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लखनऊ की संकरी गलियों से गुजरते हुए जब किसी पुरानी हवेली या कोठी की खिड़की पर उकेरी गई लकड़ी की नक्काशी नज़र आती है, तो मन बरबस ठहर जाता है। यह शहर, जो नवाबी तहज़ीब और शिल्प की बारीकी के लिए जाना जाता है, आज भी अपनी इमारतों में उस बीते दौर की छाप संजोए हुए है। लखनऊवासियों के लिए ये दरवाज़े और खिड़कियाँ केवल वास्तु नहीं, बल्कि यादों की वो चौखटें हैं जो बीते कल से वर्तमान को जोड़ती हैं। लकड़ी के हस्तशिल्प को बचाने में लखनऊ की यह ऐतिहासिक भागीदारी अपने-आप में अनमोल है। इन नक्काशीदार दरवाज़ों और खिड़कियों के पीछे सिर्फ़ लकड़ी नहीं, बल्कि सदियों पुरानी शिल्प परंपरा, कारीगरों की पीढ़ियों का कौशल और नवाबी ज़माने की कलात्मक संवेदना समाई हुई है। जब इन पर सूरज की किरणें पड़ती हैं, तो ये दरवाज़े मानो कहानियाँ सुनाते हैं—किसी बेगम की परछाई, किसी मुंशी की दस्तक या किसी कारीगर की हथौड़ी की थाप। लखनऊ की इमारतों के ये तत्व केवल स्थापत्य का हिस्सा नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक स्मृति के प्रतीक हैं। आज जबकि आधुनिक निर्माण शैली और सामग्रियाँ तेज़ी से पुरानी कारीगरी को विस्थापित कर रही हैं, तब लखनऊ जैसे शहरों की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। यह शहर न केवल इस शिल्प को पहचान देता है, बल्कि इसे जीवित रखने के लिए आवश्यक सांस्कृतिक ज़मीन भी तैयार करता है। जब तक लखनऊ की गलियाँ सांस लेती रहेंगी, तब तक इन लकड़ी की चौखटों से होती हुई विरासत की गंध भी बनी रहेगी।
इस लेख में हम पढ़ेंगे कि लखनऊ की पुरानी इमारतों में लकड़ी की नक्काशी कैसे एक सांस्कृतिक पहचान है। हम जानेंगे भारत में लकड़ी शिल्प की ऐतिहासिक यात्रा को, चर्चा करेंगे इसकी पर्यावरणीय विशेषताओं पर, और देखेंगे देश के प्रमुख शिल्पों जैसे सांखेडा, पिंजरा कारी और निर्मल वर्क की झलक। साथ ही, हम समझेंगे उत्तर भारत की पारंपरिक काष्ठकला परंपराएँ और जानेंगे उन आधुनिक चुनौतियों को, जो इस विरासत को संकट में डाल रही हैं।

लखनऊ की गलियों में जीवित लकड़ी की विरासत और उसकी शहरी स्मृति
लखनऊ की तंग गलियों में जब आप चौक, नक्खास या अमीनाबाद जैसे इलाकों से गुजरते हैं, तो कई पुरानी हवेलियाँ और कोठियाँ अब भी दीवारों पर अपनी कहानियाँ लिए खड़ी मिलती हैं। इनमें मौजूद लकड़ी की जालीदार खिड़कियाँ, हाथ से तराशे गए दरवाज़े, और बेलबूटों की नक़्क़ाशी आज भी उस दौर की गवाही देते हैं, जब कारीगरी केवल पेशा नहीं, शान हुआ करती थी। खिड़कियों पर की गई बारीक जाली न केवल प्रकाश और हवा का नियंत्रक थी, बल्कि पर्दादारी के साथ-साथ सुंदरता का भी माध्यम मानी जाती थी। दरवाज़ों पर बने हाथी, मोर, फूल और धार्मिक चिन्ह दर्शाते हैं कि हर घर की अपनी एक सांस्कृतिक और आत्मिक पहचान होती थी। आज भले ही कंक्रीट के मकानों और आधुनिक डिज़ाइन ने जगह ले ली हो, लेकिन लखनऊ के कुछ मोहल्लों में यह विरासत अब भी साँसें ले रही है। यह केवल वास्तुशिल्प नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक इतिहास और स्मृति की जीवंत झलक है, जिसे लखनऊवासियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी संजोकर रखा है। इन दरवाज़ों के पीछे की कहानियाँ, रीति-रिवाज और पारिवारिक परंपराएँ आज भी बुज़ुर्गों की स्मृतियों में जीवित हैं। इन्हीं खिड़कियों के पीछे कभी कोई शहनाई बजती थी, कोई नवाब अपनी बैठक लगाता था—यह सब कुछ आज भी लकड़ी की इन कलाकृतियों में चुपचाप बसा हुआ है।
भारत में लकड़ी के हस्तशिल्प की ऐतिहासिक यात्रा: वैदिक काल से मध्यकाल तक
भारत में लकड़ी शिल्प की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं। वैदिक काल में लकड़ी का उपयोग केवल रचनात्मकता के लिए नहीं, बल्कि धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए होता था। रथ, यज्ञ मंडप, पूजा स्तंभ, और घर के ढांचे लकड़ी से ही बनाए जाते थे, जिनका उल्लेख ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में लकड़ी के ढांचों के अवशेष और उनके आधार पर रखे गए पत्थर दर्शाते हैं कि उस युग में भी यह कला विकसित थी। मौर्य काल में शिल्प राजसी संरक्षण में आया, जहाँ अशोक स्तंभों की नींव में भी लकड़ी की शिल्पकला का आधार माना गया। गुप्त काल में मंदिरों के तोरण, छज्जे, और देवमूर्तियों की आवरण तक लकड़ी से तैयार किए जाते थे। मध्यकाल आते-आते यह शिल्प धार्मिक संस्थानों, राजमहलों और आम जनजीवन में एक गहरे स्तर पर रच-बस गया था। लकड़ी, उपयोगिता के साथ-साथ प्रतीकात्मकता की वस्तु भी बन चुकी थी। दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी लकड़ी से बनी मूर्तियाँ और द्वार इस ऐतिहासिक यात्रा की गवाही देते हैं। इसके साथ ही, हस्तशिल्प का सामाजिक मूल्य भी बढ़ा—यह न केवल सुंदरता का प्रतीक था, बल्कि समाज की जातीय और धार्मिक पहचान का भी हिस्सा बन गया।

