| Post Viewership from Post Date to 28- Jul-2025 (31st) Day | ||||
|---|---|---|---|---|
| City Subscribers (FB+App) | Website (Direct+Google) | Messaging Subscribers | Total | |
| 1864 | 53 | 0 | 1917 | |
| * Please see metrics definition on bottom of this page. | ||||
लखनऊवासियो, क्या आप जानते हैं कि हमारे अपने शहर के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में संरक्षित शिलालेख हमें उस समय की सैर कराते हैं जब भारत में पहली बार लिपियों का उद्भव हुआ था? इन अभिलेखों में जो लिपि प्रयुक्त हुई है, वह है ब्राह्मी लिपि, जिसे भारत की सबसे प्राचीन और प्रभावशाली लिपि माना जाता है। ब्राह्मी लिपि केवल एक लेखन प्रणाली नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान की नींव है। यही लिपि बाद में भारत की प्रमुख लिपियों, जैसे देवनागरी और तमिल ब्राह्मी, का आधार बनी। लखनऊ के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में रखे ब्राह्मी अभिलेख केवल पत्थरों पर खुदे अक्षर नहीं, बल्कि अतीत की उन आवाज़ों का प्रमाण हैं जिन्होंने आज के भारत को आकार दिया। आइए, इस लेख के माध्यम से इस विलुप्त होती लिपि की यात्रा को फिर से जीवंत करें। इस लेख में हम सबसे पहले ब्राह्मी लिपि के ऐतिहासिक उद्भव और विकास की विस्तृत चर्चा करेंगे। फिर हम देखेंगे कि इसकी उत्पत्ति को लेकर कौन-कौन से सिद्धांत विद्वानों द्वारा प्रस्तावित किए गए हैं। इसके बाद, हम जानेंगे कि ब्राह्मी लिपि का दक्षिण और पूर्वी एशियाई भाषाओं और लिपियों पर क्या प्रभाव पड़ा। फिर हम यह समझेंगे कि ब्राह्मी से कौन-कौन सी अन्य प्रमुख लिपियाँ विकसित हुईं जैसे देवनागरी, तमिल-ब्राह्मी आदि। अंत में हम लखनऊ सहित भारत के अन्य क्षेत्रों में पाए गए अभिलेखों और पुरातात्विक साक्ष्यों की मदद से यह विश्लेषण करेंगे कि ब्राह्मी लिपि किस प्रकार इतिहास को जीवंत करती है और भारतीय पहचान का महत्वपूर्ण स्तंभ है।

ब्राह्मी लिपि का इतिहास और विकास
ब्राह्मी लिपि को भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्राचीन और प्रभावशाली लेखन प्रणाली माना जाता है, जिसकी उत्पत्ति लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास मानी जाती है। यह लिपि, सिंधु घाटी की रहस्यमयी लिपि के बाद भारत में लेखन परंपरा की पहली स्पष्ट और व्यवस्थित कड़ी के रूप में उभरती है। लखनऊ के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में संजोए गए दान-पत्र और शिलालेख इस बात का प्रमाण हैं कि ब्राह्मी लिपि न केवल मौर्यकालीन शासन के दौरान, बल्कि उससे पहले भी प्रचलन में थी। हालांकि, इसका सबसे व्यापक उपयोग सम्राट अशोक (273–232 ई.पू.) के शासनकाल में देखने को मिलता है, जब इस लिपि को प्रशासनिक आदेशों और बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए पूरे उपमहाद्वीप में इस्तेमाल किया गया।
