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लखनऊ जैसे तेजी से बढ़ते शहरों में, जहां हर कोने पर नई इमारतें खड़ी हो रही हैं और हर दिन सड़कों पर गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीं इन विकासशील संरचनाओं के बीच कुछ ऐसे प्राणी भी हैं जो वर्षों से हमारे साथ रह रहे हैं – वन्यजीव। कभी जंगलों में विचरण करने वाले जानवर अब शहरों में रहने को मजबूर हैं। शहरीकरण की तेज़ रफ्तार न केवल उनके आवास को खत्म कर रही है, बल्कि उन्हें हमारी जीवनशैली के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए भी विवश कर रही है। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे बंदर, चूहे, कबूतर और अन्य जानवर शहरों में जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और कहीं-कहीं पर उन्होंने अद्भुत अनुकूलन भी किया है। शहरीकरण का विस्तार केवल इमारतों और सड़कों का विकास नहीं है, यह जीवों की दुनिया में भारी उथल-पुथल लाता है।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि कैसे वन्यजीव शहरों के वातावरण में पारिस्थितिक अनुकूलन करते हैं। फिर बात करेंगे भारत में विशेष रूप से बंदरों और मनुष्यों के बीच बने अनोखे सह-अस्तित्व की, उसके बाद उन जीवों की चर्चा होगी जो शहरी जीवन के प्रतीक बन चुके हैं – जैसे रैकून, चूहे और कबूतर। साथ ही, जानवरों के लिए शहरी जीवन में छिपे खतरों और अवसरों को भी समझेंगे। अंत में, जैव विविधता पर शहरीकरण के वैज्ञानिक प्रभावों का विश्लेषण करेंगे।
शहरीकरण और वन्यजीवों के पारिस्थितिक अनुकूलन की प्रक्रिया
शहरों के फैलाव के साथ वन्यजीवों को नए पारिस्थितिकी तंत्र में स्वयं को ढालने के लिए विवश होना पड़ा है। बंदर जैसे जानवर जो पहले जंगलों में रहते थे, अब मानव बस्तियों में आकर खाने की तलाश करने लगे हैं। इसी तरह रैकून (Raccoon) जैसे जानवरों ने कूड़ेदानों से खाना निकालने की आदत बना ली है, और शहरी जीवन में अपनी बुद्धिमानी का प्रदर्शन किया है। पेरेग्रीन बाज़ (Peregrine falcons) ने ऊँची-ऊँची इमारतों को पहाड़ों की तरह अपना घर बना लिया है। चूहे और कबूतर तो अब लगभग हर शहर का स्थायी हिस्सा बन चुके हैं।
इन जानवरों ने भले ही सतही तौर पर शहर में रहना सीख लिया हो, लेकिन इसके लिए उन्हें अपने व्यवहार, आहार और आवास की प्रकृति में कई परिवर्तन करने पड़े। जहां बंदर अब मनुष्यों के भोजन पर निर्भर हो चुके हैं, वहीं कबूतरों ने शहर की इमारतों को अपने घोंसले बनाने की जगह बना लिया है। यह अनुकूलन एक प्रकार से उनके लिए अनिवार्यता बन चुका है, क्योंकि उनके पारंपरिक आवास या तो समाप्त हो चुके हैं या मानवीय गतिविधियों से अतिक्रमित।
बंदर और मानव सह-अस्तित्व: भारत में एक अनूठा संबंध
भारत के शहरों में बंदर और मानवों के बीच का रिश्ता जटिल होते हुए भी धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से गहराई लिए होता है। दिल्ली जैसे शहरों में बंदरों की संख्या लगभग 30,000 तक पहुँच चुकी है, जहां वे खाने से लेकर चश्मा और मोबाइल तक चुराने के लिए कुख्यात हैं। लोगों के जीवन में उनका हस्तक्षेप इतना बढ़ चुका है कि कई बार ये खतरनाक साबित होते हैं।
