
लखनऊवासियो, जब भी आप शहर की किसी मंडी में जाते हैं - चाहे अमीनाबाद की गलियाँ हों, इंदिरा नगर का सब्ज़ी बाज़ार हो या चौक का हाट - और वहाँ की ताज़ी हरी सब्ज़ियाँ, मीठा गन्ना, चमकता हुआ आलू या बढ़िया बासमती चावल देखते हैं, तो क्या आपने कभी ठहर कर यह सोचा है कि इन फ़सलों के पीछे कितनी मानव मेहनत, कितने पसीने की बूंदें, और कितनी अनकही कहानियाँ छिपी होती हैं? उत्तर प्रदेश की धरती सिर्फ़ फ़सलें नहीं उगाती, यह उन करोड़ों मेहनतकश हाथों की गवाही देती है जो हर सुबह सूरज उगने से पहले खेतों में उतर जाते हैं और देर रात तक मिट्टी से सोना निकालने में जुटे रहते हैं। इनमें से कई फ़सलें ऐसी होती हैं, जिन्हें हम "श्रम-प्रधान फ़सलें" कहते हैं - यानी जिन्हें उगाने से लेकर काटने और बाज़ार तक पहुँचाने तक हर चरण में मानवीय श्रम की भारी आवश्यकता होती है। धान की रोपाई हो या गन्ने की कटाई, सब्ज़ियों की तुड़ाई हो या गेहूं की सफाई - हर प्रक्रिया किसान की हड्डियों से मेहनत निकालती है। लेकिन दुख की बात यह है कि इतनी मेहनत करने के बावजूद, आज भी कई किसान उचित पारिश्रमिक नहीं पाते। कृषि संकट, लागत में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन और बाज़ार में मूल्य निर्धारण जैसी समस्याएँ, इन मेहनती किसानों की आय को सीमित कर देती हैं। ऐसे में, जब भी हम मंडी में कोई ताज़ा फल या सब्ज़ी ख़रीदते हैं, हमें न केवल उसकी क़ीमत चुकानी चाहिए, बल्कि उस किसान के श्रम को भी पहचानना और समझना चाहिए जिसने उस उपज को संभव बनाया। यही लेख इसी उद्देश्य को सामने रखकर तैयार किया गया है - ताकि आप जान सकें कि उत्तर प्रदेश में कौन-कौन सी श्रम प्रधान फ़सलें उगाई जाती हैं, उनसे जुड़े किसानों की क्या सामाजिक-आर्थिक स्थिति है, और कैसे सरकारी योजनाएँ उन्हें राहत देने की कोशिश कर रही हैं।
आज के इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि उत्तर प्रदेश की कृषि संरचना में श्रम-प्रधान फ़सलें किस तरह केंद्र में हैं। फिर, 2011 की जनगणना और राष्ट्रीय आँकड़ों के आधार पर समझेंगे कि यूपी के किसान किस सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति से जूझ रहे हैं। इसके बाद, हम विशेष रूप से जानेंगे कि राज्य में कौन-कौन सी श्रम-प्रधान फ़सलें उगाई जाती हैं और उनके लिए किस प्रकार की मेहनत की ज़रूरत होती है। फिर हम देखेंगे कि कैसे 'यू पी-प्रगति' जैसी सरकारी पहल किसानों को राहत देने की कोशिश कर रही है। अंत में, डायरेक्ट सीडेड राइस (Direct Seeded Rice - DSR) जैसी नई तकनीकों के बारे में भी बात करेंगे, जो कृषि को भविष्य के लिए टिकाऊ बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम हैं।
उत्तर प्रदेश की कृषि संरचना और श्रम आधारित खेती की भूमिका