उत्तर भारत में नगीना, लखनऊ और सहारनपुर की काष्ठकला परंपराएँ
उत्तर भारत, विशेषकर उत्तर प्रदेश, लकड़ी के शिल्प की विशिष्ट परंपराओं का केंद्र रहा है। सहारनपुर की नक्काशी को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त है, जहाँ हाथ से तराशे गए फूल, बेलबूटे और जालीदार डिज़ाइन अब घरेलू सजावट का अहम हिस्सा बन चुके हैं। लखनऊ, जो वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, वहाँ के दरवाज़े और खिड़कियाँ पुराने शिल्प की जीवंत मिसाल हैं। नगीना का शिल्प खास तौर पर आबनूस लकड़ी पर जटिल नक्काशी के लिए जाना जाता है। यहाँ के कारीगर पारंपरिक डिज़ाइनों को आधुनिक उत्पादों जैसे पेन स्टैंड, ट्रे और छोटे बॉक्स पर उतारते हैं। इन शहरों में यह शिल्प केवल व्यवसाय नहीं, बल्कि कारीगरों की पहचान और आत्मगौरव का हिस्सा है, जो अब आधुनिक बाज़ार की माँगों के अनुरूप बदल रहा है। आज इन क्षेत्रों में कई स्वयंसेवी संगठन और डिज़ाइन संस्थान स्थानीय शिल्पियों को डिज़ाइन सोच, ऑनलाइन विपणन और नवाचार से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं। यह समावेशी प्रयास कारीगरों को न केवल आर्थिक रूप से सशक्त कर रहा है, बल्कि परंपरा को नए युग से जोड़ने की राह भी खोल रहा है।

पर्यावरणीय दृष्टिकोण से लकड़ी के शिल्प का महत्व
लकड़ी के हस्तशिल्प न केवल सांस्कृतिक संपत्ति हैं, बल्कि पर्यावरण के लिए भी लाभकारी हैं। इनमें प्रयुक्त कच्चे माल जैसे शीशम, सागौन, साल, आबनूस आदि नवीकरणीय संसाधन हैं। इनके जैव–विघटनशील (Biodegradable) गुणों के कारण ये पर्यावरण में किसी भी प्रकार का स्थायी प्रदूषण नहीं फैलाते। इन शिल्पों की सजावट और रंगाई में पारंपरिक रूप से हल्दी, सिंदूर, लाख और प्राकृतिक रेज़िन जैसे तत्वों का उपयोग होता था, जिससे ये उत्पाद न केवल देखने में आकर्षक, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सुरक्षित होते थे। आधुनिक समय में जहां प्लास्टिक और सिंथेटिक रंगों ने बाज़ार पर कब्जा कर लिया है, वहाँ लकड़ी शिल्प पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदार विकल्प के रूप में उभर रहे हैं। यदि इन उत्पादों को स्थानीय स्तर पर ही खरीदा जाए, तो यह न केवल कार्बन फुटप्रिंट को घटाता है, बल्कि कारीगरों की आजीविका को भी सशक्त करता है। यह हस्तशिल्प भारतीय जीवनशैली में ‘स्थिरता’ (sustainability) की उस भावना को मजबूत करता है जो आज की वैश्विक जलवायु चुनौतियों से निपटने में मददगार हो सकती है।

आधुनिक चुनौतियाँ और हस्तशिल्प की गिरती लोकप्रियता के कारण
आज की मशीन-प्रधान दुनिया में पारंपरिक लकड़ी शिल्प समय, मेहनत और लागत की कसौटी पर अक्सर पीछे छूट जाता है। बड़े-बड़े निर्माण प्रोजेक्ट्स में सस्ता और तेज़ विकल्प चुना जाता है, जिससे हाथ की नक्काशी जैसे कौशल को नुकसान होता है। इसके साथ ही, कच्चे माल की बढ़ती कीमतें, परिवहन की दिक्कतें और उपभोक्ता की ‘फास्ट फैशन’ सोच शिल्प को संकट में डाल रही हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी में इस क्षेत्र को लेकर रुचि की कमी और औपचारिक प्रशिक्षण संस्थानों की अनुपलब्धता भी एक बड़ी चुनौती है। वहीं दूसरी ओर, डिज़ाइनरों और नीतिकारों के सहयोग से इस शिल्प को पुनर्जीवित करने के प्रयास भी हो रहे हैं, लेकिन यह अभी भी मुख्यधारा से दूर है। सरकारी योजनाओं, GI टैग जैसे कानूनी संरक्षण और वैश्विक बाज़ारों में ब्रांडिंग से इस संकट से निपटा जा सकता है। लखनऊ जैसे शहर में, जहाँ हर कोना किसी हस्तशिल्प की कहानी कहता है, वहाँ यह गिरावट केवल एक कला का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान का संकट बन चुकी है।
संदर्भ-