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अरब के लोगों का मानना था, कि जिराफ़, ऊँट और तेंदुए के मेल से बना है, और इसलिए इसे ‘केमेलोपार्ड’ (Camelopard) नाम भी दिया गया। यूं तो, जिराफ का मूल अफ्रीका का है, लेकिन यूरोप (Europe) में जिराफ की उत्पत्ति को लेकर कई गलतफहमियां उत्पन्न हुईं। माना जाता है कि, 5 वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास, पूर्वी रोमन साम्राज्य के सम्राट अनास्तासियस (Anastasius) को भारत की तरफ से उपहार मिला था, जिसमें एक हाथी और दो जानवर शामिल थे, जिन्हें "केमेलोपार्डालिस" (camelopardalis) के रूप में जाना जाता था। यहां भारत से तात्पर्य वास्तव में एबिसिनिया (Abyssinia) या इथियोपिया (Ethiopia) से था। दो शताब्दियों के बाद, 7 वीं शताब्दी ईस्वी में एक यूनानी (Greek) कैसियस बाउस (Cassianus Bassus) ने कृषि पर एक लेखन कार्य किया, जिसे उन्होंने जियोपोनिया (Geoponia) नाम दिया। इस कार्य में भी उन्होंने यह उल्लेखित किया कि, केमेलोपार्ड भारत से लाये गये थे। एक सहस्राब्दी बाद 1550 के दशक में, यह त्रुटि और भी अधिक बढ़ गयी, जब फ्रांसीसी (French) पुजारी और यात्री, आंद्रे थेवेट (Andre Thevet) ने अपनी कृति कॉस्मोग्राफ डु लेवेंट (Cosmographie du Levant) लिखी। थेवेट की अरबी भाषा की समझ कम थी, और यह जानते हुए भी कि, अरबियों ने अदन (Aden) और यहां तक कि अबीसीनिया से जिराफ का परिवहन किया था, वे मानने लगे कि, जिराफ को भारत से लाया गया था। उन्होंने यह भी लिखा कि, जिराफ आंतरिक भारत की ऊंची पहाड़ियों में पाए जाते थे। 1607 में, अंग्रेजी लेखक और कलाकार, एडवर्ड टॉपसेल (Edward Topsell) ने चार पैरों वाले जानवरों का इतिहास (Four-footed Beasts) प्रकाशित किया, जो कि, फेंटेस्टिक बिस्ट (Fantastic Beasts) का प्रारम्भिक संस्करण था। इसमें उन्होंने लिखा कि, जिराफ भारत में अबासिया (Abasia) नामक क्षेत्र में पाया जाता था। इस प्रकार इस दौरान अबासिया, एबिसिनिया और मध्य भारत को एक क्षेत्र मानने का भ्रम बढ़ता चला गया। 
हालांकि, जैवविविधता के संरक्षण के लिए विभिन्न जीव-जंतुओं को संरक्षण प्रदान किया जा रहा है, किंतु जिराफ के संरक्षण के प्रति सरकार या विभिन्न संस्थाओं की रूचि कम ही दिखायी देती है। यहां तक कि, जो जिराफ विभिन्न चिड़ियाघरों में मौजूद हैं, उन्हें भी उपयुक्त संरक्षण प्राप्त नहीं हो रहा है। जबकि दुनिया शेरों, गोरिल्ला और हाथियों के संरक्षण पर ध्यान दे रही है, वहीं जिराफ लगभग विलुप्त होते दिखायी दे रहे हैं। पिछले 15 वर्षों में जिराफों की आबादी में 40% की गिरावट आई है, और अब इनकी संख्या 80,000 से भी कम बची है, जो कि, दिन प्रति दिन कम होती जा रही है। जिराफ की हड्डी, त्वचा आदि बहुमूल्य हैं, इसलिए इनका शिकार अपने चरम पर पहुंच गया है। इनकी हड्डियों और त्वचा के टुकड़ों का बड़े पैमाने पर आयात और निर्यात किया जाता है। नक्काशी के लिए इनकी हड्डियों का उपयोग संयुक्त राज्य अमेरिका (America) में एक बड़ा व्यापार बाजार स्थापित कर चुका है। अफ्रीका में अब हाथियों की तुलना में जिराफ की संख्या बहुत कम हो गयी है। एक महिला जिराफ़ अपने जीवनकाल में लगभग पाँच नवजात जिराफों को जन्म देती है, इनमें से लगभग 50 प्रतिशत अपने पहले वर्ष में ही मर जाते हैं। मृत्यु दर का यह प्रतिशत क्षेत्र में शेरों की संख्या के आधार पर घटता और बढ़ता है। कई ग्रामीण अफ्रीकी समुदायों के लोग जिराफ़ की त्वचा का उपयोग कपड़े, जूते, बैग, टोपी आदि बनाने के लिए करते हैं। उनके बाल आभूषण, सिलाई या कड़े के मोतियों को जोड़ने के लिए धागे का काम करते हैं, जबकि पूंछ मक्खियों को हटाने के लिए उपकरण निर्माण में काम आती है। अफ्रीकी सरकार ने जिराफ के शिकार पर प्रतिबन्ध भी लगाया है, लेकिन तब भी इनका अवैध शिकार जारी है। अमेरिकी पर्यटक जिराफ का शिकार करने के लिए स्थानीय शिकारियों को भुगतान भी करते हैं और उनके शरीर के विभिन्न भागों को मंगाते हैं। ट्रॉफी हंटिंग (Trophy hunting – अपने शिकार की सफलता को प्रदर्शित करने के लिए जीव को मारकर उसे या उसके शारीरिक अंगों का प्रदर्शन करना) भी इनकी संख्या में गिरावट का एक महत्वपूर्ण कारण है। इनकी संख्या में तीव्र गिरावट के चलते प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ ने 2016 में अपनी रेड लिस्ट ऑफ थ्रेटड स्पीशीज (Red List of Threatened Species) में इसे “कम चिंताजनक” की श्रेणी से "संवेदनशील” (Vulnerable) की श्रेणी में रखा।
 प्रजातियों का सबसे बड़ा नुकसान पूर्वी अफ्रीका में हुआ है, जहां 1985 के बाद से लगभग 86,000 जिराफों की मौत हुई। जिराफ के अंधाधुंध शिकार के कारण अब इसकी केवल एक ही सफ़ेद प्रजाति बची है। तीन दुर्लभ सफेद जिराफ़ों को पूर्वोत्तर केन्या (Kenya) में पाया गया था, किन्तु इनमें से दो को मार दिया गया, जिससे दुनिया में जिराफ की केवल एक ही सफ़ेद प्रजाति बची है। जिराफ़ का सफ़ेद रंग ल्यूसीज़्म (Leucism) के कारण होता है। यह एक आनुवंशिक स्थिति है, जिसके कारण त्वचा की कोशिकाएं रंगहीन हो जाती हैं। जिराफ को विलुप्त होने से बचाने के लिए इनका संरक्षण अत्यंत आवश्यक है।