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हे नारी, तुम सब कुछ मुमकिन कर जाती हो।
जो कहते हैं कि लड़कियां उलझ जाती हैं गणित के सवालों में,
तुम तब शकुंतला देवी बन जाती हो।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (National Family Health Survey-5 (2019-2021)) के अनुसार, भारत में आज भी सिर्फ़ 78% किशोरियाँ ही मासिक धर्म के दौरान स्वच्छ साधनों, जैसे कि सैनिटरी नैपकिन, का उपयोग करती हैं। यह सुनकर आपको हैरानी हो सकती है, लेकिन पिछले पाँच सालों में इन साधनों का प्रयोग करने वाली महिलाओं की संख्या 58.3 प्रतिशत से बढ़कर 78 प्रतिशत हो गई है! यह वाकई में एक बड़ी उपलब्धि है।
देखा जाए, मासिक धर्म स्वच्छता (Menstrual Hygiene), न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, बल्कि महिलाओं के सम्मान और आत्मविश्वास के लिए भी ज़रूरी है। इसलिए आज, अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि भारत में कितनी महिलाएँ मासिक धर्म स्वच्छता के आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। साथ ही, हम यह भी देखेंगे कि उनकी उम्र, शिक्षा और आर्थिक स्थिति जैसी बातें इस पर कैसे असर डालती हैं।
इसके अलावा, हम उन बड़ी चुनौतियों को भी समझेंगे, जो भारत में मासिक धर्म स्वच्छता को बेहतर बनाने में आ रही हैं। साथ ही, इस बात पर भी चर्चा करेंगे कि लड़कों में इस विषय को लेकर जागरूकता कैसे बढ़ाई जाए। अंत में, हम उन महत्वपूर्ण कदमों पर विचार करेंगे, जो भारत में मासिक धर्म स्वच्छता को और बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं।
तो आइए, सबसे पहले यह समझते हैं कि भारत में महिलाएँ मासिक धर्म स्वच्छता के कौन-कौन से तरीके अपना रही हैं।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey (NFHS)) की एक रोपोर्ट के मुताबिक, महिलाएं मासिक धर्म के दौरान साफ-सुथरे और सुरक्षित उपाय अपनाने के लिए अलग-अलग चीज़ों का इस्तेमाल करती हैं। इनमें स्थानीय रूप से बनाए गए नैपकिन, सैनिटरी नैपकिन, टैम्पोन और मेंस्ट्रुअल कप आदि शामिल हैं। भारत में 15 से 24 साल की उम्र की 64.4% महिलाएँ सैनिटरी नैपकिन इस्तेमाल करती हैं, जबकि 49.6% अब भी कपड़े का सहारा लेती हैं। 15% महिलाएँ स्थानीय रूप से तैयार नैपकिन अपनाती हैं, लेकिन मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करने वाली महिलाओं की संख्या अभी भी बहुत कम (सिर्फ़ 0.3%) है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि कई महिलाएँ एक से अधिक तरीकों का इस्तेमाल करती हैं, इसलिए स्वच्छ मासिक धर्म सुरक्षा अपनाने वाली महिलाओं का कुल आंकड़ा 100% से ज़्यादा हो सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, डॉ. मनसुख मंडाविया ने 5 मई 2022 को NFHS-5 की रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि इस आयु वर्ग की 77.6% महिलाएँ अब साफ-सुथरे और सुरक्षित विकल्प अपना रही हैं।
आज भी भारत में मासिक धर्म से जुड़ी सेहत और स्वच्छता को बेहतर बनाने में कई मुश्किलें सामने आती हैं। ये समस्याएँ, महिलाओं और किशोरियों के लिए सुरक्षित और स्वस्थ मासिक धर्म स्वच्छता अपनाने में बड़ी रुकावट बनती हैं।
आइए, इन चुनौतियों को करीब से समझते हैं:
