कैसे लखनऊ की इत्र और फूलों की परंपरा, आज भी इसकी नवाबी पहचान को ज़िंदा रखती है?

गंध - सुगंध/परफ्यूम
21-10-2025 09:06 AM
कैसे लखनऊ की इत्र और फूलों की परंपरा, आज भी इसकी नवाबी पहचान को ज़िंदा रखती है?

लखनऊ, जिसे तहज़ीब और नवाबी शान का शहर कहा जाता है, उतना ही प्रसिद्ध अपनी ख़ुशबूदार फ़िज़ाओं और फूलों की परंपरा के लिए भी है। यहाँ की हवाओं में घुला इत्र का नशा और ताज़े फूलों की महक आज भी लोगों के दिलों को छू जाती है। यह केवल एक शहर की पहचान भर नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही उस जीवनशैली का हिस्सा है जिसने लखनऊ को “मेहमाननवाज़ी और नफ़ासत” का प्रतीक बना दिया। नवाबी दौर में इत्र और सुगंध का प्रयोग केवल विलासिता का साधन नहीं था, बल्कि यह शाही संस्कृति, सामाजिक जीवन और धार्मिक परंपराओं का अहम हिस्सा हुआ करता था। इत्र की हर बूँद नवाबों की शान और दरबारों की रौनक को बयान करती थी, वहीं तवायफ़ संस्कृति में इसकी महक ने कला और संगीत को एक नई गहराई दी। दूसरी ओर, फूलों ने इस शहर को हमेशा ताज़गी और खूबसूरती से भर दिया। चौक की सदियों पुरानी फूल मंडी से लेकर आज तक, यहाँ की गलियों और बाज़ारों में फूलों की महक लोगों को अपनी ओर खींचती है। यह मंडी न केवल व्यापार का केंद्र रही, बल्कि लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा भी बनी रही, जिसने इस शहर की पहचान को और भी मज़बूत किया। बाग़-बगीचों में खिले सदाबहार, गुड़हल, चमेली और रुक्मिणी जैसे फूल न केवल घरों को सजाते हैं बल्कि लोगों के उत्सवों, धार्मिक अनुष्ठानों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी को भी रंगों और सुगंध से भर देते हैं। यही कारण है कि लखनऊ की संस्कृति में इत्र और फूल दोनों का स्थान केवल सजावट या विलासिता तक सीमित नहीं है। यह जीवन के हर उत्सव और हर अनुष्ठान को पूर्णता प्रदान करते हैं। यहाँ की महकती फ़िज़ाओं में नवाबी शान और प्राकृतिक सौंदर्य का ऐसा संगम है, जो लखनऊ को अन्य शहरों से अलग और ख़ास बनाता है।
इस लेख में हम पहले जानेंगे कि नवाबी दौर में इत्र और सुगंध का क्या महत्व था और गंधियों की क्या भूमिका रही। इसके बाद हम लखनऊ की पारंपरिक फूल मंडी के इतिहास और उसकी पहचान को समझेंगे। फिर हम फूलों की विविधता और उनके व्यापार की ख़ासियतों की चर्चा करेंगे। अंत में, हम यह देखेंगे कि लखनऊ के बगीचों और घरों में कौन से फूल सबसे अधिक लोकप्रिय हैं और क्यों।

नवाबी दौर में इत्र और सुगंध की परंपरा
अवध के नवाब इत्र और सुगंधित पदार्थों के बड़े शौक़ीन थे। यह केवल उनके विलासिता का हिस्सा नहीं था, बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी अभिन्न अंग बन चुका था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में इत्र का उपयोग न केवल शाही दरबारों में शान और वैभव के प्रतीक के रूप में होता था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों और तवायफ़ संस्कृति का भी अहम हिस्सा था। नवाब ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर शाह ने अपने महल में इत्र के फ़व्वारे तक बनवाए थे, ताकि वातावरण हमेशा महकता रहे। वहीं, नवाब वाजिद अली शाह ने मेहंदी के इत्र को लोकप्रिय बनाया और इसे आम जनता से लेकर तवायफ़ संस्कृति तक में फैलाया। गंधियों यानी इत्र बनाने वालों को नवाबों ने ज़मीन और विशेष संरक्षण दिया, जिससे उनका हुनर और भी निखर सका। यही कारण है कि समय के साथ इत्र बनाने की पारंपरिक तकनीकें आधुनिक हुईं और भाप आसवन जैसी विधियाँ इत्र निर्माण का मुख्य आधार बनीं, जो आज भी कन्नौज जैसे क्षेत्रों में प्रचलित हैं। इस तरह इत्र केवल खुशबू ही नहीं, बल्कि नवाबी दौर की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान बन गया।

