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लखनऊ की नज़ाकत और नफ़ासत से लेकर बड़ा इमामबाड़ा की विशाल गुंबदों तक, और उर्दू कविता की हर पंक्ति से लेकर दरबारों की परंपराओं तक, भारत में फ़ारसी प्रभाव की गूंज स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है। लखनऊ में नवाब वाजिद अली शाह ने इंडो-फ़ारसी कला को संगीत, नृत्य और रंगमंच के माध्यम से संरक्षण दिया। लखनऊ की वास्तुकला में फ़ारसी प्रभाव की गहरी छाप देखने को मिलती है, खासकर नवाबों के दौर में बनी भव्य इमारतों में। बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा और रूमी दरवाज़ा तो इसके सबसे मशहूर उदाहरण हैं। इंडो-फ़ारसी शैली ने भारत की बहुलतावादी संस्कृति को और अधिक समृद्ध किया। ये प्रभाव केवल स्थापत्य या भाषा तक सीमित नहीं थे, बल्कि वे एक व्यापक सांस्कृतिक मिलन का परिणाम थे, जो सदियों से भारत और फ़ारस के बीच चलते आ रहे गहरे संबंधों से जन्मा। भारत और फ़ारस के बीच इन संबंधों की नींव प्राचीन युग में ही रख दी गई थी। समय के साथ इन दोनों सभ्यताओं ने न केवल वस्तुओं का, बल्कि विचारों, परंपराओं और कलाओं का भी आदान-प्रदान किया।
इस लेख में हम भारत और फ़ारस के ऐतिहासिक संबंधों की झलक पाएंगे। हम जानेंगे कि कैसे फ़ारसी साम्राज्य और भारत के बीच राजनीतिक संपर्क स्थापित हुए। फ़ारसी भाषा, लिपि और लेखन प्रणाली पर इसके प्रभाव को भी समझेंगे। भारतीय स्थापत्यकला में फ़ारसी छाप की पहचान करेंगे और अंत मध्यकालीन भारत में फैले फ़ारसी सांस्कृतिक प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।

भारत-फ़ारस संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत और फ़ारस (आज का ईरान) के बीच संपर्क का इतिहास 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होता है। इस काल में अचमेनिड (Achaemenid) फ़ारसी साम्राज्य ने सिंधु घाटी के पश्चिमी हिस्सों पर आक्रमण किया और उन्हें अपने राज्य में मिला लिया। ऋग्वैदिक काल के आर्य और फ़ारसी आर्य (अवस्तन आर्य) एक ही मूल से निकले थे, जिसकी झलक उनकी भाषाओं, धार्मिक अवधारणाओं और सामाजिक व्यवस्थाओं में मिलती है। उदाहरण के लिए, संस्कृत का "देव" और अवेस्ता का "दैव" एक ही शब्द की भिन्न व्याख्याएँ हैं। सिंधु क्षेत्र में फ़ारसी उपस्थिति के प्रमाण हेरोडोटस और अन्य यूनानी लेखकों की रचनाओं में मिलते हैं। डेरियस-प्रथम द्वारा पंजाब को बीसवें क्षत्रप के रूप में अपनाना दर्शाता है कि फ़ारस ने भारत को एक महत्वपूर्ण भूभाग माना।
वैदिक और अवस्तन धर्मग्रंथों में अग्नि (अग्नि/अतार), सोम (हाओमा), तथा स्वर्ग/नरक जैसी अवधारणाएं एक जैसी हैं। दोनों संस्कृतियाँ घोड़ों, रथों और बलिदान की विधियों में विश्वास करती थीं। फ़ारसी 'आवेस्टा' और भारतीय 'वेद' एक ही परंपरा की भाषिक शाखाएं हैं। इन संबंधों के प्रमाण संस्कृत और अवेस्ता शब्दों की तुलनात्मक व्याख्या में भी मिलते हैं। सिन्धु घाटी क्षेत्र से प्राप्त अवशेष जैसे मुद्रा और वास्तु-शिल्प में भी इन संपर्कों की पुष्टि होती है। इस काल में दोनों सभ्यताओं में व्यापारी और कारीगर वर्ग का भी परस्पर आदान-प्रदान होता रहा।