उत्तर प्रदेश की पहचान अगर किसी चीज़ से सबसे अधिक जुड़ी है, तो वह है - इसकी समृद्ध और गहन कृषि परंपरा। यह राज्य गंगा-यमुना की उपजाऊ दोआब भूमि पर बसा हुआ है, जहाँ जलवायु, मिट्टी और प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा संतुलन है जो इसे भारत के सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक राज्यों में स्थान दिलाता है। लखनऊ, कानपुर, प्रयागराज जैसे शहरी क्षेत्र हों या बुंदेलखंड और तराई जैसे ग्रामीण इलाके - कृषि सभी जगहों की जीवनरेखा है। यहाँ चावल, गन्ना, गेहूँ, दालें, आलू, सरसों जैसी अनेक फसलें उगाई जाती हैं, जिनमें से कई को "श्रम-प्रधान" कहा जाता है क्योंकि इनकी बुआई, देखभाल, और कटाई में भारी शारीरिक मेहनत लगती है। विशेष रूप से धान की रोपाई, गन्ने की कटाई और सब्ज़ियों की रोज़मर्रा की तुड़ाई में मानव श्रम सबसे अहम भूमिका निभाता है। इन फसलों से न केवल खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है बल्कि लाखों लोगों को रोज़गार भी मिलता है। खेती यहाँ सिर्फ़ उत्पादन नहीं, एक सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था है - जिसमें परिवार, मज़दूर और स्थानीय मंडियाँ सब कुछ आपस में जुड़े हुए हैं। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में श्रम आधारित खेती सिर्फ़ एक प्रक्रिया नहीं, बल्कि परंपरा, संघर्ष और जीविका का प्रतीक बन चुकी है।
2011 की जनगणना और कृषि से जुड़ी सामाजिक-आर्थिक स्थिति
2011 की जनगणना और राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) के आँकड़े उत्तर प्रदेश के कृषि क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बारीकी से उजागर करते हैं। लगभग 1.8 करोड़ कृषि परिवारों वाले इस राज्य में करीब 59% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। इसमें से 55% ग्रामीण लोग ऐसे परिवारों से हैं जो या तो खेतों के मालिक हैं या खेतिहर मज़दूर हैं। हालाँकि, यह आँकड़ा जितना बड़ा है, उतनी ही गहरी चिंता इस बात की है कि यूपी के किसान आर्थिक रूप से कितने कमज़ोर हैं। 2012-13 के एनएसएस डेटा (NSS data) के मुताबिक, एक औसत किसान परिवार की मासिक आय महज़ ₹4,900 है, जो पंजाब (₹18,000) और हरियाणा (₹14,400) जैसे राज्यों से कहीं कम है। यह असमानता बताती है कि उत्तर प्रदेश में किसानों की मेहनत का वाजिब मूल्य नहीं मिल रहा। इसके पीछे कारण भी गहरे हैं - जैसे कि बार-बार फसल का खराब होना, बकाया भुगतान में देरी, सिंचाई संसाधनों की कमी, महंगे बीज और खाद, और नई तकनीक तक सीमित पहुँच। खासकर गन्ना किसानों को भुगतान में देरी और ब्याज के बोझ का सामना करना पड़ता है। बुंदेलखंड में तो सिंचाई की इतनी कमी है कि किसान मानसून पर पूरी तरह निर्भर रहते हैं। इन सभी कारणों ने यूपी के किसानों की आर्थिक रीढ़ को धीरे-धीरे कमज़ोर किया है। यह समय है जब केवल खेती नहीं, बल्कि किसानों की सामाजिक गरिमा और आर्थिक सुरक्षा को केंद्र में रखा जाए।
श्रम-आधारित खेती की प्रमुख फ़सलें: विशेषताएं और क्षेत्रीय वितरण
उत्तर प्रदेश की धरती पर कुछ फ़सलें ऐसी हैं जिन्हें उगाने में बहुत ज़्यादा मानवीय श्रम लगता है। इन्हें श्रम-प्रधान फसलें कहा जाता है, और ये राज्य की खाद्य और नकदी दोनों प्रकार की कृषि में अहम भूमिका निभाती हैं:
भारत में श्रम आवश्यकता का परिवर्तन और कृषि का गहन रूप