लखनऊ की पारंपरिक फूल मंडी का इतिहास और पहचान
लखनऊ की चौक स्थित 200 साल पुरानी फूल मंडी शहर की सबसे अहम सांस्कृतिक धरोहरों में गिनी जाती है। माना जाता है कि इस मंडी की शुरुआत नवाब आसफ़-उद-दौला के शासनकाल में हुई और धीरे-धीरे यह शहर की पहचान का अहम हिस्सा बन गई। प्रारंभिक दौर में इसे "फूल वाली गली" के नाम से जाना जाता था, जहाँ मुख्य रूप से गजरे और चमेली के फूल बिकते थे। इन फूलों का उपयोग न केवल शाही दरबारों और नवाबी उत्सवों में होता था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों और स्थानीय त्योहारों में भी इनकी माँग रहती थी। समय के साथ इस मंडी ने आकार लिया और आज यह न केवल लखनऊ, बल्कि पूरे उत्तर भारत के लिए फूलों की आपूर्ति का प्रमुख केंद्र बन चुकी है। चौक की इस मंडी में महज़ फूलों का व्यापार नहीं होता, बल्कि यह शहर की नवाबी तहज़ीब और परंपराओं की झलक भी दिखाती है। यही कारण है कि जब इस मंडी के स्थानांतरण की चर्चा होती है, तो स्थानीय लोग इसे लखनऊ की सांस्कृतिक पहचान के एक अहम अध्याय के खो जाने जैसा मानते हैं।

फूलों की विविधता और व्यापार की खासियत
लखनऊ की फूल मंडी और इसके बाग़-बगीचे फूलों की विविधता और गुणवत्ता के लिए प्रसिद्ध हैं। शुरुआती दौर में जहाँ गजरे और चमेली की ख़ुशबू ही इस मंडी की पहचान हुआ करती थी, वहीं समय के साथ इसमें गुलाब, ग्लैडियोलस और रजनीगंधा जैसे फूल भी शामिल हो गए। यहाँ की सबसे बड़ी ख़ासियत इन फूलों की ताज़गी और टिकाऊपन है। स्थानीय व्यापारियों के अनुसार, लखनऊ में उगाए जाने वाले ग्लैडियोलस (Gladiolus) की ताज़गी 8 से 10 दिनों तक बनी रहती है, जबकि दिल्ली या मुंबई के फूल केवल 4 से 5 दिनों तक ही टिकते हैं। यह गुण लखनऊ की मिट्टी और मौसम की विशेषताओं से आता है, जिसने यहाँ फूलों की गुणवत्ता को हमेशा उच्च बनाए रखा है। यही वजह है कि इस मंडी के फूल स्थानीय धार्मिक स्थलों, त्योहारों और शादियों के अलावा देशभर के कई हिस्सों में भी भेजे जाते हैं। फूलों की यह विविधता और उत्कृष्ट गुणवत्ता न केवल व्यापार को बढ़ाती है, बल्कि लखनऊ की पहचान को और भी विशिष्ट बनाती है।

लखनऊ के बगीचों और घरों में लोकप्रिय फूल
आज भी लखनऊ की हवाओं में खिले फूल अपनी रंगत और ख़ुशबू से जीवन को सुंदर बना रहे हैं। यहाँ के बगीचों और घरों में सदाबहार का विशेष स्थान है, जो पूरे साल खिलता रहता है और अपनी कम देखभाल की आवश्यकता के कारण लोगों का पसंदीदा है। गुड़हल, जिसे चाइनीज़ हिबिस्कस भी कहा जाता है, न केवल अपनी सुंदरता बल्कि धार्मिक महत्व के कारण भी लोकप्रिय है। कनेर, अपने गुलाबी फूलों और गहरे हरे पत्तों के कारण बेहद आकर्षक दिखता है, हालाँकि इसकी विषाक्तता के कारण इसे बच्चों और पालतू जानवरों से दूर रखने की सलाह दी जाती है। चमेली, अपने सफ़ेद और लौंग जैसी सुगंध वाले फूलों के साथ पूरे साल घरों और बगीचों को महकाती रहती है। वहीं, रुक्मिणी यानी फ़्लेम ऑफ़ द वुड्स अपने चमकदार लाल फूलों से बगीचों में ऊर्जा और सौंदर्य दोनों भर देती है। ये सभी फूल केवल देखने भर के लिए नहीं, बल्कि लखनऊ की सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर का हिस्सा हैं, जो शहर की नवाबी शान और आज की आधुनिक जीवनशैली दोनों को जोड़ते हैं।

संदर्भ-
https://shorturl.at/fdQ21