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दास प्रथा या गुलाम प्रथा के तहत कई लोगों को विदेशों से भारत लाया गया जिनमें, अफ्रीका (Africa) के लोग भी शामिल थे। इन लोगों के वंशजों को आज सिद्दी (Sidi), हब्शी (Habshi) आदि नामों से जाना जाता है। यह समुदाय भारत और पाकिस्तान (Pakistan) में रहने वाला एक समूह है, जिसके सदस्य दक्षिण पूर्व अफ्रीका के बांटू (Bantu) लोगों के वंशज हैं। इनकी मुख्य आबादी भारत में कर्नाटक, गुजरात और हैदराबाद तथा पाकिस्तान में मकरान (Makran) और कराची (Karachi) में मौजूद है, जहां इनकी अनुमानित संख्या 2 लाख 70 हजार से लेकर 3 लाख 50 हजार तक हो सकती है। सिद्दी मुख्य रूप से मुस्लिम हैं, हालांकि कुछ का सम्बंध हिंदू धर्म और कैथोलिक चर्च (Catholic Church) से भी है। भारत में इनका आगमन सबसे पहले 628 ईस्वी में भरूच (गुजरात) बंदरगाह पर हुआ था। इसके बाद, इस समूह के कई अन्य लोग 712 ईस्वी में, उपमहाद्वीप में पहली अरब (Arab) इस्लामी विजय के साथ आये, जबकि कुछ लोगों को मुहम्मद-बिन-कासिम (Muhammad-bin-Qasim) की अरब सेना के साथ सैनिकों के रूप में भारत लाया गया, जिन्हें ज़ंजीस (Zanjis) नाम दिया गया। दक्कन सल्तनत और पुर्तगाली  लोगों (Portuguese) द्वारा अफ्रीकी मूल के कई लोगों को गुलाम या दास के रूप में भारत लाया गया तथा इन्होंने यहां नाविकों, गिरमिटिया सेवकों, दासों, सैनिकों आदि रूपों में काम किया। हैदराबाद में, सिद्दी समुदाय की स्थापना अरब सिद्दी प्रवासियों द्वारा की गई थी, जिन्होंने हैदराबाद के निजाम आसिफ जही (Asif Jahi) की सेना में घुड़सवार रक्षकों के रूप में कार्य किया। गुजरात की बात करें तो यहां, सिद्दी लोगों को जूनागढ़ के स्थानीय राजकुमार की सेवा लिए गुलाम के रूप में पेश किया गया था। कर्नाटक में सिद्दी समुदाय पिछले 400 वर्षों से मौजूद है तथा पूरे भारत की सिद्दी आबादी का एक तिहाई से भी अधिक हिस्सा यहां निवास करता है। यूं तो, अफ्रीकी मूल के इन लोगों को मुख्य रूप से गुलाम के तौर पर भारत लाया गया था, लेकिन इनमें से कई लोग ऐसे भी थे जिन्होंने, विभिन्न रियासतों में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त की। मलिक अंबर (Malik Ambar) इन्हीं लोगों में से एक थे, जिन्हें 16 वीं शताब्दी के दौरान अहमदनगर में एक सैनिक-गुलाम के रूप में लाया गया था, किंतु बाद में वे दक्कन सल्तनत की सेना के सेनापति के रूप में उभरे।
विगत वर्षों में हुए एक अध्ययन के अनुसार लखनऊ में भी सिद्दी समुदाय मौजूद था जिन्हें, अवध के शाही परिवारों ने अंगरक्षकों के तौर पर नियुक्त किया था। इस बात का उल्लेख 19वीं शताब्दी के आधिकारिक विवरण में किया गया है। 1857 में जब ब्रिटिश (British) लोगों ने अवध पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहा तब, नवाब द्वारा नियुक्त किये गए अफ्रीकी मूल के इन अंगरक्षकों ने उनका सामना किया तथा नवाबों के लिए अपनी घनिष्ठ वफादारी पेश की। नवाब सआदत अली खान (Saadat Ali Khan) ने 19 वीं शताब्दी में हब्शी लड़कों को घुड़सवार के तौर पर नियुक्त किया। लखनऊ के एक अन्य नवाब ने भी इन लोगों को गुलाम के रूप में आयात किया, जिनमें महिलाएं भी शामिल थीं। इन महिला गुलामों को नवाब ने सैनिकों के रूप में जनाना (Zenana) या शाही महिला आवासों का संरक्षण करने का कार्य दिया। ऐसा माना जाता है कि, लखनऊ के अंतिम शासक वाजिद अली शाह (Wajid Ali Shah) ने हब्शी रिसाला रेजिमेंट (Risalla Regiment) की स्थापना की थी, जिसमें 1200 अफ्रीकी लोग शामिल थे। नवाब ने एक स्कूल परी खाना (Pari Khana) भी स्थापित किया, ताकि लड़कियों को एक गायिका और नर्तकी के रूप में प्रशिक्षित किया जा सके। हाजी अली शरीफ (Haji Ali Sharif), उन अफ्रीकी लोगों में से एक थे जिन्हें, गुलाम के रुप में लखनऊ लाया गया था। किंतु बाद में उन्होंने, कैविलेरी (Cavalry) रेजीमेंट का नेतृत्व किया। इसी प्रकार से एक अन्य हब्शी, दियानत-उद-दौला (Diyanat-ud-Daula) को अफ्रीकी महिलाओं की रेजीमेंट दी गयी थी, जिसे गुलाबी पलातून (Gulabi Platoon) भी कहा जाता था। 1857 के विद्रोह में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ अफ्रीकी मूल के इन लोगों ने बढ़-चढ़कर नवाबों का साथ दिया। अवध का संरक्षण करते हुए उनमें से कई लोगों की जान भी चली गयी, किन्तु जब 1857 के विद्रोह का दमन हुआ, तब ब्रिटिश सत्ता द्वारा उनकी शक्तियां छीन ली गयीं और उन्हें गरीबी में धकेल दिया गया। उन्हें नवाबों का साथ देने के लिए दंडित भी किया गया। जो लोग विद्रोह में बच गये थे, उन्होंने मनोरंजनकर्ता, फकीर और कौशल हीन श्रमिकों के रूप में अपना जीवन निर्वाह किया।
जिन स्थानों में सिद्दी समुदाय आज रहते हैं, वहां की संस्कृति को उन्होंने अपना लिया है, हालांकि, संगीत और नृत्य जैसी कुछ विशेष पैतृक प्रथाओं का अभ्यास उनके द्वारा आज भी जारी है। सिद्दी समुदाय में सांस्कृतिक प्रथाओं में अंतर और समानताएं दोनों मौजूद हैं, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि, वर्षों से मौजूद ये समुदाय आज तेजी से विलुप्त होता दिखाई दे रहा है। इसके प्रमुख कारण शिक्षा का अभाव, भेदभाव, उचित पहचान न मिलना आदि हो सकते हैं। दूसरे के साथ भेदभाव किए बिना एक नागरिक की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना बहुत आवश्यक है, क्यों कि, विभिन्न संस्कृतियों के कारण ही विविधता उत्पन्न होती है तथा देश समृद्ध होता है।