कृष्ण भगवद् गीता में अर्जुन को कैसे समझाते है, “तत्, त्वम्, असि” का अर्थ

विचार II - दर्शन/गणित/चिकित्सा
06-09-2023 10:39 AM
Post Viewership from Post Date to 06- Oct-2023 (31st Day)
City Subscribers (FB+App) Website (Direct+Google) Messaging Subscribers Total
2418 502 0 2920
* Please see metrics definition on bottom of this page.
कृष्ण भगवद् गीता में अर्जुन को कैसे समझाते है, “तत्, त्वम्, असि” का अर्थ

आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की ढेर सारी शुभकामनाएं! जन्माष्टमी का पर्व भगवान श्री कृष्ण के जन्म और उनकी शिक्षाओं का उत्सव है। उनकी ये शिक्षाएं प्रमुखता से भगवद् गीता में वर्णित हैं। मूल रूप से गीता में वेदों और उपनिषदों की भी मौलिक शिक्षाएं निहित हैं। आइए, इस जन्माष्टमी के अवसर पर इस लेख के माध्यम से गीता की अंतर्दृष्टि की खोज करते हैं।
“भगवद् गीता” वैदिक ज्ञान का एक व्यापक एवं सरल सारांश है। इसमें उपनिषदों का भी सार है। भगवद् गीता के स्पष्ट ज्ञान से मानव अस्तित्व के सभी लक्ष्य पूरे हो सकते हैं। हमारे घर में भगवद् गीता का होना, घर में ज्ञान का अमृत होने के समान है। भगवद् गीता को पढ़कर और समझकर ही हम इसके सिद्धांतों को अपने दैनिक जीवन में अपना सकते हैं एवं अपने जीवन को और अधिक सुंदर बना सकते हैं। हिंदू धर्म में वेदों को ज्ञान का सर्वोत्तम स्रोत माना जाता है। कहा जाता है कि, वेदों में ईश्वर का शाश्वत ज्ञान व्याप्त है। शायद आप जानते ही होंगे कि, वैदिक ग्रंथों को चार रूपों में व्यवस्थित किया गया है। वे चार वेद– ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। दूसरी ओर, उपनिषद वेदों का वह भाग है, जो दार्शनिक ज्ञान से संबंधित है। इन्हें वास्तव में, वेदों का सार माना जाता है और 13 उपनिषद महत्वपूर्ण माने जाते हैं। गीता को परम सत्य का सार माना जाता है, जो संपूर्ण वेदों का विषय है। गीता के 18 अध्यायों को तीन “षड्गमों” या प्रत्येक छह अध्यायों के तीन खंडों के रूप में देखा जाता है। इनमें से प्रत्येक अनुभाग में तीन व्यापक विषयों पर चर्चा की गई है। छह अध्यायों के पहले खंड में जीव विचार, मोक्ष प्राप्त करने के लिए कर्म योग का साधन और आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए मानव प्रयास इन तीन विषयों पर चर्चा की गई हैं। दूसरे खंड में ईश्वर का स्वरूप, उपासना योग के साधन या सगुण ब्रह्म पर ध्यान और ईश्वर कृपा की चर्चा की गई है। जबकि, तीसरे खंड में परमात्मा और जीवात्मा की एकता, श्रवण, मनन, निधिध्यास आदि प्रथाओं के माध्यम से ज्ञान योग के साधन और योग्य गुणों और सद्गुणों को विकसित करके चरित्र निर्माण के महत्व पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इन प्रत्येक षड्गमों या खंडों में, पहला विषय अर्थात् जीव विचार, ईश्वर विचार और जीव-ब्रह्म ऐक्य ज्ञान, क्रमशः महावाक्य में तीन शब्दों “त्वम्”, “तत्” और “असि” की व्याख्या को उजागर करता है। ‘त्वम्’ पद व्यक्तिगत आत्मा की आवश्यक प्रकृति को संदर्भित करता है, ‘तत्’ पद सर्वोच्च ब्रह्म की प्रकृति को दर्शाता है, जबकि ‘असि’ पद परमात्मा और जीवात्मा की एकता की पुष्टि करता है। दूसरी ओर, प्रत्येक तीनों खंडों में, दूसरा और तीसरा विषय व्यापक रूप से योग सदन, कर्म, भक्ति, ज्ञान एवं मानव प्रयास के महत्व, भगवान की कृपा और दैवी गुणों के महत्त्व से संबंधित है।
