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लखनऊ, जहाँ की गलियाँ अदब और तहज़ीब से गूंजती हैं, वहाँ का हर कोना अपने सांस्कृतिक अतीत को संजोए हुए है। चाहे वह नवाबों के दौर की शतरंज की बिसात हो या मोहल्लों में बिछे चौपड़ के पट्टे, लखनऊवासियों के जीवन में खेल सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि संवाद, विरासत और सामूहिकता के प्रतीक रहे हैं। हाल के वर्षों में, विशेषकर लॉकडाउन के दौरान, जब लोग घरों में सीमित हो गए थे, तब लखनऊ में एक नया चलन उभरा—पुराने बोर्ड गेम्स की ओर वापसी। इस वापसी में सिर्फ़ खेल ही नहीं लौटे, बल्कि साथ लौटीं वे शामें, जिनमें लोग एक-दूसरे के पास बैठकर हँसते, जीतते, हारते और जुड़ते थे।
आज हम इस लेख में चार अहम पहलुओं को विस्तार से समझेंगे—पहला, कि लॉकडाउन के दौरान पारंपरिक बोर्ड गेम्स की लोकप्रियता में कैसे इज़ाफ़ा हुआ। दूसरा, साँप-सीढ़ी जैसे खेलों की भारतीय जड़ों और उनके जीवन-दर्शन से जुड़ाव को जानेंगे। तीसरा, लखनऊ में पट्ट खेलों की ऐतिहासिक परंपरा और नवाबी दौर में उनके महत्त्व की चर्चा करेंगे। और अंत में, यह समझेंगे कि आज के डिजिटल युग में स्वचालन और ऐप्स इन पारंपरिक खेलों को कैसे एक नए रूप में ढाल रहे हैं।
लॉकडाउन के बाद बोर्ड गेम्स की लोकप्रियता में आई नई लहर
कोविड-19 लॉकडाउन ने दुनियाभर की जीवनशैली को बदल दिया। जब बाहर निकलना मना था और तकनीक ही जीवन का माध्यम बन गई थी, तब एक दिलचस्प परिवर्तन देखने को मिला—लोगों ने बोर्ड गेम्स की ओर वापसी की। लखनऊ जैसे सांस्कृतिक शहर में जहाँ परिवार एक साथ समय बिताने को तरस रहे थे, वहाँ लूडो, कैरम, मोनोपॉली और स्क्रैबल जैसे खेलों ने फिर से अपनी जगह बना ली।
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर लूडो और कैरम जैसे ऐप्स ने जबरदस्त डाउनलोड्स दर्ज किए। ट्रैकर ऐप्स के आँकड़ों के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान भारत गेम डाउनलोड्स में विश्व स्तर पर शीर्ष पर रहा। यह देखा गया कि पारंपरिक बोर्ड गेम्स, जिनके लिए न महंगे हार्डवेयर चाहिए, न ही तेज़ इंटरनेट, एक बार फिर सामाजिक संपर्क का जरिया बन गए। स्नैपडील, पेटीएम मॉल जैसे ऑनलाइन स्टोर्स पर इनकी बिक्री में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई। बोर्ड गेम्स के डिजिटलीकरण ने जहाँ नियमों के पालन और स्कोरिंग जैसी चीज़ों को आसान किया, वहीं खेल के सामाजिक और भावनात्मक पक्ष को भी फिर से केंद्र में ला दिया।
साँप-सीढ़ी: भारतीय मूल और जीवन दर्शन से जुड़ी एक सीख
