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सिकंदर महान के साथ विश्व विजय पर निकली यूनानी सेना अपने साथ अपनी कला एवं संस्कृति को भी ले गयी थी, जिसका प्रभाव विश्वभर की कला एवं संस्कृति पर पड़ा। चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से प्रथम शताब्दी ईस्वी के मध्य यूनानी आक्रमण के पश्चात् यूनानी हेलेनिस्टिक (Hellenistic) कला भारत में पहुँची। प्रारंभ में यूनानियों ने भारत के प्रवेश द्वार अर्थात पश्चिमोत्तर भारत में अपनी राजनीतिक उपस्थिति बनाए रखी, पहली शताब्दी ईस्वी. में इन्होंने ग्रीको-बैक्ट्रियन साम्राज्य (Greco-Bactrian Kingdom) और इंडो-ग्रीक साम्राज्यों (Indo-Greek Kingdoms) के साथ मध्य भारत में भी प्रवेश किया। विशेष रूप से मौर्य साम्राज्य (321 ईसा पूर्व.– 185 ईसा पूर्व) की कलाओं में हम इनका प्रभाव देख सकते हैं। आगे चलकर भारतीय और यूनानी मूर्तिकला के संमिश्रण से पश्चिमोत्तर भारत में मूर्तिकला की नवीन शैली ‘गांधार शैली’ का विकास हुआ। यह भारत में प्रतिमाओं के विकास का प्रारंभिक दौर था। भारतीय शास्त्रीय साहित्य पर भी यूनानी प्रभाव पड़ा।
गांधार कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है। गांधार कला की विषय-वस्तु भारतीय थी, परन्तु कला शैली यूनानी और रोमन थी। इसलिए गांधार कला को ग्रीको-बौद्ध (Greco-Buddhist) कला भी कहा जाता है। ग्रीको-बौद्ध कला, यूनानी-बौद्ध धर्म की कलात्मक अभिव्यक्ति है, यह उत्कृष्ट यूनानी संस्कृति और बौद्ध धर्म के बीच एक सांस्कृतिक समन्वय था, जो चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सिकंदर महान के आक्रमण से सातवीं शताब्दी ईस्वी. में इस्लामी आक्रमण के मध्य विकसित हुआ। ग्रीको-बौद्ध कला हेलेनिस्टिक कला का ही स्वरूप है। इस कला में सर्वप्रथम बुद्ध को मानवीय छवि के रूप में प्रस्तुत किया गया। इसने पूरे एशियाई महाद्वीप में बौद्ध कला के लिए कलात्मक (विशेष रूप से, मूर्तिकला) कैनन (Canon) को प्रसारित करने में सहायता की। यह पूर्वी और पश्चिमी परंपराओं के बीच सांस्कृतिक समन्वय का एक अनूठा उदाहरण भी है, जिसे किसी अन्य कला ने इस भांति प्रस्तुत नहीं किया है।
मौर्य साम्राज्य में सम्राट अशोक के समय (268 ईसा पूर्व - 232 ईसा पूर्व) में भारतीय पाषाण स्थापत्य कला की स्थापना में हेलेनिस्टिक कला की महत्वपूर्ण भूमिका रही। मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के प्राचीन महल में खुदाई से हेलेनिस्टिक मूर्तिकला के अवशेष मिले हैं। तत्कालीन अशोक स्तंभ में भी इस शैली का स्पष्ट प्रभाव दिखायी देता है। अशोक से पहले संभवत: लकड़ी की वास्तुकला रही होगी। मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के खण्डहरों में एक आयताकार स्मारक मिली जो लगभग तीसरी शताब्दी की थी, यह अब तक की ज्ञात स्मारकों में से सबसे प्राचीन है और भारतीय पाषाण स्थापत्य कला में हेलेनिस्टिक के सम्मिश्रण का पहला उदाहरण भी है। हालांकि पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा यहां की संपूर्ण खुदाई नहीं की गयी है, यह स्मारक यहां की वास्तुकला का एक छोटा सा नमूना है। मौर्य साम्राज्य की एक अन्य राजधानी सारनाथ को भी लगभग पाटलीपुत्र के समान ही डिजाइन (Design) किया गया है, सारनाथ का मूर्ति शिल्प और स्थापत्य मूर्तिकला का एक अति श्रेष्ठ नमूना है। मौर्य काल के दौरान अशोक द्वारा बोधगया के महाबोधि मंदिर में वज्रासन का निर्माण करवाया गया, जो कि एक सिंहासन है। 