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लखनऊ, जो अपने तहज़ीब, नवाबी अंदाज़ और खाने की विविधता के लिए जाना जाता है, अब धीरे-धीरे एक नए स्वाद से भी रिश्ता बना रहा है — चॉकलेट से। हर साल 7 जुलाई को मनाया जाने वाला विश्व चॉकलेट दिवस अब यहां सिर्फ मिठास से जुड़ा उत्सव नहीं रहा, बल्कि यह लखनऊ के बदलते स्वाद, नई पीढ़ी की सोच, और वैश्विक रुझानों को अपनाने की एक सुंदर मिसाल बन गया है। एक समय था जब चॉकलेट को सिर्फ “विदेशी बच्चों की चीज़” समझा जाता था। लेकिन आज, लखनऊ के स्कूलों से लेकर शादी-ब्याह तक, कैफे से लेकर कॉरपोरेट गिफ्ट्स तक, और गुमनाम मोहब्बत भरे खतों से लेकर सोशल मीडिया के खुले इज़हार तक — चॉकलेट एक ज़रिया बन गई है एहसास जताने का, रिश्ते निभाने का और ज़िंदगी में थोड़ा मीठापन घोलने का।
हजरतगंज, गोमती नगर, अमीनाबाद — लखनऊ के हर कोने में अब आपको चॉकलेट बेकरीज़, आर्टिसन चॉकलेट शॉप्स और नए-नए फ्लेवर वाली मिठाइयों की दुकानें मिल जाएँगी। युवाओं के बीच डार्क चॉकलेट ट्रेंड कर रही है, तो बुज़ुर्गों के बीच मिल्क चॉकलेट में बीते ज़माने की मिठास याद दिलाने वाली सादगी है। लेकिन इस स्वाद के पीछे एक ख़ास कहानी है, जिसे अक्सर हम नजरअंदाज़ कर देते हैं — कोको, वही बीज जिससे चॉकलेट बनती है। आज भारत केवल चॉकलेट खाने वाला देश नहीं रहा, बल्कि दक्षिण भारत के कई राज्य जैसे कि केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश अब खुद कोको की खेती कर रहे हैं। यह खेती सिर्फ किसानों की आमदनी नहीं बढ़ा रही, बल्कि भारत को वैश्विक चॉकलेट मानचित्र पर एक उभरती ताक़त के रूप में स्थापित कर रही है।
लखनऊ जैसे शहर के लिए यह बदलाव और भी खास है। क्योंकि यहाँ परंपरा और आधुनिकता एक साथ चलते हैं। यहां के लोग नई चीज़ों को ठुकराते नहीं, बल्कि अपने रंग में ढाल लेते हैं। इसलिए अब जब लखनऊ के त्यौहारों की थाल में मिठाई के साथ चॉकलेट भी सजती है, तो वो सिर्फ एक स्वाद नहीं होता — वो एक संस्कृति और समय के साथ चलने की पहचान होती है। आज जब हम चॉकलेट खाते हैं, किसी को उपहार देते हैं या सिर्फ खुद को थोड़ा सुकून देना चाहते हैं — तो वो मिठास हमें कहीं न कहीं लखनऊ की उस खासियत की याद दिला देती है, जिसमें हर चीज़ को अपनाने की सलीका और शराफ़त होती है। इस लेख में सबसे पहले हम देखेंगे कि चॉकलेट और कोको का ऐतिहासिक महत्व क्या रहा है और इसकी उत्पत्ति कैसे हुई। फिर जानेंगे वैश्विक स्तर पर कोको की खेती, खासकर अफ्रीकी किसानों की स्थिति और भारत में इसकी खेती की भौगोलिक विशेषताएं। इसके बाद बात होगी भारतीय कोको की गुणवत्ता और उससे किसानों को मिलने वाले लाभ की। अंत में जानेंगे कि कैसे भारत का चॉकलेट उद्योग युवा उपभोक्ताओं के बीच तेज़ी से फैल रहा है और भारतीय ब्रांड्स कैसे बाज़ार पर राज कर रहे हैं।

चॉकलेट का ऐतिहासिक महत्व और कोको की प्राचीन उत्पत्ति
