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आधुनिकता के इस दौर में प्रत्येक क्षेत्र में मशीनों का प्रयोग तीव्रता से बढ़ता जा रहा है, जिससे हस्तशिल्प विलुप्ति के कगार पर आ गये हैं। इसी कारण आज मशीन निर्मित वस्तुओं की अपेक्षा हस्तनिर्मित की कीमत बढ़ती जा रही है। यही स्थिति वस्त्रों की भी है, जिसे मशीनीकरण के दौर ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। विश्व के कुछ हिस्सों में आज भी कुछ ऐसे जनजाति या समुदाय हैं, जिन्होंने अपनी पारंपरिक हस्तकलाओं को जीवित रखा है। फिर चाहे वह वस्त्रों पर की जाने वाली कढ़ाई ही क्यों ना हो। एक ऐसी ही जनजाति है वियतनाम की ह्मोंग, जिसकी वस्त्रों पर की जाने वाली काशीदाकारी अत्यंत प्रसिद्ध है।
ह्मोंग चीन की प्राचीन पहाड़ी जनजाति है, जिन्होंने स्वतंत्रता की तलाश में चीन से प्रवासन कर लिया था। प्रारंभ में ये शरणार्थी शिविरों में कृषि पर निर्भर थे तथा इनमें किसी प्रकार का कोई स्थायित्व नहीं था। इनके पास थे तो एकमात्र इनके पारंपरिक तौर तरीके जिसका अनुसरण करते हुए ये आगे बढ़ रहे थे। जिसमें वस्त्रों पर की जाने वाली कढ़ाई भी शामिल थी, जिसके लिए ये विशेष रूप से कुशल व पारंगत थे। जिसे इन्होंने आधुनिक दुनिया के देश जैसे- अमेरिका, फ्रांस, थाईलैण्ड, लाओस, वियतनाम आदि में प्रवेश के बाद भी जीवित रखा। भौगोलिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ह्मोंग विभाजित थे, जिसमें श्वेत ह्मोंग वस्त्रों में काशीदाकारी के लिए रिवर्स एपलिक (Reverse Appliqué) तथा हरित ह्मोंग बटिक (Batik) की कला को अपनाते थे।
वस्त्रों पर की गयी कढ़ाई ह्मोंग की महिलाओं के लिए गर्व का विषय है, यहां तक कि एक समय में विवाह हेतु लड़की का चुनाव करते समय यह उनमें एक श्रेष्ठ गुण के रूप में देखा जाने लगा था। ये महिलाऐं नव वर्ष, विवाह, जन्म तथा अन्य महत्वपूर्ण समारोह के लिए काले वस्त्रों पर सूई से चमकदार कढ़ाई करके पारंपरिक वस्त्र तैयार करती हैं। जिसके लिए ये तिरछी सिलाई तथा काशीदाकारी जैसी तकनीक का सहारा लेती हैं। इनके सभी जटिल एपलिक (Appliqué ,एक वस्त्र के ऊपर दूसरे वस्त्र को रखकर किया जाने वाला कार्य) कार्य को "पा न्दाउ" (Pa nDau) कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘फ्लावर क्लॉथ’ (Flower cloth) अर्थात फूलों वाला कपड़ा है। वस्त्रों के लिए एपलिक के टुकड़े तैयार करना अत्यंत जटिल कार्य है, जिसमें कई वर्षों के अनुभव की आवश्यकता होती है, इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार की कढ़ाई भी की जाती है। इनके द्वारा बॉर्डर में की जाने वाली कढ़ाई की तकनीक काफी हद तक चीनी तकनीक से मेल खाती है।
शरणार्थी जीवन व्यतित करते समय काशीदाकारी से तैयार वस्त्र ही इनकी आय का मुख्य स्त्रोत थे जिसके लिए ये चमकदार रंगों का उपयोग करते थे। इसको वे मुख्य रूप से एप्रन (Apron), बिस्तर की चादर, तकिया कवर (Cover), दीवार की लटकन में करते थे, जिसने पश्चिमी जगत को काफी हद तक अपनी ओर आकर्षित किया। ह्मोंग की काशीदाकारी का एक उत्कृष्ट स्वरूप था ‘पज न्तौब तिब नीग’ (Paj Ntaub Tib Neeg) जिसे ऊपर दिए गए चित्र में दर्शाया गया है तथा इसे ‘कहानी वस्त्र’ भी कहा जाता था। प्रारंभ में इनकी भाषा को वर्ण नहीं मिले थे, जिस कारण ये अपना इतिहास ना लिख पाये, अतः चित्रों के माध्यम से इन्होंने अपने इतिहास को बड़ी ही खूबसूरती से वस्त्रों में उकेरा। ह्मोंग महिलाओं द्वारा यह कार्य बहुत उत्साह से किया गया था। इसमें इन्होंने अपनी संस्कृति, परंपराओं, दैनिक जीवन के साथ-साथ वियतनाम युद्ध तथा थाइलैण्ड से प्रवास के दौरान अर्जित किये गये अनुभवों को भी चित्रित किया। जिन्हें अमेरिका के बाजारों में बड़े पैमाने में बेचा गया।
कुछ समय पश्चात अमेरिकीयों ने अपनी तकनीक के साथ ह्मोंग की काशीदाकारी को भी मिलाया। जिससे कढ़ाई का एक नया रूप उभरा। लखनऊ अपनी चिकनकारी और कढ़ाई के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहां के कारीगर ह्मोंग की काशीदाकारी की तकनीक को सीखकर कढ़ाई के एक नये स्वरूप का इज़ात कर सकते हैं। यह इनके लिए एक अच्छा विकल्प सिद्ध हो सकता है।
संदर्भ:
1.http://www.womenfolk.com/quilting_history/hmong.htm
2.https://en.wikipedia.org/wiki/Hmong_textile_art
3.http://collections.mnhs.org/mnhistorymagazine/articles/64/v64i05p180-193.pdf