इन्हें नियंत्रित करने के लिए सरकार ने लंगूरों को प्रशिक्षित करके बंदरों को डराने का काम सौंपा है, विशेषकर 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान 38 हनुमान लंगूरों का प्रयोग किया गया। धार्मिक दृष्टिकोण से हनुमान जी से जुड़ा होने के कारण बंदरों और लंगूरों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। परंतु वास्तविकता यह है कि बंदरों की यह बढ़ती संख्या शहरी पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ रही है। फिर भी उनका दैवीय दर्जा उन्हें संरक्षण देता है, जिससे मनुष्यों और बंदरों के बीच सह-अस्तित्व संभव हो पाया है – भले ही वह अस्थायी हो।
रैकून, कबूतर और चूहे: शहरी जीवन के नए विजेता
रैकून, चूहे और कबूतर शहरी जीवन के सबसे अनुकूल जीवों में गिने जाते हैं। रैकून, विशेषकर अमेरिका में, शहरों के कूड़ेदानों से भोजन प्राप्त करने के लिए प्रसिद्ध हैं। अध्ययन बताते हैं कि शहरी रैकून अपने जंगली समुदाय की तुलना में अधिक बुद्धिमान हो चुके हैं, क्योंकि उन्हें भोजन पाने के लिए जटिल समस्याएँ हल करनी पड़ती हैं।
चूहे मानव इतिहास में शहरी जीवन के साथ गहराई से जुड़े रहे हैं। अमेरिका में हर साल अनुमानतः 21 मिलियन घरों में चूहों का प्रवेश होता है। वे भोजन, गर्मी और आश्रय की तलाश में शहरों में तेजी से फैलते हैं। कबूतरों की बात करें तो उन्हें “आकाश का चूहा” भी कहा जाता है। शहरी इमारतें उनके लिए घोंसले बनाने की उत्तम जगह हैं और मनुष्यों द्वारा फेंका गया भोजन उनका मुख्य आहार है। यह अनुकूलन ही है जिसने इन्हें शहरों के 'विजेता' बना दिया है – जहां इंसानों को उनका बोझ सहना पड़ता है।
इन जीवों की अत्यधिक संख्या कई बार स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को जन्म देती है – जैसे चूहों से फैलने वाली बीमारियाँ (जैसे हेंटा वायरस), या कबूतरों की बीट से फंगल संक्रमण। रैकून भी कभी-कभी आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं, खासकर जब वे अपने बच्चों की रक्षा करते हैं। फिर भी, ये जीव शहरी पारिस्थितिकी के एक अभिन्न और अनिवार्य भाग बन चुके हैं।
शहरीकरण और जैव विविधता में गिरावट का वैज्ञानिक विश्लेषण
शहरीकरण का सबसे बड़ा और दीर्घकालिक प्रभाव जैव विविधता में गिरावट के रूप में सामने आता है। जब कोई जंगल कंक्रीट में बदलता है, तो वहाँ की सैकड़ों प्रजातियाँ या तो विलुप्त हो जाती हैं या विस्थापित। इससे पारिस्थितिक संतुलन टूटता है और एक पूरा खाद्य जाल (food web) प्रभावित होता है।
शहरों में जैव विविधता की हानि केवल जीवों की संख्या तक सीमित नहीं रहती, यह पारिस्थितिक सेवाओं को भी बाधित करती है – जैसे कीट नियंत्रण, परागण, जल शुद्धिकरण और मृदा उर्वरता। वैज्ञानिक अध्ययनों में यह स्पष्ट हुआ है कि शहरी क्षेत्रों में विविधता कम होने से पूरे क्षेत्र की पारिस्थितिकी अस्थिर हो जाती है। अतः यह आवश्यक है कि हम शहरों में विकास के साथ-साथ जैव विविधता को बचाने के उपाय करें – जैसे हरित गलियारे (green corridors), पार्क, और वन्यजीवों के लिए सुरक्षित क्षेत्र।
विश्व स्तर पर कई शहरों ने ‘बायोडायवर्सिटी इंडेक्स’ बनाना शुरू कर दिया है, जो स्थानीय प्रशासन को यह मापने में मदद करता है कि उनकी नीतियाँ जैव विविधता को कितना प्रभावित कर रही हैं। भारत में भी हैदराबाद और पुणे जैसे शहर इस दिशा में प्रयासरत हैं। यदि शहरी विकास और प्रकृति के बीच संतुलन नहीं बनाया गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ केवल किताबों में जीव विविधता को पढ़ पाएंगी।
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