लखनऊ में राखी के धागे: परंपरा, प्रेम और पौराणिकता का सांस्कृतिक संगम

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लखनऊ में राखी के धागे: परंपरा, प्रेम और पौराणिकता का सांस्कृतिक संगम

लखनऊवासियों, हमारे शहर की तहज़ीब सिर्फ इमारतों, इत्र और अदब में नहीं, बल्कि त्योहारों की आत्मा में भी बसती है। रक्षाबंधन का पर्व लखनऊ की इसी गंगा-जमुनी संस्कृति का एक अहम प्रतीक है, जहाँ बहनें रक्षासूत्र बाँधते समय केवल परंपरा नहीं निभातीं, बल्कि भाई-बहन के प्रेम, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विरासत को भी जीवंत करती हैं। इस लेख में हम रक्षाबंधन के पौराणिक उल्लेखों और श्रावण पूर्णिमा से जुड़ी इसकी वैदिक जड़ों को समझेंगे। फिर, कृष्ण-द्रौपदी, यम-यमुना और बलि-लक्ष्मी जैसी कथाओं से जुड़ी लोकआस्थाओं का विश्लेषण करेंगे। साथ ही इस पर्व के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों पर भी विचार करेंगे, जिसमें मुंहबोले रिश्तों और सौहार्द्र की भूमिका शामिल है। इसके अतिरिक्त हम भारत के विभिन्न राज्यों में रक्षाबंधन की विविध परंपराओं, जैसे झूलन पूर्णिमा, नारियल पूर्णिमा और कजरी पूर्णिमा, की भी चर्चा करेंगे और यह देखेंगे कि लखनऊ में कैसे ये विविधताएं एकाकार होती हैं। लेख का अंतिम भाग रक्षाबंधन के वैदिक मंत्रों, यज्ञोपवीत संस्कार और कृषि-पर्यावरण से इसके संबंध को उजागर करेगा, जो लखनऊ जैसे सांस्कृतिक नगर की व्यापक सामाजिक चेतना को दर्शाता है।

इस लेख में हम सबसे पहले, हम पौराणिक कथाओं और भविष्य पुराण जैसे ग्रंथों में इसके उल्लेख को जानेंगे। फिर त्योहार के सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों की पड़ताल करेंगे, जहाँ यह केवल भाई-बहन का त्योहार नहीं बल्कि सामूहिक उत्तरदायित्व का प्रतीक भी बनता है। इसके बाद हम भारत के विभिन्न राज्यों में रक्षाबंधन की विविध परंपराओं का अवलोकन करेंगे जो इस पर्व को और समृद्ध बनाती हैं। फिर, हम जानेंगे कि कैसे यह पर्व कृषि, पर्यावरण और समाज के साथ भी गहराई से जुड़ा हुआ है। अंत में, हम इसके वैदिक और धार्मिक मूल की चर्चा करेंगे, जिसमें रक्षासूत्र और यज्ञोपवीत जैसी प्राचीन परंपराएं आज भी जीवित हैं।

पौराणिक कथाओं में रक्षाबंधन का उल्लेख और उसका महत्व
रक्षाबंधन की परंपरा केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि गहरे आध्यात्मिक और पौराणिक मूल्यों से भी जुड़ी हुई है। हमारे प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में रक्षाबंधन को केवल भाई-बहन के रिश्ते तक सीमित नहीं किया गया, बल्कि इसे जीवन की रक्षा, धर्म की विजय और सृष्टि की स्थिरता से जोड़ा गया है। भविष्य पुराण में इसका उल्लेख मिलता है, जहाँ देवी इंद्राणी द्वारा इंद्र की कलाई पर रक्षासूत्र बांधना देवताओं की विजय का आधार बना। महाभारत के प्रसंग में द्रौपदी और श्रीकृष्ण के बीच का संबंध इस बात का प्रमाण है कि यह पर्व केवल संबंधों का नहीं, बल्कि वचनबद्धता और कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक भी है। यम और यमुना की कथा जहाँ भाई-बहन के शाश्वत प्रेम को दर्शाती है, वहीं राजा बलि और माता लक्ष्मी की कथा इस पर्व को धर्म, दान और संरक्षण के व्यापक भाव से जोड़ती है। लखनऊ जैसे शहर, जहाँ पौराणिक परंपराएँ आज भी जीवंत हैं, वहाँ रक्षाबंधन केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि संस्कृति से जुड़ाव का माध्यम बन जाता है।

रक्षाबंधन का धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व
रक्षाबंधन भारतीय समाज की उस भावना का उत्सव है, जिसमें रिश्ते खून से नहीं, विश्वास और ज़िम्मेदारी से बनते हैं। लखनऊ की पुरानी गलियों से लेकर आधुनिक कॉलोनियों तक, इस दिन का माहौल एक विशेष अपनत्व से भर जाता है। बहनें भाइयों को राखी बाँधती हैं, मिठाई खिलाती हैं, और भाई जीवनभर उनकी रक्षा का वचन देते हैं। लेकिन अब यह पर्व पारंपरिक सीमाओं से आगे बढ़ चुका है, महिलाएँ अपने पड़ोसियों, सैनिकों, पुलिसकर्मियों, और यहाँ तक कि डॉक्टरों व सफाईकर्मियों की कलाई पर भी राखी बाँधती हैं। यह समाज में हर उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर बन गया है जो हमारी रक्षा करता है। लखनऊ जैसे सांस्कृतिक और बहुजन समाज वाले शहर में यह पर्व धार्मिक एकता, सामाजिक समरसता और भाईचारे का सजीव प्रतीक बन चुका है। यह एक ऐसा अवसर है, जहाँ स्त्री का सम्मान, पुरुष का दायित्व और समुदाय की साझी चेतना एक साथ दिखाई देती है।