ब्राह्मी लिपि की विशेषता इसकी सरल, सुव्यवस्थित और लचीली संरचना थी, जिसने इसे आसानी से सीखने योग्य बना दिया और यही कारण है कि यह विभिन्न क्षेत्रों में तेजी से लोकप्रिय हुई। इसके अक्षरों की गोलाकार और रेखीय बनावट इसे उस समय की अन्य लिपियों से अलग और विशिष्ट बनाती थी। ब्राह्मी में लिखे गए अभिलेखों में प्राकृत और संस्कृत की प्रारंभिक भाषाई छवियाँ देखी जा सकती हैं, जो इस लिपि को भाषाई इतिहास का भी एक अमूल्य स्रोत बनाती हैं।
समय के साथ, जैसे-जैसे भारत में राजनीतिक सत्ता और सांस्कृतिक विविधता का विस्तार हुआ, ब्राह्मी लिपि भी अनेक रूपों में ढलती चली गई। मौर्य साम्राज्य के पश्चात् कई अन्य राजवंशों ने इस लिपि को अपनाया और इसे अपनी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के अनुरूप ढालने लगे। यही कारण है कि ब्राह्मी लिपि एक आधारशिला बन गई, जिससे आगे चलकर नागरी, तमिल-ब्राह्मी, गुप्त, शारदा, और तिब्बती जैसी कई महत्वपूर्ण लिपियाँ विकसित हुईं। प्राचीन ग्रंथों, सिक्कों, प्रशासनिक आदेशों और धार्मिक शिलालेखों में ब्राह्मी का प्रयोग इसकी ऐतिहासिक, भाषाई और सांस्कृतिक विरासत को आज भी जीवंत बनाए हुए है।
ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति के सिद्धांत
ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में आज भी गहरी बहस जारी है। इसके विकास को लेकर कई सिद्धांत सामने आए हैं, जो इस प्राचीन लिपि की जटिलता और ऐतिहासिक महत्व को और भी रोचक बना देते हैं। एक प्रमुख विचारधारा यह मानती है कि ब्राह्मी लिपि का जन्म प्राचीन सेमिटिक लिपियों—विशेष रूप से अरामाइक और उत्तर सेमिटिक स्क्रिप्ट—के प्रभाव से हुआ। माना जाता है कि जब छठी शताब्दी ईसा पूर्व में फारस के अकेमेनिड साम्राज्य ने सिंधु घाटी पर नियंत्रण स्थापित किया, तो वहाँ अरामाइक भाषा और लिपि का प्रभाव पहुंचा। भारतीय ब्राह्मणों और विद्वानों ने संभवतः इन लिपियों को स्थानीय भाषाओं—संस्कृत और प्राकृत—के अनुरूप ढालकर एक नई लिपि का निर्माण किया, जिसे हम आज ब्राह्मी के रूप में जानते हैं।
वहीं दूसरी ओर, एक समूह यह मानता है कि ब्राह्मी पूरी तरह भारत में ही विकसित हुई स्वदेशी लिपि है, जिसकी जड़ें सिन्धु घाटी की अज्ञात लिपि में छिपी हो सकती हैं। हालांकि सिन्धु लिपि को अब तक पूरी तरह पढ़ा नहीं जा सका है, लेकिन कुछ प्रतीकों की बनावट ब्राह्मी के अक्षरों से मिलती-जुलती प्रतीत होती है, जो इस सिद्धांत को बल देती है।
तीसरा दृष्टिकोण दक्षिण भारत की ओर इशारा करता है, विशेषकर तमिलनाडु के प्राचीन शैलचित्रों और भित्तिलिपियों में मिले ब्राह्मी अक्षरों की उपस्थिति से। इससे यह संकेत मिलता है कि ब्राह्मी लिपि का विकास एक क्षेत्रीय प्रक्रिया भी हो सकता है, जिसमें दक्षिण भारत की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही हो।
