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कोविड-19 (COVID-19) के देश में प्रवेश करने से लोगों में हलचल सी मच गई। इससे बचने के लिए सरकार को लॉकडाउन (Lockdown) का सहारा लेना पड़ा। जिसके सकारात्मक प्रभाव से इंसानों पर ही नहीं बल्कि पेड़-पौधे जीव जंतु पर्यावरण पर विशेष रूप से देखा जा रहा है। आज प्रकृति लोगों के लिए वरदान साबित हो रही है। लॉकडाउन के पूर्व भारी प्रदूषण के कारण जीव-जंतु, पशु-पक्षी को शहरों में काफी कम देखा जाता था। परंतु आज वह शहरों की ओर भी रूख कर रहे हैं। नदियों में निर्मल जल का प्रवाह हो रहा है, वहीं पेड़-पौधे, जीव-जंतु, पशु, पक्षी आदि के लिये मानो, तो उनके पुराने दिन भी लौट आए हैं। तोता, मैना, कोयल, गिलहरी, कौआ, गौरैया और कई प्रकार की तितलियां अब लखनऊ में भी विचरण करते देखे जा रहे हैं। पर्यावरणविदों के एक समूह ने गोमती नदी के आसपास पक्षियों, तितलियों और मछलियों की कई प्रजातियों को पाया। उन्होनें गोमती नदी कांस्य पंख (Bronze Featherback) या नोटोपेरस (Notopterus) नामक मछली की प्रजाति को देखा, जोकि केवल ताजे पानी में ही जीवित रह सकती है। इस मछली का देखा जाना इस बात का संकेत देता है कि गोमती नदी के विघटित ऑक्सीजन स्तर में सुधार हुआ है और प्रदूषण का स्तर गिर गया है।
गिरते प्रदूषण स्तर का असर लखनऊ चिड़ियाघर में भी देखने को मिला, आज इसके परिसर में हर रात जुगनुओं (Fireflies) को जगमगाते देखा जा रहा है। लॉकडाउन से प्रदूषण और शोर के स्तर में गिरावट से लखनऊ चिड़ियाघर में प्रवासी पक्षियों, उल्लू, चमगादड़ और तितलियों की कई प्रजातियों ने अपना डेरा डाल लिया है। इस वहज से लेपिडोप्टेरिस्ट (Lepidopterist) - जो लोग तितलियों का अध्ययन करते हैं, वे खुश हैं क्योंकि चमकीले रंग के ये प्राकृतिक विमान लॉकडाउन की अवधि में फल-फूल रहे हैं। हालांकि ये कीट सौंदर्य के स्रोत हो सकते हैं, परंतु कुछ ऐसे भी हैं जो दुनिया में अकाल का कारण भी बन रहे हैं, जैसे की टिड्डियां (Locust)। ऐक्रिडाइइडी (Acridiide) परिवार के ऑर्थाप्टेरा (Orthoptera) गण का कीट है। हेमिप्टेरा (Hemiptera) गण के सिकेडा (Cicada) वंश का कीट भी टिड्डी या फसल टिड्डी (Harvest Locust) कहलाता है। इसे लघुश्रृंगीय टिड्डा (Short Horned Grasshopper) भी कहते हैं। यह प्रवासी कीट है और इसकी उड़ान कई हजार मील तक पाई गई है।
ये कीड़े आमतौर पर अकेले रहते हैं, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में ये झुंड के रूप में भी देखे जाते हैं, और अपने व्यवहार तथा आदतों को बदलते रहते हैं। टिड्डी एक ऐसी प्रजाति है जो निर्जन स्थानों में एकांत जीवन जीती है। ऐसे में इन्हें झुंड के रूप में तो होना ही नहीं चाहिए। लेकिन ये विशाल झुंड के रूप में हमला कर रही हैं। जब उनके लिए हरे-भरे इलाकों का क्षेत्रफल कम हो जाता है, तब ये टिड्डियां अपना एकाकी जीवन छोड़कर झुंड का रूप बना लेती हैं। इस चरण में टिड्डियां अपना रंग बदलकर समूह बना लेती हैं। इनका एक बड़ा झुंड कृषि के लिए आर्थिक खतरा पैदा करता है। शुष्क व अर्ध शुष्क क्षेत्रों की उपयुक्त परिस्थितियों में, इनके दिमाग में सेरोटोनिन (Serotonin) परिवर्तन के कारण ये बहुतायत से प्रजनन करना शुरू कर देते हैं, और जब उनकी आबादी काफी घनी हो जाती है तो खानाबदोश बन जाते हैं तथा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सफर करते हैं। ये बड़ी दूरियों की यात्रा कर सकते हैं और सामने आने वाली हर फसल को मिनटों में चट कर जाते हैं। कई देशों में टिड्डों के आतंक को टिड्डे प्लेग (Locust Plague) का भी नाम दिया गया है। इसको किसानी से जुड़े मामलों में प्लेग की संज्ञा दी गई है। जब टिड्डियों का विशाल झुंड महाद्वीपों में फैल जाता है तो इसे प्लेग का नाम दे दिया जाता है।
इंसानी इतिहास में कई बार टिड्डियों के हमलों को देखा गया। प्राचीन मिस्र (Egypt) वासियों ने उन्हें अपने मकबरों पर उकेरा है, और इनका उल्लेख और कीड़े का उल्लेख इलियद (Iliad), महाभारत (Mahabharata), बाइबल (Bible) तथा  कुरान (Quran) में भी किया गया है। हाल ही में भारत ने एक नई तरह की मुसीबत  "टिड्डे प्लेग" का सामना किया। इस 4 इंच के छोटे से जीवों ने पूरे भारत में खौफ पैदा कर दिया था। टिड्डियों के इन दलों ने पहले राजस्थान में हमला बोला और फिर वे मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों और महाराष्ट्र में घुसे। इसके आगमन के सामान्य समय से कई महीने पहले, 11 अप्रैल को इनको भारत-पाकिस्तान सीमा पर देखा गया था। पिछले 25 वर्षों में यह सबसे बड़ा टिड्डा हमला था।
