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लखनऊ की पहचान सिर्फ नवाबों की नफ़ासत, इमामबाड़ों की भव्यता या चिकनकारी की नज़ाकत भर नहीं है। इस शहर की मिट्टी में भी एक गहरा इतिहास दफ़न है — एक ऐसा इतिहास जो हज़ारों साल पुरानी सभ्यताओं की कहानियाँ आज भी कानों में फुसफुसाता है। जब आप चिनहट की गलियों से गुजरते हैं और किसी कुम्हार को चाक पर मिट्टी को जीवन देते देखते हैं, तो वह दृश्य सिर्फ एक बर्तन बनने का नहीं होता, वह दरअसल लखनऊ की जड़ों से जुड़ने का एक अनुभव होता है। यह वही मिट्टी है, जिसने प्राचीन काल में चित्रित धूसर मृद्भांडों को जन्म दिया, जिनकी झलक आज भी पुरातात्त्विक खुदाइयों में मिलती है। गोमती के किनारे बसी यह धरती सिर्फ ज़रूरतों की नहीं, सभ्यता की भी साक्षी रही है। यहाँ की मिट्टी ने बर्तनों को केवल उपयोग की चीज़ नहीं, बल्कि समय की भाषा बना दिया — ऐसी भाषा जिसे पढ़कर इतिहास समझा जा सकता है। गोमती के किनारे बसी इस ऐतिहासिक ज़मीन ने न सिर्फ संगीत, साहित्य और कला को जन्म दिया, बल्कि मृद्भांडों यानी मिट्टी के बर्तनों की एक ऐसी परंपरा को भी संजोकर रखा है जो आज भी चिनहट जैसे क्षेत्रों में जीवंत है।
पुरातात्त्विक खोजों में मिले चित्रित धूसर मृद्भांड (Painted Grey Ware) हों या सदियों पुरानी खुदाइयों से निकले मिट्टी के पात्र – ये सिर्फ वस्तुएं नहीं, बल्कि समय के गवाह हैं। लखनऊ की उपजाऊ और ऐतिहासिक मिट्टी ने न जाने कितने कालखंडों की कहानियाँ अपने भीतर समेट रखी हैं। यही कारण है कि यहाँ मिट्टी के बर्तनों को केवल उपयोगी वस्तु नहीं, बल्कि संस्कृति की ज़मीन पर उगते साक्ष्य की तरह देखा जाता है।
आज हम जानेंगे कि मिट्टी के बर्तन इतिहास को समझने में कैसे मदद करते हैं और ये कैसे पुरातत्वविदों के लिए समय काल का निर्धारण करने में सहायक होते हैं। फिर हम देखेंगे कि मृद्भांड किन-किन ऐतिहासिक कालों से जुड़े रहे हैं और किस तरह से एक छोटा-सा टुकड़ा किसी बड़े पुरास्थल की कहानी कह सकता है। इसके बाद हम मिट्टी के बर्तनों के निर्माण की विधियों को समझेंगे और जानेंगे कि किस तरह चाक और कलाकृतियों ने इन बर्तनों को एक कला में बदला। अंत में, हम देखेंगे कि कैसे लखनऊ, विशेषकर चिनहट क्षेत्र, आज भी इस प्राचीन परंपरा को जीवित रखे हुए है।

इतिहास को जानने में मृद्भांडों की भूमिका
मिट्टी के बर्तन या मृद्भांड प्राचीन सभ्यताओं की जीवनशैली, रहन-सहन, खान-पान, धार्मिक आस्थाओं और तकनीकी विकास के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्रदान करते हैं। एक पुरातत्वविद किसी भी स्थल पर पाए गए मृद्भांडों के आकार, निर्माण विधि, अलंकरण, रंग और बनावट के आधार पर उस स्थल के काल, संस्कृति और जनजीवन का निर्धारण कर सकता है। उदाहरण के तौर पर, यदि किसी स्थान पर चित्रित मृद्भांड पाए जाते हैं तो वह उस क्षेत्र की सांस्कृतिक उन्नति को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, मिट्टी के बर्तनों पर बनी आकृतियाँ जैसे मानव, पशु-पक्षी, ज्यामितीय डिजाइन आदि उस युग की कलात्मक अभिव्यक्ति का प्रमाण होती हैं। यही नहीं, इन बर्तनों की भट्ठी तकनीक, जलने की डिग्री और उनके टूटने के तरीके से भी उस सभ्यता की तकनीकी जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
इन बर्तनों के अवशेषों के माध्यम से यह भी ज्ञात होता है कि लोग किस प्रकार के अनाज, फल, मांस या तरल पदार्थों का उपभोग करते थे। कुछ बर्तनों में अन्न, बीज या मसालों के अवशेष आज भी परीक्षण द्वारा पहचाने जा सकते हैं। मृद्भांडों की मदद से उन समाजों की व्यापारिक आदान-प्रदान प्रणाली का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है—जैसे किसी स्थल पर बाहरी क्षेत्र की मिट्टी के बर्तन मिलना इस ओर संकेत करता है कि उस स्थान का अन्य सभ्यताओं से संपर्क था। यही कारण है कि ये मृद्भांड केवल घरेलू उपयोग के साधन न होकर ऐतिहासिक दस्तावेज़ के रूप में कार्य करते हैं। ये न केवल अतीत की झलक हैं, बल्कि मानवीय सभ्यता के क्रमिक विकास की मूक गवाही भी हैं।

