वाकाटक साम्राज्य: प्राचीन भारत का भूला हुआ वैभव और सांस्कृतिक स्वर्णयुग

छोटे राज्य 300 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक
18-08-2025 09:35 AM
वाकाटक साम्राज्य: प्राचीन भारत का भूला हुआ वैभव और सांस्कृतिक स्वर्णयुग

लखनऊवासियों, जब हम प्राचीन भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर की चर्चा करते हैं, तो सबसे पहले गुप्त साम्राज्य का नाम बड़े गौरव के साथ लिया जाता है। किंतु उसी कालखंड में एक और ऐसा राजवंश था, जिसकी उपलब्धियों ने दक्षिण और मध्य भारत की मिट्टी को वैभव, कला और संस्कृति की नई ऊँचाइयों तक पहुंचाया। यह था वाकाटक साम्राज्य। तीसरी शताब्दी के मध्य में उभरे इस साम्राज्य ने केवल अपनी राजनीतिक शक्ति के बल पर इतिहास में स्थान नहीं बनाया, बल्कि कला, साहित्य, धर्म और स्थापत्य के क्षेत्र में जो योगदान दिया, उसने भारतीय संस्कृति को नई दिशा दी। वाकाटक शासकों के संरक्षण में जहाँ साहित्यकारों और कवियों ने प्राकृत और संस्कृत में अद्वितीय रचनाएँ दीं, वहीं उनके समय में बने अजंता की अद्भुत गुफाएँ आज भी विश्व धरोहर के रूप में हमारी समृद्ध कलात्मक परंपरा का जीवंत प्रमाण हैं। इस राजवंश का शासन केवल सत्ता तक सीमित नहीं था; यह उस समय का ऐसा युग था जब राजनीति और संस्कृति साथ-साथ विकसित हो रही थीं, और भारतवर्ष के बौद्धिक व आध्यात्मिक जीवन में नई चेतना का संचार हो रहा था।
इस लेख में हम वाकाटक साम्राज्य को पाँच प्रमुख पहलुओं में समझने का प्रयास करेंगे। सबसे पहले, हम इसके उद्भव और विस्तृत भू-सीमा पर चर्चा करेंगे। दूसरे भाग में, गुप्त साम्राज्य के साथ इसके घनिष्ठ संबंध और राजनीतिक प्रभाव को देखेंगे। तीसरे भाग में हम जानेंगे कि इस साम्राज्य ने किस प्रकार धार्मिक और सांस्कृतिक संरक्षण प्रदान किया। चौथे भाग में अजंता गुफाओं के निर्माण और कला के उत्कर्ष का उल्लेख होगा। अंत में, हम वाकाटक काल की भाषा, साहित्य और काव्य परंपरा को विस्तार से समझेंगे।

वाकाटक साम्राज्य की उत्पत्ति और भू-सीमा
वाकाटक साम्राज्य का उद्भव तीसरी शताब्दी के मध्य में दक्कन क्षेत्र में हुआ। इसकी नींव रखी थी विंध्यशक्ति नामक एक साहसी शासक ने, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में भी एक संगठित राज्य की कल्पना को साकार किया। इस समय भारत का राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा था, उत्तर में गुप्त साम्राज्य उभर रहा था और दक्षिण में छोटे-छोटे राज्य अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे। वाकाटक साम्राज्य ने इस उथल-पुथल में धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाई। इतिहासकार बताते हैं कि इस साम्राज्य का विस्तार विशाल था, उत्तर में मालवा और गुजरात के दक्षिणी किनारों तक, दक्षिण में तुंगभद्रा नदी तक, पश्चिम में अरब सागर के तटों तक और पूर्व में छत्तीसगढ़ के घने वनों तक। इतनी व्यापक भू-सीमा ने इसे एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बना दिया। विंध्यशक्ति के बाद उनके उत्तराधिकारी प्रवरसेन प्रथम ने साम्राज्य को और सुदृढ़ किया। उनके समय में कृषि, व्यापार और शिल्पकला का विकास हुआ, जिससे यह क्षेत्र आर्थिक रूप से समृद्ध हो गया। यही वह समय था जब वाकाटक साम्राज्य केवल एक भूभाग नहीं बल्कि एक सुसंगठित सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित हुआ।

