ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतीय उपमहाद्वीप में हथियार निर्माण ज्ञान के प्रसार का डर क्यों था?

हथियार और खिलौने
16-07-2022 08:54 AM
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ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतीय उपमहाद्वीप में हथियार निर्माण ज्ञान के प्रसार का डर क्यों था?

अठारहवीं शताब्दी के मध्य में, उत्तर पश्चिमी यूरोप (Europe) और पूर्वी और दक्षिण एशिया के उन्नत क्षेत्रों ने लगभग तुलनीय जीवन प्रत्याशा, खपत की दर और आर्थिक विकास की संभावना का प्रचुर मात्रा में आनंद उठाया। लेकिन 1800 के आसपास, जिसे विद्वान 'महान विचलन' कहते हैं, पश्चिम की शक्ति और धन ने अचानक और नाटकीय रूप से भारत, चीन (China) और तुर्क (Ottoman) साम्राज्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर लिया। अंग्रेजों ने देश की सांस्कृतिक और जातीय श्रेष्ठता के विचारों को ध्यान में रखते हुए अपने साम्राज्य को विस्तारित करने की योजना बनाई। जिसके परिणामस्वरूप एशिया और नई दुनिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद ने यूरोप और एशिया के बीच मौजूदा अंतर को कम करने में मदद की और अभूतपूर्व धन और जबरदस्ती सुरक्षित बाजारों और संसाधनों तक यूरोपीय पहुंच हासिल की। वास्तविकता में, अठारहवीं शताब्दी में, सत्ता ने हर जगह ज्ञान-साझाकरण को एक नया आकार दिया। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में, सैन्य आपूर्ति में लगे सरकारी कार्यालय अक्सर ठेकेदारों को उनके आविष्कारों को पेटेंट (Patent) कराने से रोकते थे, क्योंकि आविष्कारों में एक पेटेंट लगाने से अन्य ठेकेदारों के लिए नवाचार का प्रसार सीमित हो जाता और इस प्रकार तत्काल आवश्यक आपूर्ति के उत्पादन की गतिधीमी हो जाती।जबकि ब्रिटिश सरकार द्वारा ब्रिटेन के भीतर तकनीकी जानकारी को साझा किए जाने के विचार को प्रोत्साहित किया गया, जिससे विदेशों में नवाचार का प्रसार सक्रिय रूप से जारी रहा। हालांकि ब्रिटिश शासन में अंग्रेजों के लिए भारत में नए के बजाय पुराने,विनिर्माणउद्योग चिंता का कारण बने हुए थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा स्थानीय बंदूक-निर्माण को बंद करवाया गया और ब्रिटिश बंदूक बनाने के ज्ञान तक भारतीयों की पहुँच को अवरुद्ध करने के कई प्रयास किए गए। उनके द्वारा ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि हथियार बनाने से देश में औद्योगिक प्रगति में काफी तेजी से वृद्धि होती, जिससे भारत देश प्रफुल्लित हो जाता, जो वे नहीं चाहते थे। उनका मुख्य उद्देश्य भारत की प्रगति को बंद करना और अपने देश की प्रगति को जारी रख उसे कई अधिक शक्तिशाली बनाना था।और वास्तविकता में भी ऐसा ही हुआ, इसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश तोपों पर दक्षिण एशियाई की निर्भरता बढ़ने लगी, जिसने भारत की औद्योगिक क्षमता को कम करते हुए ब्रिटेन के औद्योगिक व्यापार में वृद्धि की। तभी1795-96 में, शहर के एक प्रभावशाली और शक्तिशाली क्वेकर (Quaker) गन-निर्माता ने अपने संबंधित साथी मित्रों को समझाया कि कोई भी औद्योगिक कार्य ऐसा नहीं है जो किसी तरह से युद्ध में योगदान नहीं देता हो। वहीं फ्रांस (France) के खिलाफ लंबे युद्धों के दौरान, सैन्य अनुबंध शहर पर हावी हो गया। तोपखाने के कार्यालय ने अपने उत्पादन पर एकाधिकार करते हुए, हथियार उद्योग पर नियंत्रण कर लिया।1804 से 1815 तक, बर्मिंघम (Birmingham) ने 7,660,229 हथियारों और अवयवों का उत्पादन किया। जबकि शहर में लोगों द्वारा बंदूक व्यापार को बंद करने वाले अंग्रेजों द्वारा लगाए गए किसी भी कानून को रद्द करने का कार्य किया गया। क्योंकि नगरवासी जानते थे कि हथियारों के निर्माण में होने वाली क्षति से पूरे वेस्ट मिडलैंड्स (West Midlands) क्षेत्र को नुकसान होगा, जिससे उनकी आबादी का अधिकांश हिस्सा बेरोजगार हो जाएगा। जिसकी 1815 में युद्धों के बाद औद्योगिक मंदी से पुष्टि हो गई थी। इसी तरह की क्षेत्रीय सैन्य-औद्योगिक अर्थव्यवस्थाएं भारतीय उपमहाद्वीप में भी मौजूद थीं। 