प्रमुख ऐतिहासिक काल और उनसे जुड़े मृद्भांड
प्राचीन भारतीय इतिहास को मुख्यतः पाषाणकाल, प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल में बाँटा गया है। हर काल की अपनी विशेषताएँ हैं, लेकिन मृद्भांड विशेषकर नवपाषाण काल से प्रचुर मात्रा में मिलने लगते हैं। मृद्भांडों की उपलब्धता से यह भी स्पष्ट होता है कि मानव जीवन में बर्तनों का प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ। उदाहरण के तौर पर, उत्तर पाषाण काल तक हमें मुख्यतः पत्थर के औजार ही मिलते हैं जबकि नवपाषाण काल में मृद्भांडों की मात्रा बढ़ जाती है। इसी प्रकार, ताम्रपाषाण काल में धातु और मिट्टी के मिश्रित प्रयोग का प्रमाण मिलता है। प्राचीन सभ्यताओं जैसे सिन्धु, जोर्वे, बनास और अहाड़ संस्कृति में मृद्भांडों की विविधता उस समय की तकनीकी और कलात्मक दृष्टि से समृद्धता को दर्शाती है। इसके अलावा, लौह युग में उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांडों का प्रचलन देखने को मिलता है, जो विशेष रूप से भारत के उत्तरी भागों में पाए गए हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता के मृद्भांडों में लाल रंग की पृष्ठभूमि पर काले रंग की चित्रकारी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन पर बने बैल, मछली, पत्तियाँ और पूजा से जुड़ी आकृतियाँ धार्मिक मान्यताओं की ओर संकेत करती हैं। जोर्वे और बनास संस्कृतियों में पाए गए मोटे किनारों वाले बर्तन दैनिक उपयोग की वस्तुओं को रखने हेतु बनाए जाते थे, जो उस समय की व्यावहारिकता को दर्शाते हैं। मध्यकालीन भारत में भी राजवंशों की कला का प्रभाव बर्तनों के अलंकरणों में देखा जा सकता है, जैसे महलों के दरबारों में उपयोग किए जाने वाले विशेष बर्तन। आधुनिक काल में भी काँच मिश्रित मृद्भांडों और पोर्सलीन जैसी शैलियाँ लोकप्रिय हुईं, जो तकनीकी और व्यापारिक परिवर्तन के प्रतीक हैं।

मृद्भांड निर्माण की विधियाँ और तकनीक
मृद्भांडों का निर्माण समय के साथ लगातार विकसित हुआ। प्रारंभ में जब चाक की खोज नहीं हुई थी, तो मनुष्य हाथों से मिट्टी को गोल आकृति देकर बर्तन बनाता था, जिसे बाद में धूप में सुखाया और आग में पकाया जाता था। यह प्रक्रिया सरल होते हुए भी श्रमसाध्य होती थी और हर बर्तन में अद्वितीयता होती थी। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, नवपाषाण काल में चाक का आविष्कार हुआ, जिससे बर्तन अधिक समान और परिष्कृत बन पाए। चाक की सहायता से बर्तनों के आकार में एकरूपता आई और इनपर चित्रांकन, उभार, नक्काशी जैसी कलात्मक सजावट की जा सकी। कुछ सभ्यताओं में बर्तनों को फूस या बाँस के सांचे पर मिट्टी चढ़ाकर भी बनाया जाता था, जिससे बर्तन के अंदर और बाहर दोनों ओर एक जैसी मजबूती मिलती थी। यह भी उल्लेखनीय है कि बर्तन पकाने की भट्ठियाँ भी समय के साथ तकनीकी रूप से अधिक प्रभावशाली होती गईं।
समय के साथ-साथ मिट्टी को छानने, गूंथने और संपीड़ित करने की तकनीक भी विकसित हुई। विशेषकर सिंधु घाटी जैसी उन्नत सभ्यताओं में बर्तन पकाने के लिए भूमिगत भट्ठियों का प्रयोग होता था, जिससे तापमान को नियंत्रित किया जा सकता था। कुछ सभ्यताओं में दोहरा परत वाला बर्तन बनाने की तकनीक भी विकसित हुई, जिससे वह गर्मी को अधिक समय तक बनाए रख सके। रंगाई की प्रक्रिया में प्राकृतिक तत्वों जैसे लौह ऑक्साइड, मैंगनीज़ आदि का प्रयोग किया जाता था, जो जलने के बाद स्थायी रंग प्रदान करते थे। यह सब दर्शाता है कि मृद्भांड निर्माण मात्र उपयोगिता नहीं, बल्कि एक उच्च कोटि की शिल्पकला थी।
