लखनऊ की लू बनाम ज़िंदगी: तापमान बढ़ोतरी और उसका बहुआयामी असर

जलवायु व ऋतु
05-07-2025 09:10 AM
लखनऊ की लू बनाम ज़िंदगी: तापमान बढ़ोतरी और उसका बहुआयामी असर

लखनऊवासियों, क्या आपने भी महसूस किया है कि अब वो ठंडी बयारें, गुलमोहर की छांव और मई-जून की नरम सुबहें जैसे बीते ज़माने की बात हो गई हैं? हमारी नवाबी तहज़ीब और तहम्मुल की पहचान रखने वाला यह शहर, जो कभी इमामबाड़ों की ठंडी गलियों और आम के बागों की मिठास के लिए जाना जाता था, अब हर साल चिलचिलाती धूप और झुलसाती लू से कराह उठता है। बीते कुछ वर्षों में लखनऊ की गर्मियाँ अब सिर्फ़ एक मौसम नहीं, बल्कि एक चुनौती बन चुकी हैं – ऐसी चुनौती जो इंसानी जान तक निगल रही है। तापमान जब लगातार 45 से 47 डिग्री को छूने लगे, तो यह सिर्फ़ मौसम का उतार-चढ़ाव नहीं कहलाता – यह एक संकेत है जलवायु के बिगड़ते संतुलन का। हमारे शहर के पार्कों में बच्चों की खिलखिलाहट कम हो गई है, निर्माण स्थलों पर काम करते मज़दूरों के माथे पर पसीना नहीं, अब चिंता की लकीरें ज़्यादा हैं, और मोहल्लों में बूढ़े लोगों के चेहरे पर गर्मी का डर साफ़ झलकता है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस संकट की मार सबसे पहले हमारे गरीब, वंचित और सीमांत समुदायों पर पड़ती है – वही लोग जो न तो वातानुकूलित कमरों में छुप सकते हैं, न ही साफ़ पानी की स्थायी पहुँच रखते हैं।

स्कूलों में छुट्टियाँ समय से पहले घोषित हो रही हैं, नहरें और तालाब सूखने लगे हैं, और बिजली की कटौती आम हो गई है। लखनऊ जैसे शहर, जहाँ परंपरा और आधुनिकता का सुंदर संगम है, अब इस संकट के सामने खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। इसके पीछे सिर्फ़ बढ़ता तापमान नहीं, बल्कि हमारी तेज़ रफ्तार शहरीकरण, हरियाली की कटौती, और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन जैसी कई परतें हैं। अस्पतालों में हीट स्ट्रोक के मरीजों की भीड़, जल स्रोतों के सूखने से उपजा जल संकट, और ग्रामीण इलाक़ों में खेती का रुकना – ये सब अब गर्मी की पहचान बन चुके हैं। सबसे अधिक मार झेलते हैं – हमारे बुजुर्ग, छोटे बच्चे, निर्माण श्रमिक और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोग। जलवायु परिवर्तन, तेज़ी से बढ़ता शहरीकरण और पर्यावरणीय असंतुलन ने लखनऊ की पारंपरिक ठंडक को जैसे निगल लिया है।

इस लेख में आप पढ़ेंगे कि भारत में बढ़ती गर्मी की लहरों की वर्तमान स्थिति क्या है और इसका हमारे समाज, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर कैसा प्रभाव पड़ रहा है। इसके बाद हम जानेंगे कि इन लहरों के पीछे कौन-कौन से वैज्ञानिक, भौगोलिक और मानवीय कारण हैं, और इसमें मौसम विभाग की क्या भूमिका है। इसके पश्चात, गर्मी की लहरों के स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों की चर्चा की जाएगी, विशेषकर उन वर्गों पर जो सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। अंत में हम यह भी पढ़ेंगे कि भविष्य में इस चुनौती से कैसे निपटा जा सकता है और सरकार तथा समाज द्वारा अब तक क्या प्रयास किए गए हैं। 

