखनऊ: उत्तर प्रदेश के जंगलों की संपदा और संरक्षण का संकल्प

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हरियाली से सरसब्ज़ लखनऊ: उत्तर प्रदेश के जंगलों की संपदा और संरक्षण का संकल्प

उत्तर प्रदेश, भारत का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य है, जो सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से अत्यंत समृद्ध है। परंतु राज्य की बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण और शहरीकरण ने इसके पर्यावरण विशेषतः वनों पर गंभीर प्रभाव डाला है। वनों का न केवल पारिस्थितिकीय महत्व है बल्कि यह जैव विविधता, जलवायु नियंत्रण, औषधीय उपयोग, कृषि सहायता और आजीविका का भी प्रमुख आधार हैं। वर्तमान समय में जब जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक असंतुलन जैसी वैश्विक समस्याएं हमारे सामने खड़ी हैं, वनों का संरक्षण और पुनर्स्थापन अत्यंत आवश्यक हो गया है। इस लेख में हम उत्तर प्रदेश के वन क्षेत्रों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से लेकर वर्तमान स्थिति तक का विश्लेषण करेंगे। हम यह जानेंगे कि ये वन क्षेत्र कैसे समय के साथ बदलते गए, इनके क्या-क्या उपयोग रहे हैं, वर्तमान में ये किन संकटों का सामना कर रहे हैं, और इन्हें संरक्षित करने के लिए कौन-कौन से प्रयास किए जा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के वन क्षेत्र की स्थिति और ऐतिहासिक परिवर्तन

उत्तर प्रदेश का कुल भौगोलिक क्षेत्र 2,40,928 वर्ग किलोमीटर है, लेकिन वन आवरण लगभग 21,720 वर्ग किलोमीटर (9.01%) ही है। 1951 में अविभाजित उत्तर प्रदेश में कुल वन क्षेत्र 30,245 वर्ग किलोमीटर था, जो 1998-99 तक बढ़कर 51,428 वर्ग किलोमीटर हो गया। लेकिन 2000 में उत्तराखंड के पृथक होने के बाद यह क्षेत्र 16,888 वर्ग किलोमीटर रह गया।

वन क्षेत्रों में गिरावट का मुख्य कारण अतिक्रमण, विकास परियोजनाएँ, कृषि विस्तार और संसाधनों का अत्यधिक दोहन है। 2011 में वन क्षेत्र घटकर 16,583 वर्ग किलोमीटर हो गया था। उपग्रह आधारित 2009 के आकलन अनुसार केवल 1,626 वर्ग किलोमीटर में अत्यधिक घने वन पाए गए, जबकि अधिकांश क्षेत्र मध्यम और खुले वन के रूप में रह गया।

भारत सरकार के वन सर्वेक्षण (FSI) के अनुसार, राज्य के वन क्षेत्र में बहुत धीमी गति से वृद्धि हो रही है। उत्तर प्रदेश के वन तीन प्रमुख प्रकार के हैं – ऊष्ण कटिबंधीय पर्णपाती वन, बाढ़ मैदान के वन, और झाड़ियों वाले वन। इन वनों में साल, शीशम, बबूल, सागौन, अर्जुन आदि प्रमुख वृक्ष प्रजातियाँ पाई जाती हैं। राज्य में 8264 वर्ग किलोमीटर में आरक्षित वन हैं, जो वन्यजीवों की सुरक्षा के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक वन क्षेत्र सोनभद्र, लखीमपुर खीरी और चंदौली जिलों में पाया जाता है। उत्तर प्रदेश में वनों का वितरण असमान है – तराई क्षेत्र में वन अपेक्षाकृत घने हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वन आवरण न्यूनतम है। 2019 के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश का हरित आवरण (वन + वृक्ष क्षेत्र) मिलाकर लगभग 13% तक पहुँच चुका है। “मिशन वृक्षारोपण” जैसी सरकारी योजनाओं ने इस वृद्धि में योगदान दिया है।

वनों की पारिस्थितिकीय भूमिका और पर्यावरणीय महत्व

वन पारिस्थितिक तंत्र का आधार हैं। यह कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिससे वायु शुद्ध होती है। वर्षा चक्र को नियंत्रित करना, जल स्रोतों को संचित करना, और मिट्टी के कटाव को रोकना इनकी प्रमुख भूमिकाएं हैं।