16वीं शताब्दी में, हथियारों की बिक्री भारत में तुर्क-मुगल (Ottoman-Mughal) राजनयिक व्यवसाय का हिस्सा बन गई थी। पहले मुगल बादशाह बाबर द्वारा तुर्की की आग्नेयास्त्रों को लाया गया, जिसे मुगल विरोधियों, राजपूतों और अफगानों द्वारा भी अपनाया गया। फिर पुर्तगालियों (Portuguese) और मिस्र (Egypt) के साथ आदान-प्रदान ने उपमहाद्वीप में प्रौद्योगिकी स्थापित करने में मदद की। साथ ही मुगल बादशाह अकबर की आग्नेयास्त्रों के निर्माण में गहरी दिलचस्पी थी, और उन्होंने बंदूकों के महान निर्माताओं को अपने दरबार में बुलाया। 17वीं शताब्दी तक मुगलों के पास राजकीय ढलाईघर और शस्त्रागार थे। मालाबार से लेकर बिहार तक, उपमहाद्वीप के राज्यों में हथियारों का निर्माण होता था। भारतीय संघर्षों में यूरोपीय भागीदारी तेज होने से बंदूकों की मांग में काफी वृद्धि हुई। साथ ही भारतीय शिल्पकारों ने भी यूरोपीय आग्नेयास्त्रों की नकल की तथा गंगा के मैदानी इलाकों के किसान स्थानीय लोहारों द्वारा बनाई गई सस्ती हैंडगन (Handgun) का इस्तेमाल करते थे।त्रावणकोर, कश्मीर, राजस्थान, पंजाब और सिंध में हथियारों के निर्माण के स्थल हुआ करते थे। भारतीय बंदूकें और बंदूक के पुर्जे फारस, ओमान और हिंद महासागर में भी बेचे जाते थे।वहीं यूरोपीय पर्यवेक्षकों द्वारा भी गोलकोंडा बंदूक की प्रशंसा की गई थी। साथ ही ब्रिटिश मान्यता प्राप्त भारतीय बनावट परिष्कृत और प्रभावी थे और उपमहाद्वीप के हथियार तकनीकी ज्ञान की समृद्ध और गतिशील संस्कृति से उभरे थे। भारतीय हथियारों की उपयोगिता को देखते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company -ब्रिटिश राज्य की एक वाणिज्यिक शाखा) ने भी भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश हथियार बेचे। व्यापारिक विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए, उन्होंने उपहार के रूप में हथियार भी भेंट किए। 1690 के दशक तक, कंपनी ने लाभ के लिए प्रति वर्ष लगभग 1,000 टन छोटे हथियारों का निर्यात किया। अंग्रेज समय के साथ भारतीय हथियारों के निर्माण के कोशल को लेकर काफी चिंतित होने लगे थे। उन्हें भय होने लगा था कि कहीं ये हथियार किसी दुश्मनों के हाथों न लग जाएं। इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने उपयोग के लिए ब्रिटिश बंदूकें भी खरीदीं। जैसे-जैसे भारत में उनकी क्षेत्रीय हिस्सेदारी बढ़ी, उन्हें अपनी विस्तारित पेशेवर सेना के लिए बड़े पैमाने पर बंदूकों की आवश्यकता होने लगी। तथा 1764 में, सेना में 5,000 हथियारों की वार्षिक मांग का अनुमान लगाया था। 1765 में, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा हथियारों के लिए भुगतान करने की अपनी क्षमता का आश्वासन देते हुए, बंगाल में कर एकत्र करने का अधिकार हासिल कर लिया। अपनी सेना और औपनिवेशिक प्रजा से कर वसूल करने के अधिकार के साथ, ईस्ट इंडिया कंपनी एक औपनिवेशिक राज्य बन गया था।1793 से 1815 तक फ्रांस के विरुद्ध युद्धों के दौरान, ब्रिटेन का तोपखाने का कार्यालय पर्याप्त तेजी से बंदूकें नहीं खरीद सका, और ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण हथियार आपूर्तिकर्ता बन गया। युद्ध के अंत तक, तोपखाने के कार्यालय ने ईस्ट इंडिया कंपनी से 162,000 से अधिक बंदूकें खरीदी थीं। साथ ही बर्मिंघम औद्योगिक परिवर्तन ने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी और इसकी शाही गतिविधियों में अहम भूमिका निभाई। ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति की सुविधा को प्राप्त करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में औद्योगिक प्रगति को सक्रिय रूप से दबा दिया।इसने अपने शस्त्रागार में कुछ सैन्य सामानों का निर्माण किया और कुछ स्थानीय रूप से बने तंबू और तलवारें खरीदी और स्थानीय निर्माताओं ने तोपों की मरम्मत की। लेकिन कंपनी को भारत की औद्योगिक क्षमता को उत्तेजित करने के भय से हथियार-निर्माण में नियमों को लगा दिया।