चॉकलेट को मानव इतिहास की सबसे प्राचीन और प्रिय खाद्य वस्तुओं में से एक माना जाता है। इसका प्रमुख घटक ‘कोको’ लगभग 5300 साल पुराना है, और इसे ‘देवताओं का भोजन’ कहा गया है। प्रारंभिक सभ्यताओं में इसका उपयोग न केवल पेय के रूप में होता था, बल्कि इसे मुद्रा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। माया और एज़टेक जैसे समुदायों में कोको के बीजों को अत्यधिक सम्मान प्राप्त था। चॉकलेट का आधुनिक रूप तो बाद में आया, लेकिन इसकी जड़ें गहरे सांस्कृतिक और औषधीय उपयोगों में हैं। आज यह खाद्य पदार्थ न केवल स्वाद में बल्कि भावनाओं को जोड़ने वाले माध्यम के रूप में भी प्रसिद्ध है।
इसके अतिरिक्त, कोको को शारीरिक ऊर्जा बढ़ाने, पाचन में सहायता करने और मानसिक तनाव कम करने के लिए भी उपयोग किया जाता था। प्राचीन काल में राजा-महाराजा भी इसे विशेष अवसरों पर पीया करते थे। स्पेनिश खोजकर्ता जब नई दुनिया से लौटे, तो वे कोको को यूरोप लाए, जहां इसकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी। औद्योगिक क्रांति के दौरान चॉकलेट का प्रसंस्करण आसान हुआ और यह आम जनता तक पहुंची। धीरे-धीरे इसमें दूध, चीनी और वसा मिलाकर इसका स्वादिष्ट रूप तैयार किया गया। आधुनिक समय में चॉकलेट केवल खाद्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक महत्व वाला उत्पाद बन चुका है। इसके प्रयोग विवाह, त्यौहार, और उपहार जैसे अवसरों में भावनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम भी बन चुके हैं।
वैश्विक स्तर पर कोको उत्पादन और किसानों की चुनौतियाँ
आज वैश्विक कोको उत्पादन का लगभग 70% हिस्सा पश्चिमी अफ्रीका, विशेषकर आइवरी कोस्ट और घाना से आता है। हालांकि यह क्षेत्र कोको की खेती में अग्रणी है, वहां के किसानों की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय है। उन्हें औसतन प्रतिदिन एक डॉलर से भी कम की आमदनी होती है, जो एक बार चॉकलेट खरीदने की कीमत से भी कम है। यह असमानता दर्शाती है कि वैश्विक चॉकलेट उद्योग में मुनाफा उपभोक्ताओं और ब्रांड्स तक सीमित रह जाता है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन, कीट-रोग और खराब बुनियादी सुविधाएं इन किसानों की समस्याओं को और बढ़ा रही हैं।
यह स्थिति न केवल आर्थिक रूप से असमान है, बल्कि सामाजिक और नैतिक सवाल भी उठाती है। कई छोटे किसान कोको उत्पादन में श्रम शोषण और बाल श्रम जैसी समस्याओं का सामना करते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और वित्तीय सहायता की कमी इनकी स्थिति को और जटिल बनाती है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अब ‘फेयर ट्रेड’ और ‘सस्टेनेबल सोर्सिंग’ जैसे पहल शुरू कर रही हैं ताकि किसानों को उचित मूल्य मिले। इसके अलावा, कई NGO और कंपनियां स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण और संसाधन भी उपलब्ध करवा रही हैं। लेकिन फिर भी, जमीनी स्तर पर इन प्रयासों की पहुंच और प्रभाव बहुत सीमित है। वैश्विक उपभोक्ताओं को भी इस असंतुलन को समझना और जिम्मेदारी से उत्पाद चुनना आवश्यक है।
भारत में कोको की खेती: क्षेत्र, उत्पादन और संभावनाएं