फ़ारसी साम्राज्य और भारत: राजनीतिक संपर्क
साइरस महान के समय से ही फ़ारसी सम्राटों की दृष्टि भारत पर थी। डेरियस प्रथम (522-486 ई.पू.) ने पंजाब क्षेत्र पर अधिकार जमाया और सिंधु नदी की नौसैनिक खोज के लिए स्काईलैक्स (Scylax) को भेजा। डेरियस ने भारत को अपने साम्राज्य का एक भाग बनाकर वहां कर (tribute) प्रणाली लागू की।
इस राजनीतिक संपर्क के परिणामस्वरूप, भारत में फ़ारसी प्रशासनिक प्रणाली के कुछ तत्वों का आगमन हुआ, जैसे कि क्षत्रप व्यवस्था। हालांकि ये प्रभाव सीमित भूभाग तक ही रहे, पर उन्होंने बाद में सिकंदर के भारत अभियान का मार्ग तैयार किया। जब सिकंदर ने 326 ईसा पूर्व में भारत पर आक्रमण किया, तो वह उसी मार्ग से आया जो पहले फ़ारसियों ने अपनाया था। सिकंदर के बाद भी भारत और फ़ारस के बीच संपर्क बना रहा, खासकर व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के ज़रिए।
डेरियस ने भारत से वार्षिक कर के रूप में सोने की भारी मात्रा एकत्र की, जिसे यूनानी स्रोतों में ‘इंडियन गोल्ड डस्ट’ कहा गया है। सिंधु नदी की नौसैनिक यात्रा ने बाद में फारसियों को अरब सागर और भारतीय बंदरगाहों से जोड़ने में सहायता की। फारसी क्षत्रप व्यवस्था का प्रभाव आगे चलकर मौर्य प्रशासन में देखा गया, जहाँ प्रांतों को 'जनपद' में बाँटा गया। भारत-फ़ारस राजनीतिक संपर्क ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए एक स्थायी आधार तैयार किया, जिससे ग्रीस, मिस्र और मध्य एशिया के बाजारों तक भारतीय वस्तुएं पहुँच सकीं। भारत पर आक्रमण का मार्ग जो फ़ारसियों ने तैयार किया, वही सिकंदर और बाद में मुग़लों द्वारा भी अपनाया गया।

फ़ारसी प्रभाव: भाषा, लिपि और लेखन पर असर
फ़ारसी भाषा और लेखन का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में गहराई तक गया। अचमेनिड काल में अरामी लिपि का प्रभाव भारत में देखा गया, जो आगे चलकर खरोष्ठी लिपि के रूप में विकसित हुई। अशोक के शिलालेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग इसका प्रमाण है। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के समय से फ़ारसी प्रशासनिक परंपराओं और भाषा को अपनाने की प्रक्रिया तेज हुई। मेगस्थनीज के विवरण में यह उल्लेख मिलता है कि मौर्य दरबार की कई परंपराएं फ़ारसी दरबार से मिलती-जुलती थीं। मध्यकाल में जब तुर्क और अफ़ग़ान शासकों ने भारत पर आक्रमण किया, तो फ़ारसी को शासकीय भाषा बना दिया गया। यह सिलसिला मुग़ल काल तक जारी रहा। फ़ारसी कविता, गद्य और इतिहासलेखन की परंपरा भारत में गहराई से जुड़ गई। अरामी लिपि, जो कि अचमेनिड साम्राज्य की राजकीय लिपि थी, उसे फारसी अधिकारियों ने भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में लाया। खरोष्ठी लिपि विशेषतः गांधार क्षेत्र में विकसित हुई और यह दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी, जो अरामी लिपि की विशेषता है। इस लिपि का प्रयोग बौद्ध ग्रंथों और शिलालेखों में विशेष रूप से हुआ। फ़ारसी भाषा के शब्द हिंदी-उर्दू सहित कई भारतीय भाषाओं में शामिल हो गए — जैसे ‘किताब’, ‘दफ़्तर’, ‘तारिख़’, ‘मंज़िल’ आदि। मौर्य प्रशासन की पदावली और कर व्यवस्था में भी फ़ारसी शब्दों का प्रयोग दिखाई देता है। यह प्रभाव 8वीं शताब्दी के बाद अधिक बढ़ा, जब अरबों और तुर्कों के साथ फ़ारसी भाषी समुदाय भारत आए।
