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लखनऊ जिले में स्थित चिनहट अपने विस्तृत मिट्टी के बर्तनों और मिट्टी की वस्तुओं के लिए विशेष रूप से जाना जाता है, यहां लगभग 200 कारीगर मिट्टी से बनी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। प्रजापति समुदाय के लोगों की संख्या में वृद्धि होने और यह एक मुख्य कारोबार होने के चलते सरकार की पहल पर यहां 1958 में चिनहट पॉटरी (Pottery) के नाम से यूनिट की स्थापना की गई, एक दर्जन यूनिटों में चीनी मिट़्टी का कार्य होता था।
 इन्हें पकाने के लिए प्रदूषणमुक्त चिमनियों वाली भट्टियों का उपयोग किया जाता था, कुछ समय पहले बर्तनों की खनक से गुंजायमान रहने वाले ये चिनहट पॉटरी भटि्टयों के बीच गुम हो गई थी।
परंतु आज देश विदेश में अपने बर्तनों से लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाले इस उद्योग को लेकर एक बार फिर उम्मीद जगी है। काम छोड़कर दूसरे काम को कर रहे पुराने लोगों में भी इस पुरानी परंपरा को जीवंत करने का जज्बा अभी भी बरकरार है।
 वर्तमान समय में, यहां निर्मित वस्तुओं में सजावटी और बागवानी बर्तन अधिक मात्रा में निर्मित होते हैं। मिट्टी के इन बर्तनों का अध्ययन पिछली संस्कृतियों के बारे में जानकारी और अंतर्दृष्टि प्रदान करने में मदद कर सकता है। मिट्टी के बर्तन टिकाऊ होते हैं, और इनके टुकड़े कम टिकाऊ सामग्री से बनी कलाकृतियों की तुलना में अक्सर लंबे समय तक जीवित रहते हैं। अन्य साक्ष्यों के साथ, मिट्टी के बर्तनों की कलाकृतियों का अध्ययन उन समाजों के संगठन, आर्थिक स्थिति और सांस्कृतिक विकास के सिद्धांतों के विकास में सहायक है, जिन्होंने मिट्टी के बर्तनों को उत्पादित या निर्मित किया। मिट्टी के बर्तनों के अध्ययन से एक संस्कृति के दैनिक जीवन, धर्म, सामाजिक संबंधों, पड़ोसियों के प्रति दृष्टिकोण, दुनिया के प्रति दृष्टिकोण और यहां तक कि उसने ब्रह्मांड को कैसे समझा, के बारे में भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
मृत्तिका के बर्तन टूटने योग्य होते हैं, लेकिन छोटे टुकड़े जमीन में सैकड़ों वर्षों के बाद भी लगभग अविनाशी होते हैं। ये बर्तन खाना पकाने, परोसने और भोजन के भंडारण के लिए उपयोग किये गये थे और कलात्मक अभिव्यक्ति का एक माध्यम भी थे। प्रागैतिहासिक कुम्हारों ने विभिन्न प्रकार से अपने बर्तनों को बनाया और सजाया। अक्सर एक समुदाय या क्षेत्र के कुम्हारों ने कुछ विशेष प्रकार के बर्तन बनाए क्योंकि बर्तनों और इनकी शैलियों को समूहों के बीच साझा किया गया था, इसलिए पुरातत्वविद अक्सर साइटों (Sites) को समय और स्थान से संबंधित कर सकते हैं। जब किसी स्थल पर मिट्टी के पात्र पाए जाते हैं, तो वे आमतौर पर छोटे, टूटे टुकड़ों के रूप में पाए जाते हैं। इन सभी टुकड़ों को फिर से संगठित कर अनेक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं। 