आज जिसे हम "स्नेक एंड लैडर" के नाम से जानते हैं, उसकी जड़ें 13वीं सदी के भारत में हैं। संत कवि ज्ञानदेव द्वारा बनाए गए इस खेल का नाम पहले "मोक्षपथ" था। यह केवल एक खेल नहीं था, बल्कि बच्चों और बड़ों दोनों के लिए जीवन और धर्म की शिक्षा देने वाला माध्यम था। खेल के हर अंक में नैतिक मूल्य छुपा होता था—सीढ़ियाँ अच्छाई और साँप बुराई का प्रतीक थीं। खेल के विशेष बिंदुओं पर लिखे गए अंक जैसे 12 (आस्था), 57 (उदारता), 76 (ज्ञान) और 78 (वैराग्य) दर्शाते हैं कि कैसे अच्छे कर्म व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाते हैं। वहीं साँपों के स्थानों—जैसे 49 (स्थूलता), 58 (विश्वासघात), 84 (गुस्सा) और 99 (चाह)—से यह समझ आता है कि बुरे कर्म व्यक्ति को पीछे ले जाते हैं। 100वाँ स्थान ‘मोक्ष’ का प्रतीक था। यह खेल एक तरह से भारतीय दर्शन में कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष की अवधारणाओं को सहज और रोचक तरीक़े से समझाने का माध्यम था, जिसे आज के युग में मनोरंजन तक सीमित कर दिया गया है।
लखनऊ और पारंपरिक पट्ट खेलों की ऐतिहासिक परंपरा
लखनऊ, जहाँ जीवन की हर शैली में नवाबी ठाठ नजर आता है, वहाँ खेल भी शुद्ध कला और शान का रूप थे। 18वीं और 19वीं शताब्दी के दस्तावेज़ों और यात्रावृत्तांतों में दर्ज है कि यहाँ के नवाबों और अमीरों को शतरंज, चौपड़ और साँप-सीढ़ी जैसे पट्ट खेलों में विशेष रुचि थी। ये सिर्फ़ खेल नहीं थे, बल्कि सामाजिक चर्चा, राजनीति और रणनीति का अभ्यास भी माने जाते थे। शतरंज की बिसात लखनऊ के ज़ेवर की तरह थी। यहाँ के कारीगर हाथी-दाँत से बनाए गए शतरंज के मोहरों में अद्भुत नक्काशी किया करते थे। इन खेलों के ज़रिए आपसी रिश्ते गहरे होते थे, और सामाजिक संबंध मज़बूत बनते थे। लखनऊ के ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि ये खेल मोहल्लों की छतों, चौपालों और बैठकख़ानों का हिस्सा थे, जहाँ फुर्सत में लोग बैठकर मन की बातों के साथ खेल की बिसात भी बिछाते थे। आज भी लखनऊ के पुराने इलाक़ों में कैरम बोर्ड और चौपड़ के खेलों की गूंज सुनाई देती है।
डिजिटल स्वचालन और पारंपरिक खेलों का भविष्य
आज जब लगभग हर चीज़ डिजिटल हो रही है, बोर्ड गेम्स भी इससे अछूते नहीं रहे। डिजिटल टेबलटॉप, मोबाइल ऐप्स और ऑनलाइन मल्टीप्लेयर गेम्स ने पारंपरिक खेलों को एक नए मंच पर पहुँचा दिया है। लखनऊ जैसे शहरों में जहाँ तकनीक तेजी से घर-घर पहुँच रही है, वहाँ इन ऐप्स ने पुरानी पीढ़ियों और नई पीढ़ियों के बीच एक पुल का काम किया है। हालांकि स्वचालन (automation) से गेमप्ले अधिक व्यवस्थित और तेज़ हो गया है, लेकिन इससे खिलाड़ी की सहभागिता और जागरूकता पर असर पड़ सकता है। कुछ मामलों में खिलाड़ी को खेल पर नियंत्रण कम महसूस होता है। फिर भी, डिजिटल बोर्ड गेम्स ने सामाजिक संपर्क को कम नहीं किया, बल्कि एक नए रूप में प्रस्तुत किया है—जहाँ दूर रहकर भी लोग एक साथ खेल सकते हैं। अब जब ये खेल मोबाइल स्क्रीन पर सुलभ हैं, तो लखनऊ की गलियों से निकलकर ये पारंपरिक बिसातें नए डिजिटल गलियारों में जगह बना रही हैं।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2s3kt3kt
https://tinyurl.com/ybdu4tbj
https://tinyurl.com/5h4n7n6w
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