वनों में रहने वाले वन्यजीव पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखते हैं। मधुमक्खियाँ, कीट, पक्षी आदि परागण द्वारा कृषि उत्पादन में सहायता करते हैं। वन मिट्टी को उपजाऊ बनाए रखते हैं और जैविक कचरे को विघटित कर पोषक तत्वों में परिवर्तित करते हैं। बिना वनों के पृथ्वी की पारिस्थितिक संरचना पूर्णतः असंतुलित हो जाएगी।

वनों के कारण स्थानीय और वैश्विक जलवायु दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वनों में उपस्थित माइकोराइज़ल फंगी और नाइट्रोजन-स्थिर करने वाले जीवाणुमिट्टी की उर्वरता बढ़ाते हैं। जंगलों की छांव और पत्तियों की मोटी परत स्थानीय तापमान को नियंत्रित रखती है, जिससे शहरी प्रभावों (urban heat islands) में कमी आती है। वनों में ग्लोबल कार्बन स्टॉक का लगभग 80% संरक्षित रहता है, जो जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने में सहायक है।

वनों की कटाई: कारण, परिणाम और जोखिम

वनों की कटाई के मुख्य कारण हैं –

  • कृषि विस्तार: बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य उत्पादन हेतु भूमि की आवश्यकता।
  • औद्योगिकीकरण और शहरीकरण: फैक्ट्रियाँ, सड़कें और आवासीय निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण।
  • ईंधन और लकड़ी की मांग: ग्रामीण क्षेत्रों में लकड़ी पर निर्भरता।
  • अवैध कटाई और अतिक्रमण।

इसका परिणाम है –

  • जैव विविधता में गिरावट, कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं।
  • जलवायु असंतुलन: वर्षा में अनियमितता और तापमान में वृद्धि।
  • भूमि क्षरण: मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट और बंजर भूमि का विस्तार।
  • पारिस्थितिक आपदाएं: बाढ़, सूखा और भूस्खलन जैसी घटनाओं में वृद्धि।

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) की रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक स्तर पर हर साल लगभग 1 करोड़ हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश में वनों की कटाई के कारण कई स्थानीय नदियाँ जैसे सई, गोमती और तमसा में जलस्तर घटा है। मध्यम हिमालय क्षेत्र में वनों की कटाई से न केवल भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं, बल्कि पहाड़ी पारिस्थितिकी तंत्र भी असंतुलित हो रहा है। साथ ही मानव-वन्यजीव संघर्ष भी तेजी से बढ़ रहा है।

सोनभद्र और मिर्जापुर जिलों में खनन गतिविधियों से वनों की कटाई में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल लगभग 2.4 लाख हेक्टेयर वन भूमि अलग-अलग कारणों से नष्ट होती है। उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संघर्ष भी एक गंभीर परिणाम है – विशेष रूप से बाघों और हाथियों के आवास सिमटने से यह टकराव बढ़ा है। साथ ही, नदियों का जलस्तर घटना और भूमिगत जलस्रोतों का सूखना वनों की कटाई के अप्रत्यक्ष प्रभाव हैं।

