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मानव के इतिहास को विभिन्न क्रम में विभाजित किया गया है- पुरा पाषाण काल, पाषाण काल, नवपाषाण काल, कांस्य युग या लोह युग। कांस्य युग तक आते आते मानव ने धातु की खोज कर ली थी। धातु की खोज और इसका सदुपयोग मानव की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। मानव द्वारा धातु की खोज कब और कैसे की गयी इसका स्पष्ट इतिहास तो किसी के पास नहीं है। संभवतः मानव ने ध्यान दिया हो धातु आग के संपर्क में आते ही लचीली हो जाती है तथा इसके संपर्क से हटते ही पूनः ठोस रूप धारण कर लेती है। जिससे इसे आकृति देना आसान हो सकता है तथा यह पत्थर की भांति टूटती भी नहीं है। इसके इसी गुण के कारण मानव ने इसे औजार, हथियार, बर्तन और आभूषण बनाने में उपयोग किया। सर्वप्रथम मानव द्वारा उपयोग की गयी धातु तांबा थी। इसके बाद लोहा, फिर स्टिल तथा अन्य धातुएं (सोना, चांदी, सीसा इत्यादि) उपयोग में लायी गयी। मिश्र की गुफा से एक तांबे की पिन मिली है जिसकी समयावधि लगभग 10हजार साल पुरानी है, यह अब तक की सबसे प्राचीन ज्ञात धातु की वस्तु है जिसे ब्रिटेन के संग्रहालय में रखा गया है।
भारत में धातु का उपयोग लौह युग से प्रारंभ हो गया था साथ ही स्टील बनाने की कला भी भारत में विकसित कर ली गयी थी। यजुर्वेद में अन्य धातु सोना, चांदी, सीसा और टिन का भी उल्लेख देखने को मिलता है। भारत से मिली तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की एक नृतिका की कांस्य की मूर्ति इस बात का साक्ष्य है कि भारत में धातु को कलाकृति का रूप देना भी प्राचीन काल में ही प्रारंभ कर दिया गया था। भारत का इतिहास गौरवमयी रहा है, जिसके साथ ही यहां के शासकों द्वारा धातुओं का बहुत से क्षेत्रों में उपयोग किया गया। विभिन्न शासकों के शासन काल के दौरान धातुओं पर अलग अलग शिल्प कौशल विकसित किया गया। गुप्त काल का लौह स्तंभ, सुल्तानगंज की तांबे की बुद्ध की खड़ी प्रतीमा इंजीनियरिंग कौशल और उच्च कलात्मका का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। गुप्तकाल में मानव आकृति की रचना करते समय सुडौल शरीर तैयार किये गये थे।
आठवीं शताब्दी में पाल शासन काल में बंगाल की मूर्तिकला में गुप्त काल की मूर्तिकला शैली का मिश्रित प्रभाव देखा गया। इनके द्वारा तैयार की गयी मुर्तियों में ध्यान मुद्रा पर विशेष ध्यान दिया गया जिसमें चेहरे की आकृति प्रमुख थी, मानवीय चेरहे के एक एक भाग को बड़ी ही कुशलता से मूर्तियों में उकेरा गया।
दक्षिण में चालुक्यों और राष्ट्रकूटों ने धातु की आकृतियों और अन्य वस्तुओं के निर्माण की उच्च तकनीकी का विकास किया। पल्लवों द्वारा बनायी गयी मूर्तियों पर बने मोटे होंठ, चौड़ी नाक और दोहरी ठुड्डी ने इन्हें अलग पहचान दिलायी। यादव और होयसल राजवंश के शासन के दौरान पुष्प और अत्यधिक सजावटी शैली विकसित हुयी। चोल काल निस्संदेह धातु की शास्त्रीय कला में एक और महत्वपूर्ण अवधि है। इन्होंने राजाओं और रानियों, शैव और वैष्णव संतों की कई शानदार प्रतिमाएं बनाईं। चालुक्य और चोल शैली विकसित और परिपक्व हुई, जो बाद में एक साथ मिलकर विजयनगर नामक शैली के रूप में उभरी। मुगल काल के दौरान धातु के शिल्प का नया रूप विकसित हुआ।
भारतीय मूर्तिकला अपनी समकालीन मूर्तिकला जैसे मिस्र और यूनानी से भिन्न और अद्भूत थी। आध्यात्मिक और लौकिक दुनिया के साथ भौतिक रूप को मिश्रित करके प्रकृति के स्वरूप को दर्शाने की कला भारतीय शिल्पकारों की एक प्रमुख विशेषता है। इनके द्वारा तैयार की गयी मूर्तियों में प्रमुख पात्र के अमूर्त गुणों को बड़ी कुशलता से दर्शाया गया है। बुद्ध की प्रतिमा दिव्य ज्ञान का प्रतीक है, जो स्थायी खुशी को दर्शाती है। तो वहीं नटराज की प्रतिमा शक्ति प्रदर्शन का एक अच्छा उदाहरण है। मुर्तिकला में ही नहीं वरन् धात्विक बर्तनों, आभूषणों और अन्य सजावटी सामाग्रीयों में भी भारतीय शिल्पकारों ने अपनी कला का अद्भूत प्रदर्शन किया। लखनऊ में सादे और सजावटी चांदी के पात्र, सोने और चांदी के मिश्रित बर्तन, चाय के सेट, प्लेट, तश्तरी, नमकदान, चीनीदान, दूध के बर्तन आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। लखनऊ के संग्राहलय में पूर्व-ऐतिहासिक औजार, मिट्टी के बर्तन और ईंटें, मूर्तियां, धातु की मुर्तियां, मुहरें, मालाएं, पत्थर के शिलालेख और तांबे की प्लेट, सोने, चांदी और तांबे के सिक्के, मेडल और कागज की मुद्रा आदि को संग्रहित किया गया है।
संदर्भ:
1. http://www.lucknowzoo.com/state_art_museum.htm
2. Abraham,T.M. Handicrafts In India 1964 Graphics Columbia New Delhi