भारत विश्व कोको उत्पादन में 16वें स्थान पर है, लेकिन गुणवत्ता और कृषि नवाचार के चलते इसकी संभावनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। देश में कोको की सबसे अधिक खेती आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में की जाती है, जहां जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। कोको के लिए आदर्श तापमान 20 से 35 डिग्री सेल्सियस होता है और कम से कम 1500 मिमी वर्षा अपेक्षित है। भारत में यह फसल आमतौर पर नारियल, सुपारी और तेल पाम जैसी फसलों के साथ अंतरफसल रूप में उगाई जाती है। खेती की यह प्रणाली भूमि का कुशल उपयोग सुनिश्चित करती है और किसानों की आय बढ़ाने में मदद करती है।
भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें अब कोको की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए सब्सिडी, प्रशिक्षण कार्यक्रम और बीज वितरण जैसी योजनाएं चला रही हैं। इंडियन कोको बोर्ड जैसे संगठन किसानों को तकनीकी जानकारी और बाजार की समझ प्रदान कर रहे हैं। वैज्ञानिकों द्वारा नई रोग-प्रतिरोधक किस्में भी विकसित की जा रही हैं, जिससे पैदावार में बढ़ोतरी हो रही है। इसके साथ ही, प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना और मार्केट लिंकेज से किसान सीधे लाभ उठा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिला स्वयं सहायता समूह भी कोको उत्पादों के प्रसंस्करण में भाग ले रहे हैं, जिससे महिलाओं को भी आर्थिक स्वतंत्रता मिल रही है। यदि ये प्रयास सतत रूप से चलते रहें, तो भारत कोको उत्पादन में वैश्विक स्तर पर और भी मजबूत स्थान प्राप्त कर सकता है।
भारतीय कोको की गुणवत्ता और किसानों को लाभ
भारतीय कोको को गुणवत्ता के आधार पर दुनिया में विशेष स्थान प्राप्त है, विशेषकर ट्रिनिटारियो किस्म के कारण जो स्वाद, गंध और बीज संरचना में बेहतरीन मानी जाती है। भारत में कोको की खेती करने वाले किसान अब अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार उत्पादन कर रहे हैं और उन्हें अफ्रीकी देशों की तुलना में बेहतर मूल्य भी मिल रहा है। नारियल के साथ कोको की अंतरफसली खेती किसानों को 30,000 से 60,000 रुपये वार्षिक अतिरिक्त आय देती है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया संबल मिला है और युवाओं में भी कोको खेती के प्रति रुचि बढ़ी है।
भारत में कई निजी चॉकलेट कंपनियां अब सीधे किसानों से कोको खरीद रही हैं, जिससे बिचौलियों की भूमिका कम हो रही है और किसानों को बेहतर लाभ मिल रहा है। ऑर्गेनिक कोको की मांग बढ़ने के कारण जैविक खेती की ओर भी रुझान बढ़ा है। कई युवा किसान अब पारंपरिक फसलों की बजाय कोको को प्राथमिकता दे रहे हैं क्योंकि इसमें बाजार स्थिरता और लाभ दोनों अधिक है। कोको की कटाई, सुखाई और किण्वन (fermentation) जैसे चरणों में सुधार से गुणवत्ता में और बढ़ोतरी हुई है। साथ ही, कुछ राज्यों में प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना से किसानों को स्थानीय स्तर पर ही मूल्य संवर्धन का लाभ मिल रहा है। इससे न केवल आमदनी बढ़ रही है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार भी सृजित हो रहा है।