वनों के औषधीय, कृषि और आर्थिक उपयोग

भारत में हज़ारों वर्षों से वनों का उपयोग औषधियों के निर्माण में होता रहा है।

  • औषधीय उपयोग: तुलसी, अश्वगंधा, ब्राह्मी जैसे पौधे कई बीमारियों में लाभकारी हैं। आधुनिक दवाइयाँ जैसे पेनिसिलिन, एस्पिरिन आदि वनस्पतियों से प्राप्त होती हैं।
  • कृषि उपयोग: परागण में सहायक मधुमक्खियाँ, कीट और पक्षी कृषि उत्पादकता को बढ़ाते हैं।
  • आर्थिक महत्व: लाख, शहद, गोंद, रेज़िन, इंधन, बांस जैसे अनेक उत्पाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था के आधार हैं।
  • वन आधारित कुटीर उद्योगों को रोज़गार मिलता है, जिससे ग्रामीण आजीविका को सहारा मिलता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, विश्व की लगभग 80% आबादी परंपरागत औषधियों पर निर्भर है, जिनमें से अधिकांश वनस्पतियाँ वनों से प्राप्त होती हैं। उत्तर प्रदेश के जंगलों में गिलोय, सर्पगंधा, वन हल्दी जैसी औषधियाँ पाई जाती हैं। लाक उत्पादन उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की आर्थिक रीढ़ है। शहद और बांस आधारित उद्योग भी ग्रामीण रोजगार के बड़े स्रोत हैं। औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय औषधीय पौधा बोर्ड (NMPB) कार्यरत है। उत्तर प्रदेश में औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए “राष्ट्रीय आयुष मिशन” के अंतर्गत औषधीय पादप बोर्ड सक्रिय है। वन्य उत्पादों जैसे लाक और रेज़िन का उत्पादन बुंदेलखंड और विंध्य क्षेत्रों में प्रमुख रूप से होता है। 

वन संरक्षण के लिए सरकारी और सामाजिक प्रयास

उत्तर प्रदेश सरकार की 'वृक्षारोपण महाअभियान' के अंतर्गत 2020 में 25 करोड़ पौधे एक दिन में लगाए गए थे, जो एक विश्व रिकॉर्ड बना। वन विभाग द्वारा ई-वनीकरण ऐप शुरू किया गया है जिससे पौधारोपण और निगरानी को तकनीकी सहायता मिली है। वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो और ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसे संस्थानों की भूमिका भी वन संरक्षण में अहम रही है। इको-डेवलपमेंट कमिटियाँ (Eco Development committee) भी सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देती हैं।

सरकार और समाज दोनों मिलकर वनों के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

  • राष्ट्रीय वन नीति (1988): इसमें वन आवरण को राष्ट्रीय भूमि क्षेत्र के कम-से-कम 33% तक बढ़ाने का लक्ष्य है।
  • संयुक्त वन प्रबंधन (JFM): स्थानीय समुदायों को वन प्रबंधन में भागीदार बनाकर संरक्षण को बढ़ावा दिया गया।
  • वनीकरण योजनाएँ: बंजर भूमि पर वृक्षारोपण को बढ़ावा देना, विशेष रूप से बांस और औषधीय पौधों का रोपण।
  • सामाजिक आंदोलन: 'चिपको आंदोलन' जैसे जन प्रयासों ने वन संरक्षण को जन आंदोलन बनाया।
  • प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण शिक्षा: बच्चों से लेकर वयस्कों तक पर्यावरण शिक्षा को पाठ्यक्रम में जोड़ा जा रहा है।

उत्तर प्रदेश के प्रमुख वन और संरक्षित क्षेत्र

उत्तर प्रदेश में कई महत्वपूर्ण संरक्षित वन और वन्यजीव अभयारण्य हैं जो जैव विविधता संरक्षण का केंद्र हैं:

  • कुकरैल वन (लखनऊ): घड़ियालों के संरक्षण के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ मादा मगरमच्छों के अंडे देने के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं।
  • चंबल नदी क्षेत्र: यहाँ मगरमच्छ और डॉल्फिन की विशेष प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • दुधवा राष्ट्रीय उद्यान (लखीमपुर खीरी): बाघ, गेंडा, हिरण जैसे वन्यजीवों के लिए प्रसिद्ध।
  • कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य: घने साल वनों और सुंदर जलाशयों का संगम।
  • सोहागीबरवा अभयारण्य (महराजगंज): पक्षी प्रजातियों का अनूठा आवास।

दुधवा राष्ट्रीय उद्यान भारत के प्रोजेक्ट टाइगर और प्रोजेक्ट राइनो दोनों में शामिल है। यहाँ पाई जाने वाली हिसपिड खरगोश और बारहसिंगा जैसी प्रजातियाँ वैश्विक रूप से संकटग्रस्त हैं। चंबल घाटी में घड़ियालों का सबसे बड़ा प्रजनन केंद्र मौजूद है। बिजनौर का कोरबेट लिंक, चित्रकूट के जंगल, मिर्जापुर के विंध्य क्षेत्र भी विविध पारिस्थितिकी के उदाहरण हैं। रामसर साइट्स में चंद्रा ताल और संजय झील जैसे आर्द्रभूमि क्षेत्र शामिल हैं।