भारत में बढ़ती गर्मी की लहरें: स्थिति और प्रभाव 

भारत में गर्मी की लहरें अब महज़ एक मौसमी परिवर्तन नहीं रहीं — ये अब जीवन के हर पहलू को झकझोर देने वाली जलवायु आपदा में बदल चुकी हैं। जो कभी मई-जून की चिर-परिचित चुभन थी, वह अब जानलेवा लहरों में बदल चुकी है, जिनका असर हमारे शरीर, समाज, संसाधनों और सोच तक फैल गया है। बीते कुछ वर्षों में इन हीटवेव्स की संख्या बढ़ी है, अवधि लंबी हुई है, और इनकी तीव्रता ने सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। पहले यह संकट केवल उत्तर भारत तक सीमित समझा जाता था — लेकिन अब दक्षिण के राज्य जैसे तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक भी 45 डिग्री से ऊपर के तापमान को झेलने पर मजबूर हो चुके हैं।

यह बढ़ती गर्मी अब सिर्फ़ शरीर को नहीं झुलसाती, यह ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरतों पर चोट करती है। नदियाँ सिकुड़ रही हैं, तालाब सूख रहे हैं, और भूमिगत जलस्तर हर साल नीचे खिसक रहा है। जल संकट अब शहरों के टैंकरों की कतारों में, गाँवों के सूने कुओं में, और किसानों की सूखी ज़मीन पर साफ़ देखा जा सकता है। इसके साथ ही कृषि उत्पादन पर जबरदस्त असर पड़ता है — धान की फसलें समय से पहले मुरझा जाती हैं, और सब्ज़ियों की पैदावार घटने से बाज़ार में दाम बढ़ जाते हैं।

स्कूलों को समय से पहले बंद करना पड़ता है, मज़दूरों को दोपहर में काम रोकना पड़ता है, और ऑफिसों में थकान और बेचैनी आम हो जाती है। शहरों में एयर कंडीशनर और कूलर की मांग बढ़ने से बिजली की खपत रेकॉर्ड स्तर पर पहुँचती है, जिससे पावर ग्रिड पर दबाव बढ़ता है और लोड शेडिंग की समस्या पैदा होती है। इन सबके बीच सबसे अधिक संकट उन लोगों पर टूटता है जिनके पास ना संसाधन हैं, ना विकल्प — जैसे मज़दूर, दिहाड़ी कमाने वाले, बुज़ुर्ग, छोटे बच्चे और झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोग।

गर्मी की लहरों के कारण और मौसम विज्ञान विभाग की भूमिका 

गर्मी की लहरें सिर्फ़ सूरज की तपिश नहीं होतीं — ये हमारी प्राकृतिक व्यवस्था के टूटते संतुलन की चेतावनी हैं। इनके पीछे कई जटिल वैज्ञानिक, पर्यावरणीय और मानवीय कारण छिपे हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है – जलवायु परिवर्तन। जब हम पेड़ों की जगह सीमेंट के जंगल उगाते हैं, कारखानों से अनियंत्रित ग्रीनहाउस गैसें छोड़ते हैं, और प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन करते हैं, तो नतीजा सिर्फ़ पिघलते ग्लेशियर नहीं, बल्कि हमारे अपने शहरों की झुलसती सड़कों पर नज़र आता है। वनों की अंधाधुंध कटाई, बढ़ती जनसंख्या, और बिना योजना के फैलते शहर – ये सभी मिलकर हमारे पर्यावरण को एक ऐसे मोड़ पर ले आए हैं जहाँ शहरी तापमान तेजी से बढ़ता जा रहा है। "अर्बन हीट आइलैंड" यानी शहरों में गर्मी फँस जाने की यह प्रक्रिया इतनी तीव्र हो चुकी है कि अब लखनऊ जैसे शहर भी अपने पास के ग्रामीण इलाकों से 3 से 5 डिग्री ज़्यादा तपने लगे हैं। इसका असर सिर्फ़ तापमान तक सीमित नहीं, बल्कि हमारे जीवन की गुणवत्ता, नींद, कामकाज, और स्वास्थ्य पर भी गहरा पड़ता है।