लगभग 2,800 वर्ष पहले वुडलैंड (Woodland) के समय में मिट्टी के बर्तनों की पहली उपस्थिति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह इंगित करता है कि लोग कैसे पहले की तुलना में अधिक गतिहीन हुए अर्थात उनमें अधिक समय तक बैठने की क्षमता उत्पन्न हुई। पहले लोग पेड़ों की भीतरी छाल या ईखों से बने हल्के या बुने हुए बर्तन इस्तेमाल करते थे क्योंकि घुमंतू शिकारी भारी और टूटने वाले बर्तनों को अपने साथ नहीं ले जाना चाहते थे। लेकिन जैसे ही लोगों ने अधिक स्थायी गांवों में बसना शुरू किया, तो उन्होंने मिट्टी के बर्तनों को बनाने का प्रयास करना शुरू किया। मिट्टी के बर्तनों को धाराओं के साथ या पहाड़ियों पर एकत्रित मिट्टी से बनाया गया था। बर्तनों को तपाने और सुखाने के दौरान उन्हें सिकुड़न और दरार को रोकने के लिए रेत, पीसे हुए पत्थरों, जली हुई पीसी मिट्टी, पौधे के तंतुओं आदि को इसमें मिलाया गया। प्रागैतिहासिक बर्तनों को कई तरीकों से बनाया गया था, जिनमें कोइलिंग (Coiling), पैडलिंग (Paddling), पिंचिंग (Pinching) और आकार देना है।
प्रागितिहास काल के मिट्टी के बर्तनों की जांच से वैज्ञानिकों ने जाना कि उच्च तापमान के तापन से मिट्टी में लोहे की सामग्री उस सटीक क्षण में पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सटीक स्थिति को रिकॉर्ड (Record) करती है। मिट्टी के बर्तन पुरातत्वविदों के लिए विभिन्न समय काल का निर्धारण करने में सहायक सिद्ध होते हैं। पुरातत्व मनुष्य के जीवन काल के प्रारंभ तथा उसके द्वारा उपयोग में लायी गयी वस्तुओं के अवशेषों के अध्ययन से जुड़ा हुआ है। मानव विकास के विभिन्न पहलुओं की जानकारी पुरातत्व विज्ञान से ही हमें प्राप्त हुई है, जिसमें मिट्टी के बर्तनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। मिट्टी के बर्तनों के अवशेष ये जानकारी देते हैं कि वह किस काल और संस्कृति से सम्बंधित है। किसी भी पुरास्थल अन्वेषण के दौरान जब मिट्टी के बर्तनों के अवशेष पुरातत्वविदों को प्राप्त होते हैं, तो वह उस अवशेष के आधार पर उस पुरास्थल की ऐतिहासिकता को सिद्ध कर देता है। पुरातत्वविद विभिन्न काल में बने मिट्टी के बर्तनों के प्रकार और विशिष्टताओं में अंतर कर पाते हैं। बिना किसी स्पष्ट सीमाओं के साथ पुरातत्वविदों के लिए मिट्टी के बर्तन मुख्य आधारों में से एक बन गए हैं। 
प्राचीन समय में विकसित हुए मिट्टी के बर्तनों की समय के साथ मांग में भी कमी आने लगी है, जहां किसी जमाने में चिनहट में 100 से 150 करोड़ रुपये का कारोबार होता था लेकिन वहाँ अब ये सिमट कर दो से तीन लाख रुपये ही रह गया है, इसका मुख्य कारण है लोगों का इस उद्योग से दिलचस्पी खो देना। कुछ कारीगरों का कहना है कि युवा पीढ़ी यदि इस उद्योग में कार्य करते हैं तो प्रोत्साहन में कमी के कारण उनका भी इससे मन ऊबने लगता है। चीनी मिट्टी के बर्तनों के साथ यहां बने टेराकोटा के बर्तनों की विदेश तक में मांग हुआ करती थी। वहीं जो कारीगर 1985 से चीनी मिट्टी के साथ ही टेराकोटा का काम कर रहे थे, उन्हें अब इसे आगे बढ़ाने में दिक्कत हो रही है, जिसका मुख्य कारण है मिट्टी का न मिलना और युवा पीढ़ी का परंपरागत काम को छोड़ दूसरे काम में दिलचस्पी लेना। इन सभी स्थिति को देखते हुए सरकार ने चिनहट के पॉटरी उद्योग से संबंधित कदम उठाये हैं, जिसमें जो वहां के लोग चाहेंगे वही कार्य करना, उसमे पूरी मदद करने का आश्वासन दिया है। जिला उद्योग केंद्र के माध्यम से तकनीक के साथ ही इस परंपरागत काम को आगे बढ़ाने में अनुदान की भी व्यवस्था की गई है, चिनहट के पॉटरी उद्योग में जो भी काम करना चाहता है, विभाग से संपर्क कर सकते हैं।