“तत् त्वम् असि” यह कथन चार प्रमुख महावाक्यों में से एक है। उपनिषदों में उल्लेखित, नीचे बताए गए चार वाक्यों को प्रमुख माना जाता है। वे वाक्य हैं– ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में “प्रज्ञानं ब्रह्म” (चेतना ब्रह्म है), यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद में “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूं), सामवेद के छांदोग्य उपनिषद में “तत् त्वम् असि” (आप वही हो) और अथर्ववेद के मांडूक्य उपनिषद में “अयम आत्मा ब्रह्म” (यह आत्मा ही ब्रह्म है)। वैसे तो, हमें “तत् त्वम् असि” की अलग–अलग प्रकार से व्याख्याएं मिलती हैं, हालांकि, उन सभी का अर्थ मात्र समान ही हैं। आइए, इन व्याख्याओं के बारे में जानते हैं। श्री आदि शंकराचार्य “तत् त्वम् असि” की व्याख्या कुछ इस प्रकार करते हैं– “जीव और ब्राह्मण एक समान ही हैं, ताकि जीव और ब्राह्मण की आत्मा के बीच कोई अंतर न हो। शंकराचार्य “स्वरूप ऐक्यम” को सही ढंग से मानते हैं, जो जीवात्मा और परमात्मा (ब्राह्मण) के बीच पूर्ण पहचान है। हम आपको बता दें कि, आदि शंकराचार्य, एक भारतीय वैदिक विद्वान और शिक्षक थे। इनका जीवनकाल 700 ईस्वी से 732 ईस्वी के दौरान था तथा उनको भारत में 4 प्रसिद्ध मठों की स्थापना करने के लिए जाना जाता हैं।
सरल अर्थ में, “तत्” का अर्थ है “वह”, “त्वम्” का अर्थ है “आप’’ तथा “असि” का अर्थ है “हैं”। इस प्रकार इस महावाक्य का अर्थ, “वह तुम हो” या “वह आप हैं” हो सकता है।
त्वम् व्यक्तिगत आत्मा का आवश्यक स्वभाव है। तत् परम ब्रह्म का स्वरूप है। असि आत्मा की परमात्मा के साथ एकता है। “तत् त्वम् असि” का अर्थ यह नहीं कि हम ही सब कुछ हैं। इसका अर्थ है कि, हम शुद्ध जागरूकता हैं, जिसे हम आत्मा या चेतना कहते हैं।
दूसरी ओर, वेदांत क्या कहता है? यह समझाने का सबसे आसान तरीका “तत् त्वम् असि” का ही अर्थ है। ब्रह्म ही सब कुछ अर्थात पूर्ण तत्व या प्रधान है और चूंकि, ब्रह्म ही सब कुछ है, इसलिए, यह स्वतः ही यह स्पष्ट कर देता है कि, सब कुछ भी ब्रह्म ही है। क्या आप जानते हैं कि, भगवद् गीता के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को “तत् त्वम् असि” का संदेश दिया था। अध्याय 1 से 6 तक, भगवान कृष्ण अर्जुन को “त्वम्” अर्थात अर्जुन को स्वयं में, ‘मैं’ देखने के लिए प्रेरित करते हैं। अध्याय 7 से 12 तक भगवान कृष्ण ने ‘तत्’ अर्थात ‘निर्गुण ब्रह्म’ का वर्णन किया है। जबकि, अध्याय 13 से 18 तक, भगवान कृष्ण ने ‘असि’ यानी ‘आत्मा की परमात्मा के साथ एकता’ के बारे में अर्जुन को बताया है।
“तत् त्वम् असि” शांति, समृद्धि, आत्मबोध और आत्मज्ञान के लिए एक बहुत शक्तिशाली हिंदू वैदिक मंत्र है। ईश्वर कृपा में विश्वास के साथ-साथ, किसी के जीवन में गीता शिक्षण का व्यावहारिक एकीकरण निश्चित रूप से उसे जीवन मुक्त की स्थिति में ले जा सकता है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/67sycn4w
https://tinyurl.com/2p9vjx3d
https://tinyurl.com/4h6wrjf7

चित्र संदर्भ 

1. अर्जुन को उपदेश देते श्री कृष्ण को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. भगवद् गीता पुस्तक को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. “तत्, त्वम्, असि” को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
4. कृष्णोपदेश को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)