भारतीय और पाश्‍चात्‍य तर्कशास्‍त्र एवं उनके बीच भेद

विचार II - दर्शन/गणित/चिकित्सा
13-07-2019 12:05 PM
भारतीय और पाश्‍चात्‍य तर्कशास्‍त्र एवं उनके बीच भेद

इस लौकिक और अलौकिक जगत के प्रत्‍येक पहलू के पीछे कोई ना कोई तर्क मौजूद है, जिसे विभिन्‍न विद्वानों ने अपनी-अपनी बौद्धिक क्षमता और अनुसंधानों के अनुरूप प्रस्‍तुत किया है। तर्क युक्ति और विचार के मूल्‍यांकन का एक विज्ञान है। आलोचनात्मक सोच मूल्यांकन की एक ऐसी प्रक्रिया है जो सत्य को असत्य से, उचित को अनुचित से अलग करने के लिए तर्क का उपयोग करती है। तर्कशास्त्र का कार्य किसी सत्य के साक्ष्य जुटाना नहीं है, बल्कि यह आंकना है कि अनुमिति के लिये उचित साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं या नहीं। भारतीय और पाश्‍चात्‍य जगत में इसमें पर्याप्‍त भिन्‍नता देखने को मिलती है।

पाश्‍चात्‍य जगत में तर्कशास्‍त्र के प्रणेता यूनानी दार्शनिक अरस्‍तू को माना जाता है। किंतु अरस्‍तु द्वारा प्रस्‍तुत की गईं ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विभाजन को 'एनालिटिक्स' (Analytics) (विश्लेषिकी) नाम दिया गया। तर्क के लिए प्रयोग किया जाने वाले शब्‍द ‘लॉजिक’ (Logic) का प्रयोग सर्वप्रथम रोमन लेखक सिसरो (106-43 ई० पू०) द्वारा किया गया, यद्यपि वहाँ उसका अर्थ कुछ भिन्न है। अरस्तू के अनुसार तर्कशास्त्र में पद (टर्म्स/Terms), वाक्‍य या कथन, अनुमान और उसके विविध रूप (जिन्हें न्यायवाक्यों के रूप में प्रकट किया जाता है) को महत्‍व दिया गया। अरस्तू के तर्कशास्त्र का प्रधान प्रतिपाद्य विषय न्यायवाक्यों में व्यक्त किए जानेवाले अनुमान हैं; इनके अनुसार सही अनुमान 19 प्रकार के होते हैं, जो चार तरह की अवयवसंहतियों में प्रकाशित किए जाते हैं।

भारतीय प्राचीन दर्शन में तर्कशास्‍त्र नाम का कोई भी स्‍वतंत्र शास्‍त्र उपलब्‍ध नहीं है। अक्षपाद गौतम (३०० ई०) का न्यायसूत्र पहला ऐसा ग्रंथ है, जिसमें तर्कशास्त्र से संबंधित पहलुओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया है। भारतीय तर्क में प्रमाणशास्‍त्र का विशेष महत्‍व है, जो ज्ञान के विषय (प्रमाता), ज्ञान की वस्तु (प्रमेय) और वैध ज्ञान (प्रमाण) के त्रुटिपूर्ण अनुभूति और सत्य के विभिन्न सिद्धांतों से संबंधित है। भारतीय दर्शन में तर्क प्रमाणशास्त्र का हिस्‍सा है। गौतम के 'न्यायसूत्र' में प्रमा या यथार्थ ज्ञान के उत्पादक विशिष्ट या प्रधान कारण 'प्रमाण' कहलाते हैं; उनकी संख्या चार है, अर्थात्‌ प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। भट्ट मीमांसा और वेदान्तियों ने इसमें अर्थापत्ति व अनुपलब्धि को भी जोड़ा है। न्याय के अनुसार अनुमान दो प्रकार (परार्थानुमान तथा स्वार्थानुमान) के होते हैं। किसी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होने से, उस वस्तु से सम्बन्धित जिस वस्तु का ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं। जैसे पर्वत के ऊपर धूम्र को देखकर वहां अग्नि के होने का अनुमान लगाया जा सकता है।

निगमनात्‍मक तर्क प्रस्ताव के प्रमाण के रूप में उपयोगी साबित हो सकता है। किंतु वास्‍तविक ज्ञान कैसे प्राप्‍त होता है यह एक गंभीर प्रश्‍न है। पाश्‍चात्‍य जगत में तर्क-वितर्क के दौरान तर्कों की प्रस्तुति हेतु अरस्‍तू के न्‍याय का उपयोग किया गया और अन्‍यों के लिए अनुमान का उपयोग किया गया। लेकिन भारतीय मेटालॉजिक (Metalogic) की प्राथमिक चिंता अनुमान के साथ स्‍वयं के लिए थी। अनुमान के बोधक न्यायवाक्य में पाँच वाक्य होते हैं जो क्रमशः प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तथा निगमन कहलाते हैं। वेदांतियों के अनुसार इन पाँचों में से शुरू या बाद के तीन वाक्य अनुमान के लिये पर्याप्त हैं। अनुमान को ज्ञान का स्‍त्रोत मानने पर विभिन्‍न वेदांतवादियों द्वारा गंभीर सवाल उठाए गए। औपचारिक निगमनात्‍मक प्रणाली के स्‍थान पर अनुभूति के अध्ययन पर बल दिया गया। इसलिए भारतीय तर्क को अनुभूति का तर्क माना जाता है। गिल्बर्ट हरमन की तरह भारतीय तर्क में, तर्क और नतीजे के बीच भेद नहीं पाया गया। भारतीय तर्क का विचार से संबंध है, यह विचार अंत में जाकर वैध ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है।

संदर्भ:
1. https://www.quora.com/Whats-the-essential-difference-between-Indian-logic-and-Western-logic
2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0