हमारे शहर लखनऊ की गोमती नदी और जलकुंभी की बढ़ती चुनौती

नदियाँ
25-09-2025 09:18 AM
हमारे शहर लखनऊ की गोमती नदी और जलकुंभी की बढ़ती चुनौती

लखनऊवासियो, हमारी गोमती नदी सिर्फ़ पानी का बहाव नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति और जीवन का प्रतीक है। सदियों से इस नदी ने हमें पीने का पानी, खेती के लिए सिंचाई, मछलियों के ज़रिए आजीविका और शहर को एक पहचान दी है। इसके किनारे बने घाट, मंदिर और बाग़-बग़ीचे लखनऊ की रौनक़ को और भी ख़ास बनाते हैं। लेकिन आज वही गोमती नदी एक बड़ी प्राकृतिक चुनौती से जूझ रही है, जो उसकी साँसें धीरे-धीरे रोक रही है। यह चुनौती है - जलकुंभी (Water Hyacinth) का अतिक्रमण। पहली नज़र में जलकुंभी हमें बेहद आकर्षक लगती है। इसके हरे-भरे चौड़े पत्ते और बैंगनी फूल देखने वालों का मन मोह लेते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि यह सुंदरता केवल दिखावा है। अंदर ही अंदर यह पौधा नदी की ज़िंदगी को खा रहा है। यह पानी की सतह पर इतनी मोटी चादर की तरह फैल जाता है कि नदी का पानी मानो हरे मैदान में बदल जाता है। इस परत के नीचे न तो सूरज की रोशनी पहुँच पाती है, न ही ऑक्सीजन (oxygen)। नतीजा यह होता है कि मछलियाँ और अन्य जलीय जीव दम तोड़ने लगते हैं। नदी का पानी सड़ने लगता है और बदबू फैल जाती है। सोचिए, जिस नदी ने हमें पीढ़ियों से जीवन दिया है, उसी नदी का दम अब जलकुंभी घोंट रही है। यह सिर्फ़ एक पौधा नहीं, बल्कि हमारी लापरवाही और प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा है। हमें यह समझना होगा कि यह समस्या केवल पर्यावरण की नहीं है, बल्कि हमारे स्वास्थ्य, हमारी आजीविका और आने वाली पीढ़ियों की सुरक्षा का सवाल भी है। इसलिए ज़रूरी है कि हम सब मिलकर गोमती को इस संकट से मुक्त करने की ठानें, ताकि यह नदी फिर से उसी तरह जीवनदायिनी बन सके जैसी यह हमारे पूर्वजों के लिए थी।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि जलकुंभी आखिर है क्या और यह भारत तक कैसे पहुँची। फिर देखेंगे कि यह जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को किस तरह नुकसान पहुँचाती है और इसका मानव जीवन व आजीविका पर क्या असर पड़ता है। इसके बाद गोमती सहित भारत की अन्य नदियों और झीलों की मौजूदा स्थिति पर चर्चा करेंगे। आगे बताएंगे कि इसे हटाने के पारंपरिक उपाय क्यों असफल रहे, और अंत में देखेंगे कि शोधकर्ता व संस्थाएँ इसके रचनात्मक उपयोग के लिए क्या संभावनाएँ तलाश रही हैं।

जलकुंभी क्या है और यह भारत में कैसे फैली
जलकुंभी (आइचोर्निया क्रैसिपेस - Eichhornia Crassipes) मूल रूप से ब्राज़ील (Brazil) की अमेज़न (Amazon) नदी से आई हुई पौध प्रजाति है। शुरुआत में इसे केवल एक सजावटी पौधे के रूप में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पहुँचाया गया था। इसके चौड़े चमकदार हरे पत्ते और आकर्षक बैंगनी फूल दूर से देखने पर बेहद सुंदर लगते हैं, इसलिए लोग इसे बगीचों और तालाबों में सजावट के लिए लगाते थे। लेकिन इसकी असली पहचान इसकी तेज़ प्रजनन क्षमता है। यह पौधा कुछ ही दिनों में अपनी संख्या कई गुना बढ़ा लेता है और पानी की सतह को पूरी तरह ढक देता है। यही वजह है कि इसे “आक्रामक प्रजाति” कहा जाता है। भारत में भी इसे पहले सजावटी पौधे के तौर पर लाया गया था, लेकिन यह धीरे-धीरे तालाबों, झीलों और नदियों में फैल गया। अब हालात यह हैं कि कई जगहों पर इसने स्थानीय जलीय पौधों को पूरी तरह से बाहर कर दिया है और मछलियों समेत अन्य जीवों के लिए जीवन संकट बन गया है।

जलकुंभी के कारण जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान
जलकुंभी का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह पानी की सतह पर मोटी परत बनाकर सूरज की रोशनी और हवा को नीचे जाने से रोक देती है। जब प्रकाश गहरे पानी तक नहीं पहुँचता तो जलीय पौधों की प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया रुक जाती है। धीरे-धीरे ऑक्सीजन का स्तर इतना कम हो जाता है कि मछलियाँ और अन्य जलीय जीव दम तोड़ने लगते हैं। पानी में इन मृत जीवों और पौधों का सड़ना-गलना शुरू हो जाता है, जिससे पानी बदबूदार और गंदा हो जाता है। इतना ही नहीं, इस रुके और सड़े हुए पानी में मच्छरों और रोगवाहक कीड़ों की संख्या तेजी से बढ़ जाती है। इससे डेंगू (dengue), मलेरिया (malaria) और चिकनगुनिया जैसी खतरनाक बीमारियों का खतरा आम लोगों तक पहुँच जाता है। साफ़ शब्दों में कहें तो जलकुंभी केवल नदी या झील की सुंदरता बिगाड़ती नहीं है, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र और मानव स्वास्थ्य दोनों पर गहरा नकारात्मक असर डालती है।