औपनिवेशिक अधिकारियों को विशेष रूप से डर था कि भारतीय हथियारों के निर्माण के बारे में ज्ञान प्राप्त करके अपने हथियारों के निर्माण में सुधार करने लग जाएंगे। दक्षिण एशियाई उपनिवेशों के बीच धातु विज्ञान के ज्ञान के प्रसार को सुगम बनाना अंग्रेजों के लिए काफी खतरनाक था।जिस वजह से अंग्रेजों ने हथियार निर्माण वाले स्थानों में सख्त प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन उस समय ब्रिटिश आक्रमण का सामना करने के लिए, स्वदेशी राज्य अपनी बंदूक-निर्माण क्षमता को मजबूत करने के लिए संघर्ष कर रहे थे।1760 के दशक की शुरुआत में, बंगाल के नवाब मीर कासिम ने मुंगेर के किले में सैकती बंदूकों का निर्माण करना शुरू किया, और राजा टोडर मल द्वारा 16वीं शताब्दी में तोपों का निर्माण किया गया था।मुगलों और अंग्रेजों दोनों को चुनौती देने वाले शासकों द्वारा लखनऊ, पांडिचेरी, हैदराबाद, लाहौर और सेरिंगपट्टम के कारखानों में कई तोपों का उत्पादन किया। वहीं1760 के दशक के अंत में, अंग्रेजों ने अवध के नवाब, शुजा-उद-दौला को बार-बार हथियार देने से इनकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने फैजाबाद में उनका निर्माण करना शुरू कर दिया था। उनके निर्देश में दो बंगालियों ने बड़ी तोपों की ढलाई का कार्य शुरू किया, और एक फ्रांसीसी इंजीनियर ने हथियारों से लैस गाड़ियों का निर्माण किया और उन्हें चलाने का प्रशिक्षण दिया।शुजा की पुनर्जीवित महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित होकर, अंग्रेजों ने 1773 में लखनऊ के एक निवासी की नियुक्ति में अवध पर अधिक नियंत्रण का दावा किया। उन्होंने शुजा को 2,000 बंदूकें भी दीं। 1775 में शुजा की मृत्यु हो गई, और उत्तराधिकार के कमजोर पक्ष की वजह से कंपनी ने अवध के शोरा नमक, बारूद में प्राथमिक अवयव का एकाधिकार हासिल कर लिया।अंग्रेजों ने तब अपने सैन्य समर्थन और हथियारों के वादे का फायदा उठाते हुए नए नवाब आसफ-उद-दौला को अपनी सेवा में फ्रांसीसी लोगों को बर्खास्त करने के लिए मजबूर किया। इसके लिए, आसफ को अपने खर्च पर 5,000 कंपनी की बंदूकें मिलीं, जिनकी मरम्मत उनके अस्रकारों ने की थी।आसफ को नई राजधानी लखनऊ में एक शस्त्रागार बनाने की अनुमति दी गई थी, लेकिन वहाँ ब्रिटिश तोपों पर आधारित बंदूकें बनाईं गई, और एक कंपनी के व्यक्ति को कारखाने के अधीक्षक के रूप में रखा हुआ था।1784 में, एक फ्रांसीसी भाड़े के व्यक्ति ने मराठा नेता महादजी सिंधिया के लिए वहां हथियार खरीदे। 1787 में जब अधीक्षक सेवानिवृत्त हुए, तब तक कंपनी के पास देश में संग्रहस्थान बन गया था और अब लखनऊ शस्त्रागार या आसफ के सैनिकों की आवश्यकता नहीं थी। इसने अवधी तोपों के निर्माण पर अंतिम रोक लगा दी, आधिकारिक तौर पर यूरोपीय लोगों को देशी शासकों के लिए हथियार बनाने और बेचने पर रोक लगा दी।1805 में मराठों के खिलाफ जीत के बाद, अंग्रेजों ने मराठा तोपखाने विनिर्माण और मराठा छोटे हथियारों के विनिर्माण उद्योग को कुचलने और नियंत्रण करने में कोई समय बर्बाद नहीं किया।बंगाल, मैसूर और मराठा भारतीय उपमहाद्वीप के कई स्थानों में से केवल तीन हैं जहां ब्रिटेन ने भारत में हथियारों के निर्माण के लिए बहुत अधिक खर्च और प्रयास से ज्ञान और क्षमता को प्रतिबंधित, कम या बंद कर दिया था।छोटे हथियारों में भारत और ब्रिटेन के बीच निकट समानता ने उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश विजय को धीमा, महंगा और कठिन बना दिया और स्वदेशी हथियारों के निर्माण को कुचलना आवश्यक बना दिया।

संदर्भ :-
https://stanford.io/3AO7hvX

चित्र संदर्भ
1. 1857 के मेरठ विद्रोह को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. ब्रिटिश कालीन भारत को दर्शाता एक चित्रण (NDLA)
3. ब्रिटिश युद्धों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. भारत में ब्रिटिश राज को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. तोप से उड़ाने के दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)