भारत की खेती पिछले कुछ दशकों में उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से गहन कृषि प्रणाली की ओर बढ़ी है। गहन कृषि का आशय है - कम भूमि पर अधिक उत्पादन, जिसके लिए अधिक श्रम, अधिक पूंजी और अधिक संसाधनों की आवश्यकता होती है। श्रम-प्रधान फसलों में अब भी परंपरागत तरीके व्यापक हैं, जैसे चावल की रोपाई या गन्ने की सीधी बुआई। तकनीकी विकास होने के बावजूद, ज़मीनी हकीकत यह है कि ज़्यादातर छोटे और सीमांत किसान अभी भी मशीनों की बजाय मानवीय श्रम पर निर्भर हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्रमिकों की भूमिका अब भी अपरिहार्य है। सरकारी नीतियाँ अब इस बात को समझने लगी हैं कि जब तक किसान और खेत मज़दूर को सुरक्षा, प्रशिक्षण और उचित पारिश्रमिक नहीं मिलेगा, तब तक गहन कृषि केवल उपज बढ़ा सकती है, सशक्तिकरण नहीं। इसीलिए अब श्रम-आधारित खेती के साथ जुड़ी समस्याओं और संभावनाओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
यू पी-प्रगति (UP-PRAGATI) कार्यक्रम: उद्देश्य और रणनीति
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा शुरू किया गया यू पी-प्रगति कार्यक्रम किसानों के लिए एक नयी आशा लेकर आया है। यह कार्यक्रम खेती में पानी की बचत, पर्यावरण की रक्षा और तकनीकी बदलाव को एक साथ जोड़ता है। यह पहल 2030 वॉटर रिसोर्स ग्रुप (Water Resource Group), बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन (Bill & Melinda Gates Foundation) और निजी क्षेत्र के सहयोग से लागू की जा रही है। इस कार्यक्रम का मूल उद्देश्य है डीएसआर (DSR) जैसी आधुनिक तकनीकों को बढ़ावा देना, जिससे खेतों में पानी और श्रम दोनों की बचत की जा सके। यह परियोजना अगले पाँच वर्षों में 2.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर लागू की जाएगी। यह तकनीक किसानों को परंपरागत तरीकों की तुलना में कम लागत और ज़्यादा मुनाफ़ा दे सकती है। यू पी-प्रगति जैसे कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि सुधार के मॉडल बन सकते हैं - जहाँ किसानों को तकनीकी प्रशिक्षण, उपकरणों की पहुँच, और बाज़ार से जोड़ने के उपाय भी साथ में मिलें।
डायरेक्ट सीडेड राइस: टिकाऊ धान उत्पादन की नई दिशा
डीएसआर तकनीक किसानों को परंपरागत जल-निरभर खेती से मुक्त करने का एक क्रांतिकारी तरीका है। इस विधि में धान के बीज सीधे खेत में बोए जाते हैं - जिससे नर्सरी की ज़रूरत खत्म हो जाती है और पानी की भारी बचत होती है। परंपरागत तरीके में धान की पौध पहले नर्सरी में तैयार होती है, फिर उसे जल-भराव वाले खेत में रोपा जाता है - यह प्रक्रिया श्रम-गहन और पानी की खपत वाली होती है। डीएसआर विधि इन दोनों समस्याओं का समाधान देती है। इसमें किसान को केवल ज़मीन समतल करनी होती है, एक बार सिंचाई करनी होती है और सीधे बुआई कर लेनी होती है। यू पी-प्रगति के ज़रिए इस तकनीक को प्रोत्साहन मिल रहा है और इसके ज़रिए न केवल श्रम में कमी आ रही है, बल्कि पानी की भारी बचत और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार भी देखा गया है। उत्तर प्रदेश के लिए यह न केवल कृषि का तकनीकी परिवर्तन है, बल्किएक नयी टिकाऊ दिशा में बदलाव है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/rn4dab44
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