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लखनऊवासियो, आपने कभी गौर किया है कि जब आपकी थाली में गरमा-गरम नान, कुलचा या मुलायम ब्रेड रखी जाती है, तो उसका स्वाद और बनावट कितनी अनोखी होती है? इस जादू के पीछे छिपा है एक छोटा-सा जीव, जिसे हम "खमीर" कहते हैं। खमीर कोई साधारण चीज़ नहीं, बल्कि यह इंसानी खानपान और पाक-कला की सदियों पुरानी परंपरा का अहम हिस्सा है। प्राचीन मिस्र के दौर से लेकर मुग़लिया रसोई और आज की बेकरी तक, खमीर ने हमेशा खाने को और भी लज़ीज़ व हल्का बनाने में खास भूमिका निभाई है। लखनऊ जैसे शहर, जो अपनी तहज़ीब और नवाबी ज़ायके के लिए मशहूर है, वहाँ खमीर से बनी नान और कुलचे की महक आज भी पुराने बाज़ारों और रसोईघरों में महसूस की जा सकती है।
इस लेख में हम खमीर के बारे में चार पहलुओं को आसान भाषा में समझेंगे। सबसे पहले, जानेंगे खमीर की शुरुआत और प्राचीन मिस्र में इसके उपयोग की कहानी। फिर देखेंगे कि 19वीं शताब्दी में कैसे नई तकनीकों और चार्ल्स फ्लेशमैन (Charles Fleischmann) जैसे लोगों ने खमीर को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद, खमीर के अलग-अलग प्रकार और उनके काम को समझेंगे। अंत में, भारत में खमीर से जुड़े व्यंजनों की यात्रा देखेंगे - जहाँ चपाती से लेकर नान और अमृतसरी कुलचे तक हमारी थाली को स्वाद और ख़ासियत मिली।

खमीर की उत्पत्ति और प्राचीन इतिहास
खमीर कवक की श्रेणी का एक अद्वितीय जीव है, जो एकल कोशिकाओं के रूप में विकसित होता है। अन्य कवकों की तरह यह हाइफे (Hyphae) के रूप में विकसित नहीं होता, बल्कि छोटी-छोटी कोशिकाओं से बढ़ता है। यह आटे में मौजूद शर्करा को कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) और इथेनॉल (Ethanol) में परिवर्तित कर आटे को फुला देता है और ब्रेड को हल्का, मुलायम और स्वादिष्ट बनाता है। इसका पहला प्रमाण प्राचीन मिस्र से मिलता है। माना जाता है कि जब आटे और पानी का मिश्रण अधिक समय तक गर्म वातावरण में रखा गया, तो आटे में स्वाभाविक रूप से मौजूद खमीर ने उसे किण्वित कर दिया। परिणामस्वरूप बनी ब्रेड सख़्त फ्लैटब्रेड (flatbread) की तुलना में कहीं अधिक स्वादिष्ट और मुलायम रही। शुरुआती बेकर शायद इस प्रक्रिया को पूरी तरह समझ नहीं पाते थे, लेकिन वे व्यवहारिक तौर पर जानते थे कि अगर पहले से खमीरे आटे का थोड़ा हिस्सा नए आटे में मिला दिया जाए, तो वही खमीर उस आटे को भी फुला देगा। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि शुरुआती दौर में बीयर (Beer) बनाने की प्रक्रिया से भी खमीर प्राप्त किया गया और वही बेकिंग में प्रयोग हुआ। इस तरह, खमीर की खोज और इसका उपयोग मानव सभ्यता के भोजन इतिहास में एक क्रांतिकारी कदम साबित हुआ।

19वीं शताब्दी में खमीर निर्माण की आधुनिक विधियाँ
औद्योगिक युग में खमीर उत्पादन ने नई ऊँचाइयाँ हासिल कीं। 19वीं शताब्दी में सबसे पहले बेकर्स बीयर बनाने वाले किण्वक से खमीर निकालकर मीठी-किण्वित ब्रेड बनाते थे। यह तकनीक “डच प्रक्रिया” (Dutch Process) के नाम से जानी गई क्योंकि डच आसवकों ने खमीर को पहली बार व्यावसायिक रूप से बेचना शुरू किया। 1825 में टेबेन्हॉफ (Tebenhof) ने खमीर को नमी निकालकर "क्यूब केक" (Cube Cake) के रूप में संरक्षित करने की नई पद्धति विकसित की। इससे खमीर का संग्रहण और परिवहन आसान हो गया। इसके बाद 1867 में राइमिंगहॉस (Reimminghaus) ने "फिल्टर दबयंत्र" का प्रयोग किया और बेकर के खमीर के औद्योगिक उत्पादन को और अधिक प्रभावी बनाया। इस प्रक्रिया को "विएन्नीज़ प्रक्रिया" (Viennese Process) कहा गया और यह जल्दी ही फ्रांस और यूरोप के अन्य बाज़ारों में फैल गई। इस बीच, चार्ल्स फ्लेशमैन ने अमेरिका में खमीर निर्माण की नई विधियाँ शुरू कीं। उन्होंने अपने शुरुआती प्रशिक्षण के दौरान सीखा था कि खमीर बीयर आसवन का एक उप-उत्पाद है, और इस ज्ञान को उन्होंने व्यावसायिक स्तर पर विकसित किया। उनके प्रयासों ने अमेरिका में बेकिंग उद्योग को एक नई दिशा दी और खमीर की उपयोगिता को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बना दिया।
खमीर के विभिन्न प्रकार और उनकी विशेषताएँ
आज खमीर अनेक रूपों और प्रकारों में उपलब्ध है, और हर प्रकार की अपनी विशेषताएँ हैं।

भारत में ब्रेड और खमीर आधारित व्यंजनों का विकास
भारत में खमीर आधारित ब्रेड का इतिहास अपेक्षाकृत नया है। प्राचीन काल में यहाँ मुख्य रूप से चपाती और मोटी रोटियाँ खाई जाती थीं, जो कई दिनों तक सुरक्षित रहती थीं। हड़प्पा सभ्यता के दौरान गेहूँ की खेती के साथ यह परंपरा विकसित हुई थी। लेकिन तंदूर आधारित किण्वित ब्रेड धीरे-धीरे सभ्यता के साथ आई। 1300 ईस्वी के आसपास, भारत-फ़ारसी कवि अमीर खुसरो के लेखों में "नान" का उल्लेख मिलता है। दिल्ली के शाही दरबार में “नान-ए-तुनुक” और "नान-ए-तनुरी" नाम से दो तरह की नान बनाई जाती थीं। बाद में मुग़ल काल में नान की लोकप्रियता बढ़ी और यह कबाब और कीमे जैसे व्यंजनों के साथ शाही भोजन का हिस्सा बन गया। नान से प्रेरणा लेकर आगे चलकर "कुलचा" का विकास हुआ। यह स्वयं फूलने वाले आटे से बनाया जाने लगा और बेकिंग सोडा जैसे घटकों के प्रयोग से और भी हल्का व स्वादिष्ट बना। अमृतसर में बना "अमृतसरी कुलचा" तो आज भी पूरे भारत में प्रसिद्ध है, जिसमें मसालेदार आलू और अन्य भरावन का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, कश्मीरी और पेशावरी नान में फलों, सूखे मेवों और मांस का भरावन डालकर उन्हें विशेष स्वाद दिया जाता था। इस तरह, भारतीय व्यंजनों में खमीर ने न केवल रोटी को नया रूप दिया, बल्कि शाही और आम दोनों के खानपान में अपनी जगह बना ली।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2embub77