ऐसे में भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) एक मौन प्रहरी की तरह कार्य कर रहा है, जो तपती हवाओं से पहले हमें सतर्क करने का प्रयास करता है। यह विभाग अब पारंपरिक पूर्वानुमान से कहीं आगे जाकर रडार तकनीक, उपग्रह चित्रण, AI आधारित क्लाइमेट मॉडलिंग, और बिग डेटा विश्लेषण जैसे आधुनिक संसाधनों का उपयोग कर रहा है, ताकि यह बताया जा सके कि किस क्षेत्र में, कब और कितनी तीव्र गर्मी की आशंका है। IMD न केवल केंद्र और राज्य सरकारों को हीटवेव अलर्ट और दिशानिर्देश भेजता है, बल्कि ज़िला स्तर पर आपदा प्रबंधन को सक्रिय करता है। यही नहीं, आम नागरिकों को भी मोबाइल अलर्ट, रेडियो, टीवी और सोशल मीडिया के माध्यम से समय रहते चेतावनी मिलती है, ताकि लोग दोपहर में काम न करें, पर्याप्त पानी पिएँ, और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करें। 

गर्मी की लहरों के स्वास्थ्य और सामाजिक प्रभाव 

जब तापमान 45 डिग्री के पार चला जाता है, तो गर्मी की लहरें सिर्फ़ एक मौसमीय असुविधा नहीं रह जातीं — वे एक अदृश्य जानलेवा हमला बन जाती हैं, जो शरीर के भीतर से इंसान को कमजोर करने लगती हैं। हमारे शरीर का प्राकृतिक ताप नियंत्रण प्रणाली — जिसे थर्मोरेगुलेशन कहते हैं — इतनी अधिक गर्मी में अपना संतुलन खो बैठती है। पसीना आना बंद हो जाता है, और शरीर का तापमान तेजी से बढ़ने लगता है, जिससे हीट स्ट्रोक जैसी गंभीर स्थिति पैदा होती है। खासतौर पर हृदय रोगियों, डायबिटीज़ से पीड़ित लोगों, और उच्च रक्तचाप वाले मरीजों के लिए यह स्थिति जानलेवा साबित हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, हर साल दुनियाभर में लाखों लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गर्मी से जुड़ी बीमारियों के कारण प्रभावित होते हैं — जिनमें से कई मौत का शिकार हो जाते हैं। लेकिन इस संकट का असर सिर्फ़ शरीर तक सीमित नहीं रहता, यह हमारे समाज की नींव को भी हिला देता है।

दिहाड़ी मजदूरों को सबसे पहला झटका लगता है — तपती दोपहर में काम कर पाना असंभव हो जाता है, जिससे उनकी आमदनी रुक जाती है, और परिवार का पेट पालना चुनौती बन जाता है। दूसरी ओर, स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति घटती है, कक्षाएँ स्थगित होती हैं, और पढ़ाई का सिलसिला टूट जाता है, जिससे शिक्षा व्यवस्था भी गर्मी की मार झेलती है। गांवों में हालात और भी चिंताजनक हो जाते हैं। खेती की फसलें झुलसने लगती हैं, सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं होता, और पशुओं के लिए चारे की किल्लत पैदा हो जाती है। इसका सीधा असर हमारे खाद्य भंडार और बाज़ार पर पड़ता है — दाम बढ़ते हैं और असमानता गहराती है। इन सभी पहलुओं को जोड़ें तो यह स्पष्ट होता है कि गर्मी की लहरें एक समग्र मानवीय आपदा हैं — जो न केवल स्वास्थ्य, बल्कि शिक्षा, रोज़गार, कृषि, और सामाजिक न्याय तक को प्रभावित करती हैं। यह सिर्फ़ एक मौसम नहीं, हमारी नीतियों, संवेदनाओं और सामूहिक ज़िम्मेदारी की परीक्षा है।

सामाजिक चुनौतियाँ और संवेदनशील समूह 

गर्मी की लहरें जब शहरों की सड़कों और गांवों की पगडंडियों को तपाती हैं, तो उनका असर पूरे समाज पर पड़ता है — लेकिन हर किसी पर समान रूप से नहीं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो इस भीषण गर्मी के सामने बेहद कमजोर और असहाय खड़े रहते हैं। इन्हें हम “संवेदनशील समूह” कहते हैं — जिनमें शामिल हैं: गरीब तबका, बुज़ुर्ग, छोटे बच्चे, गर्भवती महिलाएं, और दिव्यांगजन। इन लोगों के पास न तो ठंडक देने वाले उपकरण होते हैं, न ही पर्याप्त छाया, और न ही स्वास्थ्य सेवाओं तक त्वरित पहुँच। शहरी झुग्गियों में रहने वाले लोग टिन की छतों और संकरे घरों में जीवन बिताते हैं — जहाँ गर्मी घंटों तक दीवारों और छतों में फँसी रहती है। ऐसे घर रात में भी तपे हुए तंदूर जैसे महसूस होते हैं, जहाँ सोना भी किसी सज़ा से कम नहीं लगता।