इन विभिन्न सिद्धांतों के बीच कोई अंतिम सहमति नहीं बन सकी है, लेकिन एक बात स्पष्ट है—ब्राह्मी लिपि भारत में लेखन की परंपरा की नींव बनकर उभरी और इसके विकास में कई ऐतिहासिक, भाषाई और सांस्कृतिक परतें जुड़ी हुई हैं। कुछ आधुनिक विद्वान यह भी मानते हैं कि ब्राह्मी का उद्भव किसी एक स्रोत से नहीं बल्कि स्थानीय चित्रलिपियों, सांस्कृतिक प्रभावों और प्रतीकात्मक संकेतों के समन्वय से हुआ, जिसने इसे एक व्यापक और समृद्ध लिपि प्रणाली का रूप दिया।

ब्राह्मी लिपि का सांस्कृतिक विस्तार और क्षेत्रीय प्रभाव
ब्राह्मी लिपि का प्रभाव किसी एक भाषा या क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा—यह भारत की सीमाओं को पार कर पूरे दक्षिण एशिया में ज्ञान, संस्कृति और शासकीय व्यवस्था की पहचान बन गई। मौर्य सम्राट अशोक द्वारा खुदवाए गए शिलालेख इस लिपि के प्रभाव और प्रसार का सबसे जीवंत प्रमाण हैं। इन अभिलेखों के माध्यम से न केवल तत्कालीन धार्मिक और नैतिक मूल्यों की झलक मिलती है, बल्कि यह भी समझ आता है कि प्रशासन, संचार और जनहित के लिए ब्राह्मी लिपि कितनी अनिवार्य बन चुकी थी।
लखनऊ के राज्य संग्रहालय (State Museum, Lucknow) समेत उत्तर और मध्य भारत के कई पुरातात्विक स्थलों पर प्राप्त ब्राह्मी शिलालेख इस बात की गवाही देते हैं कि यह लिपि हमारे क्षेत्रीय इतिहास का अहम हिस्सा रही है। इन अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मी लिपि का उपयोग मंदिरों, दान-पत्रों, सार्वजनिक घोषणाओं और शासकीय आदेशों तक में किया जाता था—यानी यह लिपि आम जन और शासन, दोनों की ज़रूरतों को पूरा करती थी।
समय के साथ ब्राह्मी लिपि ने विभिन्न भाषाओं और बोलियों के अनुरूप अपने रूप बदले—उत्तर भारत में प्राकृत और संस्कृत से लेकर दक्षिण भारत में तमिल तक, इस लिपि ने भाषाई अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोले। इसकी सरलता और लचीलेपन ने इसे पूरे उपमहाद्वीप में लोकप्रिय बना दिया।
ब्राह्मी का प्रभाव केवल भारत तक ही नहीं रुका; यह दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों—जैसे श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार और इंडोनेशिया—की लिपियों की नींव बन गई। वहाँ की पुरानी लिपियाँ जैसे सिंहल, खमेर, और बर्मी लिपियाँ, ब्राह्मी से ही जन्मी मानी जाती हैं। इस प्रकार, ब्राह्मी लिपि न केवल लखनऊ और भारत, बल्कि पूरे एशियाई सांस्कृतिक और भाषाई विकास की एक अदृश्य रीढ़ साबित हुई है।
आज जब हम लखनऊ के संग्रहालय में ब्राह्मी अभिलेखों को देखते हैं, तो यह सिर्फ इतिहास के अवशेष नहीं, बल्कि उस महान परंपरा की झलक हैं जिसने भाषा, संचार और संस्कृति को नई दिशा दी।
ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न लिपियाँ और उसका प्रभाव
ब्राह्मी लिपि को भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया की अनेक प्रमुख लिपियों की जननी माना जाता है। इसकी संरचना, स्पष्टता और अनुकूलनशीलता ने इसे उस समय की सबसे शक्तिशाली लेखन प्रणाली बना दिया, जिससे अनेक लिपियाँ विकसित हुईं। श्रीलंका की सिंहल लिपि, दक्षिण भारत की तेलुगु और कन्नड़, हिमालयी क्षेत्र की तिब्बती लिपि, उत्तर भारत की गुरुमुखी, और दक्षिण-पूर्व एशिया की थाई और खमेर लिपियाँ—सभी का मूल ब्राह्मी में निहित है।