गुप्त साम्राज्य के साथ संबंध और राजनीतिक प्रभाव
वाकाटक साम्राज्य की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह अपने समय के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य - गुप्त साम्राज्य - के समकालीन था। दोनों राज्यों के बीच न केवल राजनीतिक संपर्क थे बल्कि पारिवारिक रिश्ते भी बने। चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) की पुत्री का विवाह वाकाटक शाही परिवार में हुआ। इस विवाह ने दोनों राजवंशों के बीच एक गहरी मित्रता और विश्वास का संबंध पैदा किया। इस गठबंधन के चलते वाकाटक साम्राज्य को स्थिरता और सुरक्षा मिली, वहीं गुप्तों को पश्चिम भारत में शक क्षत्रपों पर विजय पाने में बड़ी मदद मिली। गुप्तों ने गुजरात क्षेत्र में अपने प्रभाव को मजबूत किया और इसके परिणामस्वरूप वाकाटक साम्राज्य को भी प्रतिष्ठा और सहयोग का लाभ मिला। यह संबंध उस युग का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे राजवंश आपसी सहयोग और सम्मान के आधार पर अपने प्रभाव को बढ़ा सकते थे। इन रिश्तों ने दोनों राज्यों की राजनीतिक शक्ति को और मजबूत किया और प्राचीन भारत में संतुलन बनाए रखा।

सांस्कृतिक और धार्मिक संरक्षण
वाकाटक साम्राज्य केवल सत्ता और युद्धों तक सीमित नहीं था; यह एक ऐसा राजवंश था जिसने संस्कृति और धर्म को संवारने में गहरी रुचि दिखाई। इन शासकों ने ब्राह्मण धर्म और वैदिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने में विशेष भूमिका निभाई। वैदिक यज्ञ जैसे अश्वमेध और वाजपेय का आयोजन कराकर उन्होंने धार्मिक जीवन को नये उत्साह से भर दिया। इस समय बड़ी संख्या में भूमि अनुदान दिए गए। ताम्रपत्रों में इन अनुदानों का उल्लेख मिलता है, जिनसे पता चलता है कि वाकाटक शासक विद्वानों और ब्राह्मणों का कितना सम्मान करते थे। लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि उनका दृष्टिकोण संकीर्ण नहीं था। उन्होंने बौद्ध धर्म को भी संरक्षण दिया। बौद्ध विहारों, गुफाओं और चैत्य निर्माण में उनकी भूमिका प्रमुख रही। धार्मिक सहिष्णुता और बहुलता की इस नीति ने उनके साम्राज्य को एक ऐसा स्वरूप दिया जहाँ विभिन्न मत-पंथ शांति से पनपते रहे। इस समय कला, संगीत, नृत्य और स्थापत्य में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई, जिससे यह युग सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद समृद्ध बन गया।

बोधिसत्व पद्मपानी, गुफा 1, अजंता

अजंता गुफाओं का निर्माण और कला का उत्कर्ष
जब वाकाटक सम्राट हरिसेन के शासनकाल की बात होती है, तो सबसे पहले अजंता की गुफाओं का नाम लिया जाता है। हरिसेन ने बौद्ध धर्म और कला, दोनों के संरक्षण के लिए अद्भुत कार्य किए। अजंता की प्रसिद्ध गुफाएँ, जो आज यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में हैं, उनके संरक्षण में ही बनवाई गईं।
इन गुफाओं में चट्टानों को काटकर चैत्य (पूजास्थल) और विहार (मठ) बनाए गए। गुफाओं की दीवारों और छतों पर बने भित्तिचित्र मानवीय भावनाओं, धार्मिक कथाओं और जीवन के विविध पहलुओं को जीवंत कर देते हैं। यहाँ बुद्ध के जीवन की घटनाएँ और जातक कथाएँ इतने सुंदर और विस्तार से अंकित हैं कि आज भी इन्हें देखकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इन चित्रों में 'टेम्परा' तकनीक का उपयोग किया गया, जिससे रंग सैकड़ों वर्षों बाद भी चमकदार बने हुए हैं। गुफा संख्या 16, 17 और 19 विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इस कला का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि मानव जीवन और संवेदनाओं को सुंदर रूप देना भी था।

भाषा, साहित्य और वाकाटक कालीन काव्य परंपरा
वाकाटक युग साहित्य और भाषा की दृष्टि से भी स्वर्णिम काल था। इस समय प्राकृत भाषा का व्यापक प्रयोग हुआ। संस्कृत की एक विशिष्ट शैली, जिसे वैदर्भी शैली कहा जाता है, इसी काल में फली-फूली। यह शैली अपनी कोमलता, सरलता और गहराई के लिए प्रसिद्ध थी। प्रवरसेन द्वितीय न केवल एक शासक थे बल्कि स्वयं एक प्रतिभाशाली कवि भी थे। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथ 'सेतुबंध' की रचना की। इसी तरह सर्वसेन ने 'हरिविजय' नामक महाकाव्य की रचना की। इन रचनाओं में भावनाओं की गहराई, प्रकृति की सुंदरता और जीवन के आदर्शों का अद्भुत चित्रण मिलता है। इस युग के साहित्य ने भारतीय संस्कृति को नई ऊर्जा दी और आने वाले समय के महान कवियों जैसे कालिदास और बाणभट्ट तक को प्रभावित किया।

संदर्भ-

https://short-link.me/1a4kF 

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