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लखनऊवासियो, जब हम न्याय की बात करते हैं तो दिल में उम्मीद जगती है कि समय पर इंसाफ़ मिलेगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि राजधानी लखनऊ सहित पूरे उत्तर प्रदेश में लाखों मामले वर्षों से अदालतों में लंबित पड़े हैं। एनजेडीजी (NJDG) की रिपोर्ट बताती है कि लखनऊ की अदालतों में ही दो लाख से अधिक मामले अटके हुए हैं। यह न सिर्फ़ न्याय पाने वालों की राह कठिन बनाता है बल्कि समाज और प्रशासन दोनों पर गहरा असर डालता है। आज हम इन्हीं लंबित मामलों के आँकड़ों, कारणों और समाधान की संभावनाओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
आज के इस लेख में हम पहले, उत्तर प्रदेश और भारत में लंबित अदालती मामलों की स्थिति को समझेंगे। फिर, लखनऊ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख जिलों जैसे आगरा, गाज़ियाबाद और लखनऊ की स्थिति पर नज़र डालेंगे। इसके बाद, जानेंगे कि भारतीय न्यायपालिका में ये मामले क्यों लंबित रहते हैं और समाज पर इसका क्या असर होता है। अगले भाग में हम सर्वोच्च न्यायालय में वर्षों से अटके हुए कुछ ऐतिहासिक मुक़दमों को समझेंगे। और अंत में, हम देखेंगे कि प्रौद्योगिकी और सुधारों की मदद से इस समस्या को कम करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश और भारत में लंबित अदालती मामलों की स्थिति
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) की ताज़ा रिपोर्ट इस तथ्य को उजागर करती है कि भारत की न्यायपालिका पर लंबित मामलों का बोझ दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। इनमें सबसे अधिक दबाव उत्तर प्रदेश की अदालतों पर है। रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश देश का वह राज्य है जहाँ सबसे ज़्यादा मामले लंबित हैं। केवल ज़िला और तालुका अदालतों में ही लगभग 48 लाख मामले वर्षों से अटके पड़े हैं। यह संख्या अकेले ही देशभर के कुल मामलों का लगभग 24 प्रतिशत है। यानी, भारत में जितने मुक़दमे लंबित हैं, उनमें से हर चौथा मुक़दमा उत्तर प्रदेश का है। अन्य बड़े राज्य जैसे महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल और बिहार भी इस सूची में शामिल हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश का भार सबसे अधिक है। यह स्थिति केवल आँकड़ों की कहानी नहीं है, बल्कि लाखों लोगों की ज़िंदगी से जुड़ी वास्तविकता है। एक-एक मामला वर्षों से अदालतों के चक्कर काट रहा है और न्याय मिलने की उम्मीद धुंधली होती जा रही है। इन आँकड़ों से साफ़ झलकता है कि भारत की न्यायिक व्यवस्था का सबसे बड़ा दबाव उत्तर प्रदेश की अदालतों पर है, और बिना ठोस सुधार के इस बोझ को कम करना आसान नहीं होगा।

लखनऊ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लंबित मामलों का परिदृश्य
अगर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बात करें तो यहाँ 2,13,333 मामले लंबित पाए गए। दिलचस्प बात यह है कि लखनऊ में न्यायाधीशों की संख्या प्रदेश में सबसे अधिक यानी 69 है, इसके बावजूद लंबित मामलों का बोझ कम नहीं हो पाया है। यह इस बात का संकेत है कि समस्या सिर्फ़ न्यायाधीशों की संख्या तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रक्रियाओं की जटिलता और मामलों की बढ़ती दर भी इसका कारण हैं। लखनऊ के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य बड़े ज़िलों में भी स्थिति गंभीर है। आगरा में लगभग 1,13,849 मामले लंबित हैं, जिनमें से अधिकांश आपराधिक प्रकृति के हैं। गाज़ियाबाद में 1,24,809 आपराधिक और 19,273 दीवानी मामले दर्ज हैं। वहीं मेरठ की अदालतों में 1,18,325 आपराधिक और 24,704 दीवानी मामले अब तक निपटाए नहीं जा सके हैं। इन आँकड़ों से यह भी सामने आता है कि महिलाओं से जुड़े मामलों की संख्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िलों में काफ़ी अधिक है। उदाहरण के लिए, आगरा में 8,517, गाज़ियाबाद में 8,355 और मेरठ में 7,566 महिलाओं से जुड़े मामले दर्ज हुए हैं। यह दर्शाता है कि न्याय में देरी सीधे तौर पर महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों को प्रभावित कर रही है। यह परिदृश्य इस सवाल को जन्म देता है कि यदि राजधानी और प्रमुख ज़िलों में ही हालात इतने गंभीर हैं, तो छोटे ज़िलों और कस्बों की स्थिति का अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है।