ब्राह्मी की यह भाषाई विरासत महज़ अक्षरों की श्रृंखला नहीं थी, बल्कि यह एक ऐसा सेतु थी, जिसने संस्कृतियों को जोड़ा, संवाद को दिशा दी और ज्ञान को स्थायित्व प्रदान किया। इसकी सरल और वैज्ञानिक संरचना ने विभिन्न भाषाओं और उच्चारणों के अनुरूप अपने रूप को ढालने में सक्षम बनाया—यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति और सफलता रही।
हालाँकि समय के साथ इन लिपियों ने अपनी-अपनी विशिष्टताएँ विकसित कर लीं, फिर भी उनकी जड़ें ब्राह्मी की वर्णमाला, उच्चारण नियमों और लिप्यंतरण प्रणाली में आज भी महसूस की जा सकती हैं। इस ऐतिहासिक संबंध ने भारत ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में धार्मिक ग्रंथों, साहित्यिक कृतियों, प्रशासनिक आदेशों और ऐतिहासिक दस्तावेजों के रक्षण और संप्रेषण को एक सशक्त माध्यम दिया।

ब्राह्मी लिपि के अभिलेख और पुरातात्विक साक्ष्य
लखनऊ के उत्तर प्रदेश राज्य संग्रहालय में संरक्षित अनेक प्राचीन अभिलेख न केवल ब्राह्मी लिपि की ऐतिहासिक महत्ता को उजागर करते हैं, बल्कि वे हमें उस युग की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से भी परिचित कराते हैं। संग्रहालय में रखा गया एक विशेष दान अभिलेख, जिसमें साका संवत के नवम वर्ष का उल्लेख मिलता है, इस लिपि के प्रमाणिक उपयोग का सजीव उदाहरण है। यह अभिलेख एक महिला 'गहतपाल' द्वारा दिए गए उपहार का वर्णन करता है—जो उस समय महिलाओं की धार्मिक और सामाजिक भागीदारी को भी दर्शाता है।
ब्राह्मी लिपि के महत्व को केवल भारत तक सीमित करना उचित नहीं होगा। श्रीलंका के अनुराधापुरा क्षेत्र में मिले 450–350 ईसा पूर्व के मिट्टी के पात्रों पर खुदे ब्राह्मी अक्षर इस लिपि की प्राचीनता और अंतरराष्ट्रीय विस्तार का प्रमाण हैं। वहीं, तमिलनाडु के चट्टानों और भित्तिचित्रों पर खुदी हुई ब्राह्मी लिपि इस बात की पुष्टि करती है कि यह लेखन प्रणाली दक्षिण भारत में भी गहराई से प्रचलित थी।
पत्थर, तांबे, सिक्के, हड्डी और हाथीदांत जैसी विविध सामग्रियों पर खुदे ब्राह्मी शिलालेख इस बात की गवाही देते हैं कि यह लिपि केवल धार्मिक या प्रशासनिक उद्देश्यों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह जनजीवन के हर पहलू में गहराई से रची-बसी थी। इन अभिलेखों से न केवल भाषाशास्त्रियों को ज्ञान मिलता है, बल्कि इतिहासकारों को भी तत्कालीन समाज, आस्था और शासन की संरचना को समझने में सहायता मिलती है।
लखनऊ और उसके आसपास के क्षेत्रों—जैसे श्रावस्ती, कौशांबी और अयोध्या—में हुई पुरातात्विक खुदाइयों में भी ब्राह्मी लिपि में लिखे कई शिलालेख प्राप्त हुए हैं। ये अभिलेख दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र न केवल ब्राह्मी लिपि के प्रचार-प्रसार का केंद्र था, बल्कि उस युग में यह ज्ञान, धर्म और प्रशासन का एक महत्वपूर्ण स्थल भी रहा होगा।