ऐतिहासिक रूप से जयपुर (Jaipur), ग्वालियर (Gwalior), मुरैना (Morena) और श्योपुर (Sheopur,) से जुड़े क्षेत्रों में टिड्डियों को देखा गया था, पिछले कई सालों से राजस्थान में हजारों एकड़ फसलों को ये टिड्डियां चट करती आ रही हैं। परंतु इस बार इन्होनें शहरी इलाकों का भी रूख किया। इसके झुंड तेज गति की हवा का सहारा ले कर भोजन की तलाश में महाराष्ट्र के अमरावती, नागपुर तक चले गये और बाद में यूपी और पंजाब तक फैल गये। भारत में समय से पहले इनके आगमन का कारण 2018 में ओमान (Oman) और यमन (Yemen) में आए चक्रवाती तूफानों मेकुनु (Mekunu) और लुबैन (Luban) को बताया जा रहा है। इन तूफानों के कारण यहां के बड़े रेगिस्तानों में मौसम नम हो गया और टिड्डियों को पनपने के लिए नम मौसम की जरूरत होती है। देर तक ठहरे मानसून ने टिड्डियों के प्रजनन के लिए बढ़िया हालात बनाए। इस झुंड ने अफ्रीका (Africa) में फसलों पर हमला किया और प्रजनन कर नवंबर तक ये अपनी आबादी के चरम सीमा तक पहुचं गये। भोजन की तलाश में फिर इन्होनें 2020 की शुरुआत के बाद मार्च-अप्रैल में दक्षिणी ईरान और पाकिस्तान पर हमला किया और यहां से ये पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गये।   
महज चार सेंटीमीटर लंबी ये टिड्डियां किस कदर भूखी होती हैं कि आप इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि छोटे आकार का एक टिड्डी दल एक दिन में उतना खाद्य पदार्थ खा जाता है, जिससे वैश्विक मानकों के अनुसार 35 हजार लोगों का पेट आसानी से दिन में दो बार भरा जा सकता है। हालांकि वर्तमान में जब ये टिड्डियां भारत आई तो रबी की फसल कट चुकी थी जिससे नुकसान की संभावना कम हो गई। परंतु आगामी समय की खरीफ फसलों को ये नुकसान पहुंचा सकती हैं। क्योंकि एक वयस्क मादा टिड्डी अपने तीन महीने के जीवन चक्र में तीन बार 80-90 अंडे देती है। यदि इनकी आबादी को नियंत्रित न किया तो इनका एक झुंड प्रति वर्ग किलोमीटर 40-80 मिलियन टिड्डी तक तेजी से बढ़ सकता है। ये टिड्डियां मानसून शुरू होने के बाद अंडे देना शुरू कर देंगी और दो महीनों तक प्रजनन जारी रखेंगी, जिससे खरीफ फसल के विकास के चरण के दौरान इनकी नई पीढ़ियां का भी विकास हो जायेगा जो की फसलों के लिये हानिकारक सिद्ध होगा। इन कीड़ों पर समय पर कार्रवाई न करने पर यह फसलों व वनस्पति पर काफी प्रभाव डालते हैं। ऐसे में अगर फसलों और वनस्पतियों को नुकसान होगा तो देश में फसलों से जुड़े खाद्य पदार्थों पर महंगाई सहित भूखमरी जैसी स्थिति भी आ सकती है।
टिड्डियों के झुंड को नियंत्रित करना कोई आसान काम नहीं है, और जितना बड़ा झुंड होगा कार्य उतना ही कठिन होता जाएगा। याद रखें, झुंड बनाने में केवल तीन टिड्डियां ही काफी होती हैं। अफ्रीका में इनकी रोकथाम के लिये टिड्डी निगरानी स्टेशन बनाये, पारिस्थितिक स्थितियों और टिड्डियों की संख्या पर डेटा एकत्र किया, जिससे उन्हें  प्रजनन का समय और स्थान का पूर्वानुमान हो जाये। इन प्रयासों के बावजूद, 2003-2005 में पश्चिम अफ्रीका को टिड्डों के प्रकोप का सामना करना पड़ा।
टिड्डी दल से बचाव के उपाय
इसके नियंत्रण उपायों में टिड्डियों की रात्रि विश्राम करने वाली जगहों पर कीटनाशक का छिड़काव करना शामिल है। इस समय अकेले, राजस्थान में 21,675 हेक्टेयर खेती की जमीन पर कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जा रहा है। परंतु बड़े भाग में ज्यादा कीटनाशकों का इस्तेमाल पर्यावरण और किसान दोनों के लिये बहुत महंगा साबित होता है। अध्ययन से पता चलता है कि टिड्डियां शोर के प्रति अतिसंवेदनशील होती है। टिड्डी दल को भगाने के लिए थालियां, ढोल, नगाड़़े, लाउडस्पीकर (Loudspeaker) या दूसरी चीजों के माध्यम से शोरगुल मचाएं, जिससे वे आवाज़ सुनकर खेत से भाग जाऐं। इसके अलावा पक्षी और सरीसृप भी इनको भगाने के लिये कारगर साबित हो सकते हैं।