भारतीय न्यायपालिका में लंबित मामलों के कारण और प्रभाव
भारत में लंबित मामलों की समस्या का सबसे बड़ा कारण न्यायाधीशों की कमी है। ज़िला और अधीनस्थ अदालतों में स्वीकृत पदों की संख्या 24,203 है, जबकि कार्यरत न्यायाधीश मात्र 19,172 हैं। यानी लगभग पाँच हज़ार से अधिक पद रिक्त पड़े हैं। इसका सीधा असर यह है कि हर न्यायाधीश पर औसतन कहीं अधिक मामलों का बोझ पड़ता है, जिससे समय पर निर्णय देना लगभग असंभव हो जाता है। अगर अंतरराष्ट्रीय तुलना करें तो तस्वीर और भी चिंताजनक नज़र आती है। भारत में प्रति मिलियन जनसंख्या पर मात्र 20.91 न्यायाधीश उपलब्ध हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 107, कनाडा में 75 और ऑस्ट्रेलिया में 41 है। इन आँकड़ों से साफ़ है कि भारत में न्यायपालिका का ढांचा बढ़ती जनसंख्या और मामलों की संख्या के अनुपात में बेहद कमज़ोर है। इसका असर सिर्फ़ न्याय प्रणाली तक सीमित नहीं रहता, बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था पर भी गहरा पड़ता है। जब मुक़दमे वर्षों तक अदालतों में लंबित रहते हैं, तो लोगों का न्याय व्यवस्था से विश्वास कमज़ोर पड़ने लगता है। व्यापारी और निवेशक भी असुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि किसी विवाद का समाधान वर्षों तक नहीं हो पाता। नतीजा यह होता है कि समाज में तनाव और असंतोष बढ़ता है और आर्थिक विकास की रफ़्तार भी धीमी पड़ जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय में लंबित सबसे पुराने मुक़दमे
सिर्फ़ निचली अदालतें ही नहीं, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय भी लंबित मामलों के बोझ से जूझ रहा है। यहाँ कई ऐसे मुक़दमे हैं जो तीन दशक से भी अधिक समय से लंबित पड़े हैं। उदाहरण के लिए, संबलपुर मर्चेंट्स एसोसिएशन (Sambalpur Merchants Association) बनाम उड़ीसा राज्य का मामला 30 साल से भी अधिक समय से अदालत में अटका हुआ है। इसी तरह अर्जुन फ़्लोर मिल्स (Arjun Floor Mills) बनाम ओडिशा राज्य वित्त विभाग सचिव और महाराणा महेंद्र सिंह जी बनाम महाराजा अरविंद सिंह जी जैसे मुक़दमे भी तीन दशक से अधिक समय से अधर में लटके हुए हैं। इन मामलों में संवैधानिक और सामाजिक दोनों तरह की जटिलताएँ जुड़ी हुई हैं। यही वजह है कि इनके निपटारे में समय लग रहा है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या किसी मामले का तीन-तीन दशक तक लंबित रहना उचित है? न्याय में इतनी लंबी देरी अपने आप में न्याय की भावना को ही कमज़ोर करती है। यह स्थिति न केवल अदालतों की क्षमता पर सवाल खड़े करती है, बल्कि आम जनता के विश्वास पर भी चोट पहुँचाती है।
प्रौद्योगिकी और सुधार: लंबित मामलों को कम करने की दिशा में कदम
लंबित मामलों की समस्या को देखते हुए न्यायपालिका ने प्रौद्योगिकी और नए सुधारों का सहारा लेना शुरू किया है। वर्चुअल कोर्ट (Virtual Court) प्रणाली ने सुनवाई को आधुनिक और तेज़ बना दिया है। अब कई मामलों की सुनवाई वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग (Video Conferencing) के ज़रिए हो रही है, जिससे वादियों और वकीलों को अदालत के चक्कर लगाने की ज़रूरत कम हो रही है। इससे समय और संसाधनों की बड़ी बचत हो रही है। ई-कोर्ट पोर्टल (e-Court Portal) और ई-फ़ाइलिंग (e-Filing) ने भी प्रक्रियाओं को आसान और पारदर्शी बनाया है। अब वकील और पक्षकार ऑनलाइन (Online) दस्तावेज़ जमा कर सकते हैं और अपने मामलों की स्थिति की जानकारी ले सकते हैं। इसी तरह ई-पेमेंट (e-Payment) प्रणाली ने अदालत शुल्क और जुर्माने को ऑनलाइन भुगतान करने की सुविधा देकर अदालत की प्रक्रियाओं को सरल और तेज़ कर दिया है। इंटरऑपरेबल क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (ICJS) ने पुलिस, अदालतों और जेलों के बीच डेटा साझा करना आसान कर दिया है, जिससे मामलों की जानकारी तेजी से आगे बढ़ाई जा सकती है। इसके अलावा, फास्ट ट्रैक कोर्ट (Fast Track Court) और वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) जैसे उपाय भी न्याय वितरण को गति देने में सहायक हो रहे हैं। ये सभी कदम यह उम्मीद जगाते हैं कि आने वाले समय में लंबित मामलों का बोझ कुछ हद तक कम किया जा सकेगा।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/dvd46t47
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