भारतीय वास्तुकला पर फ़ारसी छाप
फ़ारसी वास्तुकला ने भारतीय स्थापत्य को कई स्तरों पर प्रभावित किया। मौर्य काल की राजप्रासाद शैली पर फ़ारसी प्रभाव की चर्चा विद्वान डी.बी. स्पूनर ने की है। उन्होंने मौर्य भवनों की योजना और सजावट की तुलना पर्सेपोलिस के महलों से की। अशोक के स्तंभों पर दिखने वाली बेल-बूटों की नक्काशी और घंटीनुमा शीर्ष फारसी-पार्थियन मूल की मानी जाती है। इस्लामिक युग में, चारबाग प्रणाली — जो चार भागों में बंटे उद्यान का स्वरूप है — पूरी तरह फ़ारसी मूल की है। फ़ारसी वास्तुकला में गुम्बदों, मेहराबों, और बेलनाकार स्तंभों का प्रचलन मुग़ल युग में चरम पर पहुँचा। लखनऊ में स्थित 'छोटा इमामबाड़ा' और 'बड़ा इमामबाड़ा' जैसे स्थापत्य भी इंडो-फ़ारसी शैली के उदाहरण हैं, जिनमें फ़ारसी नक्काशी, आयतें और स्थापत्य अवधारणाएं सम्मिलित हैं। इनमें की गई चूने की नक्काशी और रंगीन कांच का उपयोग फारसी कला की विशिष्ट पहचान है। मुग़ल काल में यह प्रभाव और स्पष्ट हुआ। बाबर के आगमन के साथ ही फ़ारसी स्थापत्य शैली भारत में नए रूपों में विकसित हुई। गुंबद, मेहराबें, चारबाग बागवानी, और नक्काशी के जो तत्व मुग़ल इमारतों में दिखते हैं, वे फ़ारसी विरासत के द्योतक हैं।

मध्यकालीन भारत में फ़ारसी सांस्कृतिक प्रभाव
1206 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद, फ़ारसी भारत में शासकीय और सांस्कृतिक भाषा बन गई। महमूद ग़ज़नवी से लेकर लोधियों तक, सभी शासकों ने फ़ारसी कवियों, विद्वानों और इतिहासकारों को संरक्षण दिया। इस युग में फ़ारसी साहित्य का स्वर्ण युग देखा गया। दिल्ली, लाहौर और हैदराबाद जैसे नगर फ़ारसी साहित्य और विद्वत्ता के केंद्र बन गए। फ़ारसी दरबारी कविता, इतिहासलेखन (तारीख), धार्मिक ग्रंथों और दस्तावेज़ों ने भारतीय इतिहास को समृद्ध किया। संत कवि अमीर ख़ुसरो ने फ़ारसी और हिन्दवी का सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया। उनकी रचनाएँ भारत में फ़ारसी भाषा की लोकप्रियता और स्थानीय भाषाओं के साथ उनके संगम की मिसाल हैं। फ़ारसी ने न केवल शासकीय कार्यों में स्थान पाया, बल्कि धार्मिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक लेखन की मुख्य भाषा भी बन गई। सल्तनत काल के अनेक प्रमुख दस्तावेज जैसे ‘तारीख-ए-फिरोजशाही’ और ‘तबकात-ए-नासिरी’ फ़ारसी में लिखे गए। फ़ारसी ने शेर-ओ-शायरी की एक परंपरा को जन्म दिया, जो सूफी मत से भी जुड़ी थी। अमीर ख़ुसरो, निज़ामी और मुल्ला दाऊद जैसे कवियों ने फ़ारसी और स्थानीय भाषा के मिश्रण से नए काव्य रूपों की रचना की। लखनऊ, जो बाद में अवध राज्य की राजधानी बना, वहाँ के नवाबों ने फ़ारसी कविता, नज़्म और ग़ज़ल परंपरा को संरक्षण दिया, जिसने शहर को साहित्यिक केंद्र में बदल दिया।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/47c4cmmm