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                                            प्रारंभिक वैदिक काल में जीवन को विभिन्न देवताओं द्वारा नियंत्रित प्राकृतिक और मानसिक शक्तियों (भाग्य) का बंधक माना जाता था। वहीं प्रारंभिक धारणा के विपरीत, हिंदू धर्म शुद्धतम प्रकार के भाग्यवाद का समर्थन नहीं करता है, क्योंकि भाग्यवादी सोच में स्वतंत्र इच्छा का कोई स्थान नहीं है। इसमें ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक चीज़ पहले से ही निर्धारित है और मनुष्यों के पास ईश्वर द्वारा निर्धारित योजना का अनुसरण करने के अलावा कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं होता है।
वैदिक काल के बाद मनुष्यों के मन में यह विचार उत्पन्न होने लगा कि व्यक्ति के जीवन में होने वाली चीज़ भगवान द्वारा नहीं बल्कि व्यक्ति के कर्म से निर्धारित होती है। इस दृष्टिकोण से, मनुष्यों के पास खुद को और जिस वातावरण में वे रहते हैं, उसे बदलने के लिए कुछ स्वतंत्रता मिल जाती है। वहीं हिंदू धर्म मनुष्य के जीवन में भाग्य और व्यक्तिगत स्वतंत्र इच्छा दोनों के महत्व को मानता है। हिन्दू धर्म का मानना है कि मनुष्य अपने कर्मों के लिए ज़िम्मेदार है तथा इस दुनिया को भगवान की रचना का एक उत्पाद माना जाता है, जिसमें वास्तविक कर्ता वास्तव में सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान ईश्वर है।
प्राचीन भारत में कुछ ऐसे विचार थे जो भाग्यवाद के रूप में जाने जाते थे, जिन्हें नियतिवाद भी कहा जाता था, जिनमें से एक प्रसिद्ध आजिवका संप्रदाय भी था। वे निष्क्रिय जीवन यापन में विश्वास करते थे और सभी मानवीय प्रयासों को समय की बर्बादी मानते थे। दूसरी ओर गोसाला इस संप्रदाय के प्रमुख विरोधियों में से एक थे। महावीर और बुद्ध दोनों गोसल के समकालीन थे और उन्होंने गोसाला के साथ कई साल बिताए, लेकिन संप्रदाय के सिद्धांत के कुछ पहलुओं, विशेष रूप से भाग्य और स्वतंत्र इच्छा पर उनके और गोसाला के बीच अपूरणीय अंतर के कारण उन्होंने अपना रास्ता बदल दिया। महावीर और बुद्ध दोनों ही कर्म में विश्वास रखते थे, जबकि गोसाला नियति या नियतत्ववाद (जिसके अनुसार दुनिया एक पूर्व निर्धारित तरीके से चलती है) में विश्वास करते थे।
भाग्यवाद के संबंध में एक प्रसिद्ध प्राचीन तर्क तथाकथित “व्यर्थ तर्क”, यह तर्क देता है कि अगर कोई चीज़ नियत है, तो उसे लेकर कोई भी प्रयास करना व्यर्थ या निरर्थक होगा। व्यर्थ तर्क को ऑरिजेन और सिसरो द्वारा वर्णित किया गया था और यह इस प्रकार था:
•	यदि किसी की नियति में किसी बीमारी से ठीक होना लिखा होगा तो वह बिना चिकित्सक के पास जाए भी ठीक हो जाएगा।
•	इसी तरह, यदि किसी की नियति में उस बीमारी से ठीक होना नहीं लिखा होगा तो चाहे वह चिकित्सक के पास जाए या न जाए, बात बराबर ही है।
•	तो नियति में चाहे ठीक होना लिखा हो या न लिखा हो, दोनों ही परिस्थिति में, चिकित्सक से परामर्श करना व्यर्थ है।
व्यर्थ तर्क का अनुमान अरस्तू ने अपने ‘डी इंटरप्रिटेशन चैप्टर 9’ (De Interpretatione chapter 9) में लगाया था।
थिब्स के दुखी राजा इडिपस और उनकी शोकमय कहानी में "भाग्य या स्वतंत्र इच्छा" की समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण विचार है। भाग्यवाद के विचार के लिए एक लोकप्रिय तर्क यह सुझाव है कि भविष्य की घटनाओं के बारे में बयान न तो सही हैं और न ही गलत हैं। हालांकि, यह एक तार्किक असंगति की ओर जाता है। अरस्तू एक समुद्री युद्ध के उदाहरण का उपयोग करते हुए इसे समझाते हैं, जो कुछ यह है:
यदि दो सेनापति असहमति में हैं, और एक कहता है कि कल समुद्री युद्ध होगा और दूसरा कहता है कि नहीं होगा, तो हम विश्वास के साथ यह कैसे कह सकते हैं कि दोनों में से कोई भी सही नहीं है? माँ लीजिये कि सूरज उगता है और वास्तव में एक समुद्री युद्ध होता है, तो क्या हम वास्तव में यह कह सकते हैं कि पहले सेनापति का अनुमान गलत था जबकि इस तथ्य में वह बिल्कुल सही था? अरस्तू इसे बेतुका बताते हैं। इस तर्क के निहितार्थ चौंका देने वाले हैं, क्योंकि इससे यह प्रतीत होता है कि हम जो कुछ भी करते हैं वह पूर्व निर्धारित होता है, कि हमारे साथ क्या होने वाला है, इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रहता है। ऐसा मान सकते हैं कि हमारी स्वतंत्र इच्छा का विचार केवल एक भ्रम है।
संदर्भ:
1. https://en.wikipedia.org/wiki/Fatalism
2. https://www.rep.routledge.com/articles/thematic/fatalism-indian/v-1
3. https://www.hinduwebsite.com/hinduism/h_fatalism.asp
4. https://bit.ly/2LK52ze
चित्र सन्दर्भ:-
1. https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Jan_Toorop_003.jpg
2. https://commons.wikimedia.org/wiki/File:History_of_art_(1921)_(14596740897).jpg
3. https://bit.ly/2LMBn8V
4. https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Krishna_tells_Gota_to_Arjuna.jpg