मानव जीवन और आजीविका पर असर
जलकुंभी की समस्या केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उनकी कमाई के साधनों पर भी भारी असर डालती है। सबसे पहले मछुआरों की बात करें, तो उनके लिए मछली पकड़ना लगभग असंभव हो जाता है क्योंकि जाल जलकुंभी में उलझ जाते हैं। किसान जब सिंचाई के लिए नहरों से पानी खींचते हैं, तो यह पौधा पंप और पाइपलाइन को जाम कर देता है। इसके चलते खेती प्रभावित होती है। इसके अलावा नौकायन, नाव से परिवहन और छोटी-मोटी व्यापारिक गतिविधियाँ भी रुक जाती हैं। यहाँ तक कि जहाँ पनबिजली परियोजनाएँ चल रही हैं, वहाँ पानी का बहाव बाधित होने के कारण बिजली उत्पादन घट जाता है। यानी जलकुंभी एक साथ कई स्तरों पर लोगों की ज़िंदगी में दिक्कतें पैदा करती है और समाज को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।

गोमती नदी और अन्य भारतीय जल निकायों की वर्तमान स्थिति
लखनऊ की गोमती नदी जलकुंभी के सबसे स्पष्ट उदाहरणों में से एक है। नदी के कई हिस्सों में इतनी घनी जलकुंभी फैली हुई है कि दूर से देखने पर लगता है मानो यह कोई हरा मैदान हो। यह दृश्य देखने में आकर्षक ज़रूर लगता है, लेकिन असलियत में यह नदी की सेहत को पूरी तरह से नष्ट कर रहा है। गोमती ही नहीं, देश की कई बड़ी झीलें और नदियाँ भी इसी संकट से गुजर रही हैं। उदयपुर की पिछोला झील, बेंगलुरु की उल्सूरू झील और ऊटी की झील जैसी जगहों पर जलकुंभी ने गहरा कब्ज़ा जमा लिया है। समय-समय पर नगर निगम, प्रशासन और यहाँ तक कि सेना तक को सफाई अभियान में लगना पड़ा, लेकिन कुछ ही महीनों में जलकुंभी वापस फैल गई। यह साफ़ करता है कि केवल पारंपरिक सफाई पर निर्भर रहना टिकाऊ हल नहीं है और समस्या बार-बार लौटकर आती है।

जलकुंभी नियंत्रण के पारंपरिक उपाय और उनकी सीमाएँ
अब तक जलकुंभी को हटाने के लिए जो उपाय अपनाए गए हैं, वे ज़्यादातर अस्थायी साबित हुए हैं। मशीनों और मजदूरों की मदद से पानी से पौधे निकालने की कोशिश की गई, लेकिन यह काम बेहद कठिन और महंगा है। इसकी वजह यह है कि जलकुंभी इतनी तेज़ी से फैलती है कि कुछ ही हफ्तों में पहले की मेहनत व्यर्थ हो जाती है। कई जगह रसायनों का प्रयोग भी किया गया, लेकिन इससे पानी और उसमें रहने वाले जीवों को नुकसान पहुँचा। नतीजा यह हुआ कि सफाई का खर्च बढ़ता गया लेकिन स्थायी हल कभी नहीं मिला। यही कारण है कि विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल पारंपरिक सफाई से बात नहीं बनेगी। असली ज़रूरत है ऐसे उपायों की जो लंबे समय तक टिकाऊ हों और जलकुंभी को नियंत्रित रखने के साथ-साथ उसे किसी उपयोगी रूप में ढाल सकें।

संभावित समाधान और रचनात्मक उपयोग
पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों और संस्थाओं ने यह समझना शुरू किया है कि जलकुंभी को केवल बोझ मानने के बजाय संसाधन के रूप में देखा जा सकता है।डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया (WWF-India) ने पंजाब के हरिके अभयारण्य के पास ग्रामीणों को सशक्त करने की दिशा में कदम उठाए और जलकुंभी से बने हस्तशिल्प को बाज़ार में पहुँचाने की पहल की। इससे न सिर्फ़ झीलें थोड़ी साफ़ हुईं बल्कि ग्रामीणों को आय का नया साधन मिला। हैदराबाद स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (Indian Institute of Chemical Technology) ने इससे जैविक खाद तैयार करने की तकनीक विकसित की, जो खेती में बहुत उपयोगी है। इसके अलावा वैज्ञानिक जलकुंभी से मशरूम की खेती, बायो-ब्रिकेट्स (Bio-briquettes - पर्यावरण - अनुकूल ईंधन), सेल्युलोज़ एंज़ाइम (cellulose enzymes) और बायोडिग्रेडेबल (biodegradable) चीज़ें जैसे प्लेट (plate), ट्रे (tray), नर्सरी पॉट (nursery pot) और यहाँ तक कि कैनवास बनाने की संभावनाएँ तलाश रहे हैं। अगर इन पहलों को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए, तो यह वही पौधा जो आज संकट माना जाता है, भविष्य में रोज़गार और पर्यावरण-अनुकूल नवाचारों का स्रोत बन सकता है।

संदर्भ- 
https://shorturl.at/1QJH5 

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