भारत के विभिन्न राज्यों में रक्षाबंधन की क्षेत्रीय परंपराएं
रक्षाबंधन की विविधताएं भारत की सांस्कृतिक समृद्धि को दर्शाती हैं। हर राज्य, हर क्षेत्र इस पर्व को अपने रंग और रस में ढाल कर मनाता है। पश्चिम भारत में नारियल पूर्णिमा के रूप में समुद्र के देवता की आराधना होती है, जहाँ मछुआरे समुद्र में नारियल अर्पित कर सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। पूर्व भारत में झूलन पूर्णिमा के अवसर पर राधा-कृष्ण की झाँकियाँ सजाई जाती हैं और मंदिरों में भजन-कीर्तन होते हैं। मध्य भारत में कजरी पूर्णिमा किसानों के लिए विशेष है, जो फसलों की अच्छी उपज की कामना करते हैं। दक्षिण भारत में अवनि अवित्तम ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार होता है, जहाँ वे यज्ञोपवीत धारण कर जीवन के अगले चरण में प्रवेश करते हैं। ओडिशा की गाम्हा पूर्णिमा, उत्तराखंड की जंध्यम पूर्णिमा, गुजरात की पावित्रोपना, और जम्मू-कश्मीर में पतंगबाज़ी जैसे आयोजन इस पर्व की विविधता को और बढ़ाते हैं। लखनऊ जैसे बहु-सांस्कृतिक शहर में, जहाँ भारत के हर कोने से लोग आकर बसे हैं, वहाँ इन सब परंपराओं की झलक एक ही जगह पर मिल जाती है, यही इसकी खूबसूरती है।

रक्षाबंधन और कृषि, पर्यावरण तथा समाज
रक्षाबंधन केवल मानव रिश्तों का पर्व नहीं, बल्कि प्रकृति और पर्यावरण के साथ हमारे संबंधों की भी याद दिलाता है। श्रावण पूर्णिमा, जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है, वह कालखंड होता है जब मानसून अपने चरम पर होता है और किसान नए फसल चक्र की तैयारी करते हैं। कई जगहों पर इस दिन खेत, हल, बीज और जल स्रोतों की पूजा की जाती है, ताकि आने वाली फसलें समृद्ध हों। मछुआरे समुद्र और नदियों की पूजा कर अपनी सुरक्षा की कामना करते हैं। गाँवों में पेड़ों को राखी बाँधने की परंपरा भी आजकल फिर से प्रचलन में आ रही है, खासकर लखनऊ के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में। यह प्रकृति से हमारे रिश्ते की पुष्टि करता है और हमें याद दिलाता है कि रक्षा केवल इंसानों की नहीं, इस पूरी धरती की होनी चाहिए। इस तरह रक्षाबंधन एक सामाजिक चेतना और पर्यावरणीय जागरूकता का भी पर्व बन गया है।

रक्षाबंधन के धार्मिक मंत्र और वैदिक परंपरा
रक्षाबंधन की आत्मा उसके वैदिक मंत्रों और शुद्ध परंपराओं में निहित है। “येन बद्धो बलिराजा...” जैसे श्लोक सिर्फ उच्चारण नहीं हैं, बल्कि उनमें शक्ति, सुरक्षा और आशीर्वाद का सार छिपा होता है। प्राचीन भारत में यह पर्व यज्ञोपवीत के साथ मनाया जाता था, जो जीवन के धार्मिक और नैतिक अनुशासन की शुरुआत का प्रतीक था। आज भी लखनऊ की पुरानी संस्कृत पाठशालाएँ और मंदिरों में यह परंपरा जीवित है। वहां राखी बाँधने से पहले मंत्रों का उच्चारण, भूमि पूजन और गायत्री मंत्र का जाप किया जाता है। यह त्योहार हमें केवल एक-दूसरे की रक्षा नहीं, बल्कि धर्म, संस्कृति और मूल्य व्यवस्था की रक्षा का भी संकल्प लेने को प्रेरित करता है। इस तरह रक्षाबंधन न केवल भावनात्मक, बल्कि आध्यात्मिक और वैचारिक रूप से भी हमें समृद्ध करता है।

अंत में, रक्षाबंधन केवल राखी और मिठाई का पर्व नहीं, यह उस गहरे विश्वास, कर्तव्य और प्रेम का उत्सव है जो व्यक्ति को समाज, समाज को संस्कृति और संस्कृति को प्रकृति से जोड़ता है। लखनऊ जैसी विरासतभरी ज़मीन पर यह पर्व हर साल एक नए उत्साह, नई चेतना और परंपरा के गौरव के साथ लौटता है, हमें बस उसे समझने, सहेजने और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।

 शुभ रक्षाबंधन! 

संदर्भ-
https://tinyurl.com/mr3x39pf 

https://tinyurl.com/ywd5r6z5