260 ई.पू. में इस स्थान पर महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुयी थी। इसी घटना को चिन्हित करने के लिए यहां पर वज्रासन का निर्माण करवाया गया था।
अशोक ने अपने शासनकाल के दौरान सात स्तंभों का निर्माण करवाया था, पाषाण के ये स्तम्भ उस काल की उत्कृष्ट कला के प्रतीक हैं। 250 ई.पू. पत्थर की वास्तुकला में महारत हासिल करने का यह पहला प्रयास था, क्योंकि उस अवधि से पहले भारत में कोई भी ज्ञात पत्थर के स्मारक या मूर्तियां नहीं हैं। अशोक के सात स्तंभों में पांच में शेर, एक में हाथी और एक में ज़ेबू बैल (Zebu Bull) बना है। पशुओं की मूर्तियां एक समान आधार पर बनाई गयी हैं, स्तंभ को पशुओं और पुष्पों के चित्रों से सजाया गया है। स्तंभ के ऊपर मौजूद प्रत्येक पशु भारत में एक पारंपरिक दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के ग्रीक स्तंभों (Greek Columns) जैसे कि नैक्सोस के स्फिंक्स (Sphinx of Naxos), डेल्फी (Delphi) के धार्मिक केंद्र में स्थित आयोनिका (Ionic) के स्तंभ के शीर्ष पर पशु की मूर्ति विराजमान है संभवत: अशोक स्तंभ के लिए भी यहीं से प्रेरणा ली गयी होगी।
पाटलिपुत्र स्तंभ में फ्लेम पेलमेट (Flame Palmette) का कार्य किया गया है, जो कि एक सजावटी कला है, इसमें मुख्यत: फूल पत्ती के डिजाइन (Design) बनाए जाते हैं। इस कला की उत्पत्ति यूनान से मानी जाती है। इस कला की पहली झलक यूनान के पार्थेनन (Parthenon) (447–432 ईसा पूर्व) मंदिर में देखी गयी है। आगे चलकर एथेना नाइक (Athena Nike) के मंदिर में इसे देखा गया। भारत में अशोक के स्तंभों पर फ्लेम पेलमेट सजावटी कला का व्यापक उपयोग किया गया है। भरहुत (Bharhut) (दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व) में सुंगा (Sunga) प्रवेश द्वार के शीर्ष पर फ्लेम पेलमेट के कार्य को देखा जा सकता है। भारत के कुछ सबसे पुराने अस्थायी मंदिरों के बारे में माना जाता है कि यह गोलाकार हैं, जैसा कि राजस्थान के बैरात (Bairat) में स्थित बैरात मंदिर, एक केंद्रीय स्तूप से बना है जो गोलाकार स्तंभों और दीवार से घिरा हुआ है, इसे अशोक के समय में बनाया गया था और इसके पास कई लघु शैल फरमान (Minor Rock Edicts) अंकित किए गए हैं।
स्तूपों और स्तंभों के विभिन्न रूपों के अतिरिक्त, मौर्य शासकों ने सुंदर आकृतियों को भी बनवाया। दीदारगंज की मादा `याक्षी` और पार्कम में पुरुष प्रतिमा इसके उल्लेखनीय उदाहरण हैं। कई टेराकोटा (Terracotta) की मूर्तियाँ भी कारीगरों द्वारा गढ़ी गईं और मिट्टी की देवी देवताओं की मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। मौर्य राजवंश में निर्मित भारतीय शैलकर्तित स्थापत्य गुफाएं, महल और भवन भी रचनात्मक कलाकृति के लिए प्रसिद्ध हैं। जिनमें मौर्यकालीन कला में फ़ारसी और हेलेनिस्टिक कला का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है।