क्या लखनऊ के मोती नगर से पनपा था विभाजन का अंकुर?

औपनिवेशिक काल और विश्व युद्ध : 1780 ई. से 1947 ई.
03-11-2018 03:42 PM
क्या लखनऊ के मोती नगर से पनपा था विभाजन का अंकुर?

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसने नागरिकों को ब्रिटिश राज के खिलाफ एक मंच प्रदान किया है। लकिन शायद यहीं पर एक ऐसा समझौता भी हुआ था जिसने द्विराष्ट्र सिद्धांत की अवधारणा का बीज बौया था। किसे पता था हिन्दू-मुस्लिम एकता का यह समझौता एक दिन विभाजन का मूल कारण बन सकता है। आइये जानते हैं इससे जुड़े इतिहास के बारे में और कैसे ये समझौता विभाजन का अंकुर बना।

इतिहासकरों के अनुसार देश का विभाजन एक ऐसी साम्प्रदायिक राजनीति का अंतिम चरण था, जिसकी शुरूआत बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में हुई थी। जल्द ही भारत के स्वतंत्रता सेनानी और अंग्रेजों को समझ में आ गया था कि यदि हिंदू-मुस्लिम आपसी सहयोग और सद्भावना से कार्य करते रहे तो भारत में बिट्रिश साम्राज्य अधिक समय तक चल नहीं पायेगा। अतः परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई। और फिर शुरू हुई भूमिका मुस्लिम लीग की। 1906 में ढाका में 'मुस्लिम लीग' या 'अखिल भारतीय मुस्लिम लीग' (एक मुस्लिम राजनीतिक समूह) की स्थापना हुई थी।

प्रारंभ में तो मुस्लिम लीग अंग्रेजों के पक्ष में थी, परंतु कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय घटनाओं ने मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण बदल दिया और वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में आ गये। मुस्लिम लीग के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थन में आने के कई कारण थे-

1. बंगाल विभाजन को रद्द किये जाने के सरकारी निर्णय से मुसलमानों को घोर निराशा हुयी।
2. इस घटना से राष्ट्रवादी मुसलमानों जैसे अब्दुल कलाम आज़ाद और अली बंधुओं ने लाभ उठाया और मुसलमानों के बीच राष्ट्रवादी विचारों को फैलाया।
3. बाल गंगाधर तिलक को वर्ष 1914 में जेल से रिहा कर दिया गया था तथा सैद्धांतिक बैठक अधिनियम के तहत, ब्रिटिश सरकार ने कुछ मुस्लिम नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।

सरकार की इन नीतियों से लीग के युवा मुसलमानों में बिट्रिश विरोधी भावनायें जागृत हो गयीं तथा वे उपनिवेशी शासन को नष्ट करने के अवसर की तलाश करने लगे। इन सभी कारणों से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग में मिलन संभव हो सका।

इसके बाद स्वराज्य प्राप्ति और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये लखनऊ में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ जिसे ‘लखनऊ समझौता’ कहा गया। दिसम्बर 1916 में लखनऊ समझौता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा किया गया एक समझौता था। ऊपर प्रस्तुत किया गया चित्र इस समझौते के समय ही लिया गया चित्र है जिसमें जिन्नाह और सांय सदस्यों को देखा जा सकता है। इसे लखनऊ अधिवेशन में 29 दिसम्बर 1916 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा और 31 दिसम्बर 1916 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा पारित किया गया था। मोहम्मद अली जिन्नाह और बाल गंगाधर तिलक इस समझौते के प्रमुख निर्माता थे, जिसकी अध्यक्षता उदारवादी नेता अंबिका चरण मजुमदार ने की थी। मोती नगर में आयोजित कांग्रेस के इस लखनऊ अधिवेशन की एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि थी - चरमपंथियों और चरमपंथियों का फिर से मेल और इसी मंच पर पहली बार महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की बैठक भी हुई थी। इस समझौते में भारत सरकार के ढांचे और हिन्दू- मुसलमानों के बीच सम्बन्धों के बारे में प्रावधान थे।

राष्ट्रीय कांग्रेस और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के इस समझौते के मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थे-

1. कांग्रेस द्वारा उत्तरदायी शासन की मांग को लीग ने स्वीकार कर लिया।
2. कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन व्यवस्था की मांग को स्वीकार कर लिया।
3. विधान परिषद में, मुस्लिम प्रतिनिधित्व 1/3 आरक्षित किया गया, हालांकि उनकी आबादी पूर्ण आबादी की 1/3 से कम थी।
4. यदि किसी सभा में कोई प्रस्ताव किसी सम्प्रदाय के हितों के विरुद्ध हो तथा 3/4 सदस्य उस आधार पर उसका विरोध करें तो उसे पास नहीं किया जायेगा।

कुछ समय बाद मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता जिन्नाह जोकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के समर्थक थे, गांधीजी के असहयोग आंदोलन का विरोध करने लगे और कांग्रेस से अलग हो गए। उनके मन में भय हो गया था कि हिन्दू बहुसंख्यक हिंदुस्तान में मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं मिल सकेगा और अंग्रेज़ जब भी सत्ता का हस्तांतरण करेंगे तो वे उसे हिन्दुओं के हाथ में ही सौंपेंगे जिस कारण भारतीय मुसलमानों को हिन्दुओं की अधीनता में रहना पड़ेगा। इसी वजह से उन्होंने लीग का पुनर्गठन किया और पाकिस्तान की स्थापना के समर्थक और प्रचारक बन गए। 1940 ई. में उन्होंने धार्मिक आधार पर मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों को मिलाकर पाकिस्तान बनाने की मांग की तथा आखिर में 1947 ई. में भारत का विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना हुई।

लखनऊ के ऐतिहासिक समझौते के फलस्वरूप यह लाभ हुआ कि अल्पसंख्यकों के मन से बहुसंख्यक हिन्दुओं का भय दूर हो गया। और इस समझौते से भारतियों में एकता की नयी भावना का विकास हुआ। किन्तु इस समझौते के प्रावधानों के निर्धारण में दूरदर्शिता का अभाव देखा गया। कांग्रेस द्वारा मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचन व्यवस्था की मांग को स्वीकार कर लिये जाने से देश में दो अलग-अलग राजनीति का प्रारम्भ हुआ। जिस कारण यह प्रावधान विभाजन बीज सबित हुआ।

संदर्भ:
1.https://www.quora.com/What-is-the-importance-of-a-Lucknow-session-of-the-Indian-National-Congress-1916
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Lucknow_Pact
3.https://timesofindia.indiatimes.com/city/lucknow/Historic-Lucknow-Pact-enters-100th-year/articleshow/50360098.cms
4.https://www.topperlearning.com/doubts-solutions/briefly-explain-any-three-circumstances-that-led-to-the-lucknow-pact-iwcc1fd88/
5.https://goo.gl/bkPF7q