भारत में चॉकलेट उद्योग का विस्तार और उपभोक्ता व्यवहार
भारत में चॉकलेट उद्योग पिछले एक दशक में बहुत तेजी से बढ़ा है। 2020 में यह कन्फेक्शनरी बाज़ार लगभग 1.9 बिलियन डॉलर का हो गया था और अब यह रोज़मर्रा की ज़रूरत बनता जा रहा है। पहले जो चॉकलेट सिर्फ त्योहारों या उपहारों तक सीमित थी, वह अब युवाओं की दैनिक खपत में शामिल हो चुकी है। उपभोक्ताओं की रुचि नए फ्लेवर, डार्क चॉकलेट और हेल्थ-फ्रेंडली विकल्पों की ओर बढ़ रही है। साथ ही ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स के ज़रिए इसकी पहुंच गांवों और कस्बों तक बढ़ गई है।
मेट्रो शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक चॉकलेट की मांग में वृद्धि हो रही है, खासकर वैलेंटाइन डे, राखी, और जन्मदिन जैसे मौकों पर। मार्केटिंग रणनीतियों ने भी उपभोक्ताओं को भावनात्मक रूप से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई है। अब कंपनियां बच्चों के अलावा युवाओं और बुजुर्गों के लिए भी विशेष उत्पाद लॉन्च कर रही हैं। हेल्थ-फोकस्ड चॉकलेट, जैसे शुगर-फ्री और प्रोटीन बार, शहरी उपभोक्ताओं के बीच लोकप्रिय हो रही हैं। FMCG क्षेत्र में निवेश बढ़ने के कारण चॉकलेट निर्माण में तकनीकी उन्नति और उत्पाद विविधता देखने को मिल रही है। इसके साथ ही, सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग रील्स और ब्रांड एंबेसडर की भूमिका ने चॉकलेट को एक ‘लाइफस्टाइल प्रोडक्ट’ बना दिया है।

भारतीय चॉकलेट ब्रांड्स और बाज़ार पर उनका प्रभुत्व
भारतीय चॉकलेट बाज़ार में आज मोंडेलेज (कैडबरी), नेस्ले, फेरेरो, अमूल और हर्षे जैसे ब्रांड्स का दबदबा है। चॉकलेट कन्फेक्शनरी सेगमेंट में कैडबरी का 65–70% हिस्सा है, जबकि नेस्ले का लगभग 20%। इसके अलावा आईटीसी, सूर्या फूड और लोटस चॉकलेट जैसी कंपनियां भी उभर रही हैं। चॉकलेट पैकेजिंग इंडस्ट्री भी इस बढ़ते बाज़ार से लाभान्वित हो रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि 2026 तक भारतीय चॉकलेट बाज़ार 12.1% की वार्षिक वृद्धि दर से आगे बढ़ेगा। इससे किसानों से लेकर स्टार्टअप्स तक सभी को अवसर मिलेंगे।
नए जमाने के ब्रांड जैसे ‘पेपरमिंट’, ‘बीन्थ बार’, और ‘अल्टर एको’ अब प्रीमियम और आर्टिसन चॉकलेट के क्षेत्र में उभर रहे हैं। यह ब्रांड्स स्थानीय कोको किसानों से सीधा कोको लेकर उच्च गुणवत्ता वाली चॉकलेट बना रहे हैं। इनके उत्पादों में स्वाद, प्रस्तुति और सामाजिक जिम्मेदारी का बेहतरीन संयोजन देखने को मिलता है। वहीं, अमूल और आईटीसी जैसे देसी ब्रांड्स अपनी चॉकलेट्स को अब अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी निर्यात कर रहे हैं। पैकेजिंग उद्योग की प्रगति से चॉकलेट की शेल्फ-लाइफ और ब्रांडिंग में बड़ा सुधार हुआ है। साथ ही, फूड स्टार्टअप्स (Food Startup's) और एमएसएमई के लिए भी यह क्षेत्र नई संभावनाओं के द्वार खोल रहा है।
संदर्भ-