ग्रामीण क्षेत्रों के किसान, खेतिहर मज़दूर, और दिहाड़ी कामगार धूप से सीधे टकराते हैं। बिना किसी छाया या सुरक्षात्मक इंतज़ाम के, सुबह से दोपहर तक तपती ज़मीन पर काम करना उनकी मजबूरी है — और यहीं से शुरू होती है हीट एग्जॉर्शन, हीट स्ट्रोक और अन्य गंभीर बीमारियों की संभावना। महिलाएं, विशेषकर वे जो जल स्रोतों से पानी भरने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलती हैं, इस संकट की दोहरी मार झेलती हैं — एक ओर झुलसाती गर्मी, दूसरी ओर शारीरिक श्रम। उनके लिए गर्मी सिर्फ़ तापमान नहीं, बल्कि थकावट, जोखिम और जिम्मेदारी का मिला-जुला बोझ बन जाती है। इसलिए सरकार और प्रशासन की ज़िम्मेदारी बनती है कि इन वर्गों के लिए विशेष राहत उपाय लागू करे। शहरों और गांवों में "कूलिंग सेंटर" की व्यवस्था हो जहाँ लोग दोपहर की लू से बच सकें; सार्वजनिक स्थानों पर स्वच्छ पेयजल, छायादार आश्रय, और चल चिकित्सा इकाइयाँ स्थापित की जाएँ जो दूरदराज़ क्षेत्रों तक पहुँच सकें।

भविष्य की चुनौतियाँ और समाधान के प्रयास 

भविष्य की ओर अगर हम आँखें खोलकर देखें, तो यह साफ़ दिखता है कि गर्मी की लहरें और भी भयावह रूप लेने वाली हैं। जलवायु परिवर्तन की रफ्तार और वैश्विक तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी इस ओर इशारा कर रही है कि यदि हमने अभी भी अपनी आदतें नहीं बदलीं, तो आने वाले दशक सिर्फ़ चिलचिलाती गर्मी ही नहीं, बल्कि जीवन की हर परत पर संकट लेकर आएँगे। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग पर जल्द काबू नहीं पाया गया, तो 2050 तक भारत में हर साल 150 से अधिक ऐसे दिन होंगे, जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहेगा। यह न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरा बनेगा, बल्कि जल संसाधनों, कृषि उत्पादन, खाद्य आपूर्ति, और ऊर्जा सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों को भी गहरी चोट पहुँचाएगा।

इस संकट से निपटना अब सिर्फ़ पर्यावरण मंत्रालय की ज़िम्मेदारी नहीं — यह एक राष्ट्रीय, सामाजिक और व्यक्तिगत दायित्व बन चुका है। सरकार को चाहिए कि वह नीतिगत, तकनीकी और सामाजिक स्तरों पर एकजुट और दीर्घकालिक योजनाएं बनाकर आगे बढ़े।

  • सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोतों को मुख्यधारा में लाना,
  • जल संरक्षण, वर्षा जल संचयन, और रीसाइकलिंग को व्यवहारिक रूप से लागू करना,
  • शहरों की योजनाओं में हरियाली, छायादार मार्ग, और इको-फ्रेंडली इन्फ्रास्ट्रक्चर को प्राथमिकता देना — ये कुछ ऐसे कदम हैं जो ना केवल पर्यावरण को बचाएँगे, बल्कि नागरिकों को भी राहत देंगे।

सबसे महत्वपूर्ण है — जनजागरूकता। यदि हम बच्चों और युवाओं को स्कूलों में जलवायु और पर्यावरण से जुड़ी शिक्षा दें, उन्हें केवल ज्ञान नहीं, संवेदना और जिम्मेदारी भी देंगे, तो वे आने वाले समय के लिए बेहतर नागरिक बनेंगे।

संदर्भ-

https://tinyurl.com/4hv9vtcb 

https://tinyurl.com/3kd3p9r6 

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