मृद्भांडों की तिथि निर्धारण की विधियाँ
किसी मृद्भांड की तिथि का निर्धारण एक अत्यंत जटिल और वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके लिए आजकल थर्मोल्यूमिनेसेन्स (thermoluminescence) तकनीक का प्रयोग किया जाता है, जिसमें यह पता लगाया जाता है कि वह मिट्टी कितनी बार और कितने तापमान पर जली है। इसके आधार पर उसकी उम्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, विभिन्न कालों में प्रयोग किए गए मृद्भांडों की विशिष्ट शैली भी एक संकेत देती है कि वह बर्तन किस युग से संबंधित हो सकता है। उदाहरण स्वरूप, उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांड सामान्यतः 800 ईसा पूर्व के माने जाते हैं और इन्हें देखते ही पुरातत्वविद उस स्थल की कालगणना कर सकते हैं। कुछ मृद्भांडों की गर्दन, तली या रंगत भी विशिष्ट होती है जो एक विशेष समय की पहचान होती है। इससे जुड़े संदर्भ अन्य खोजों जैसे औज़ारों, हड्डियों, मुद्रा आदि से मिलाकर तिथि को और अधिक सटीकता से तय किया जा सकता है।
कुछ मृद्भांडों में जलने के कारण उत्पन्न रेडियोएक्टिव तत्वों की मात्रा को भी मापा जाता है, जिससे काल निर्धारण और अधिक वैज्ञानिक हो जाता है। इसके अतिरिक्त, कार्बन डेटिंग जैसी विधियाँ, यदि बर्तन के साथ जैविक अवशेष मिले हों, तो उसकी उम्र बताने में सहायक होती हैं। पुरातत्वविद इन विधियों के साथ-साथ स्थल की खुदाई की परतों (stratigraphy) का भी अध्ययन करते हैं, जिससे यह जानना संभव हो सके कि मृद्भांड किस सांस्कृतिक परत से संबंधित है। इस प्रकार, तिथि निर्धारण केवल तकनीक का नहीं बल्कि संदर्भ और तुलनात्मक अध्ययन का भी समन्वय है।

लखनऊ में चिनहट और चीनी मिट्टी के बर्तनों की परंपरा
लखनऊ के चिनहट क्षेत्र में आज भी पारंपरिक मिट्टी के बर्तन बनाए जाते हैं। यह परंपरा न केवल सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार का भी बड़ा स्रोत बन चुकी है। यहाँ के कारीगरों ने पीढ़ियों से चली आ रही तकनीकों को आधुनिक उपकरणों से जोड़कर मिट्टी के बर्तनों को एक नया रूप दिया है। मिट्टी, चाक, भट्ठी और रंगाई का संयोजन आज भी वैसा ही है, जैसा सदियों पहले हुआ करता था। इसके साथ ही, लखनऊ में मध्यकाल के दौरान चीनी मिट्टी के बर्तनों का आगमन भी हुआ, जिन्हें पोर्सलीन कहा जाता है। ये बर्तन विदेशों से मंगाए जाते थे और लखनऊ के राजघरानों में इनका उपयोग उच्च वर्ग की प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता था। नीले और सफेद रंग के ये चिकने बर्तन आज भी लखनऊ के संग्रहालयों की शोभा बढ़ाते हैं। केओलिनाइट नामक विशेष मिट्टी से बने ये पोर्सलीन बर्तन लखनऊ के शाही इतिहास से गहरे जुड़े हुए हैं।
चिनहट की पहचान केवल मिट्टी के बर्तनों तक सीमित नहीं है, बल्कि यहाँ की मिट्टी की गुणवत्ता इतनी उच्च कोटि की है कि यह देशभर में प्रसिद्ध है। स्थानीय मेले और हाटों में आज भी पारंपरिक लाल मृत्तिका के बर्तन बिकते हैं, जिनमें दही जमाने के मटके, पानी रखने के घड़े, और पूजा सामग्री रखने के पात्र शामिल होते हैं। चिनहट के कुम्हारों की कारीगरी को सरकार ने कई बार सम्मानित भी किया है। आज कई आधुनिक स्टूडियो और डिजाइनर भी इन्हीं कारीगरों के साथ मिलकर मिट्टी के बर्तनों को नया आयाम दे रहे हैं, जिससे पारंपरिक कला आधुनिक बाज़ार में भी स्थान पा रही है। इस प्रकार, चिनहट केवल अतीत का स्मृति स्थल नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक धरोहर है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2p5a448n
https://tinyurl.com/m25a8w5c