1. जागरूकता की कमी: मासिक धर्म के दौरान स्वच्छता से जुड़ी सही जानकारी और संसाधनों का हर लड़की और महिला तक पहुँचना बहुत ज़रूरी है। जब उन्हें मासिक धर्म से जुड़े उत्पादों, सही देखभाल और उपलब्ध सुविधाओं की जानकारी मिलती है, तभी वे बेहतर फैसले ले सकती हैं। लेकिन आज भी जागरूकता की कमी के कारण कई सामाजिक और सांस्कृतिक रुकावटें बनी हुई हैं। सरकार की कई योजनाएँ उपलब्ध होने के बावजूद, 80% से अधिक लड़कियाँ अब भी मासिक धर्म के रक्त को हानिकारक मानती हैं।
2. पर्याप्त बजट का अभाव: राज्य सरकार, हर साल स्कूल जाने वाली किशोरियों को ₹300 की राशि सैनिटरी नैपकिन खरीदने के लिए देती है! लेकिन यह राशि पर्याप्त नहीं होती। गाँवों में तो स्थिति और भी कठिन हो जाती है, जहाँ मेडिकल सुविधाओं की कमी के कारण स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी चिंतित रहते हैं। कई लड़कियाँ, दुकानों से नैपकिन खरीदने में भी हिचकिचाती हैं, जिससे वे सुरक्षित विकल्प नहीं अपना पातीं।
3. प्रशिक्षण की कमी: देश के कुछ राज्यों, जैसे बिहार में, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को मासिक धर्म स्वच्छता को लेकर सही प्रशिक्षण नहीं दिया जाता। वे जागरूकता फैलाने के प्रभावी तरीकों, जैसे पोस्टर, रैलियाँ या अन्य माध्यमों से पूरी तरह परिचित नहीं होते। इस वजह से सही जानकारी महिलाओं तक नहीं पहुँच पाती और वे सुरक्षित मासिक धर्म स्वच्छता अपनाने से वंचित रह जाती हैं।
4. खराब वित्तीय योजना: मासिक धर्म से जुड़े उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए मज़बूत वित्तीय योजना की ज़रूरत होती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने मासिक धर्म स्वच्छता योजना (MHS) के तहत किसी भी तरह के वित्तीय प्रबंधन की रिपोर्ट नहीं दी है। इस वजह से कई महिलाओं को ज़रूरी सुविधाएँ और उत्पाद नहीं मिल पाते।
5. एल जी बी टी क्यू समुदाय की अनदेखी: मासिक धर्म से जुड़ी नीतियों में आज भी एल जी बी टी क्यू समुदाय की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया जाता है। मासिक धर्म को सिर्फ़ महिलाओं से जोड़कर देखा जाता है, जिससे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए ज़रूरी सेवाएँ प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है। अभी तक किसी भी ज़िला, राज्य या केंद्र सरकार ने ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए मासिक धर्म स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाने की कोई ठोस पहल नहीं की है।
मासिक धर्म, स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में एक बड़ी चुनौती यह भी है कि समाज में लड़कों को मासिक धर्म के बारे में बहुत कम पता है! इस संदर्भ में जागरूकता फ़ैलाने या लड़कों को शिक्षित करने के कुछ आसान तरीके निम्नवत दिए गए हैं:
मासिक धर्म, एक स्वाभाविक और ज़रूरी शारीरिक प्रक्रिया है, लेकिन इसे लेकर आज भी बहुत सी ग़लतफ़हमियां फैली हुई हैं। खासकर लड़कों के बीच, क्योंकि उनसे इस बारे में खुलकर बात ही नहीं की जाती। अगर हम चाहते हैं कि वे इसे सही तरीके से समझें और इसे लेकर किसी भी तरह की झिझक या नकारात्मक सोच न रखें, तो हमें उनसे इस विषय पर सहजता से बात करनी होगी।
1. खुलकर बातचीत का माहौल बनाएं: लड़कों को मासिक धर्म पर सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करें। अगर वे इस बारे में जिज्ञासा दिखाते हैं, तो उन्हें चुप कराने के बजाय उनकी शंकाओं का सही समाधान दें। जब वे इसे एक सामान्य विषय की तरह समझेंगे, तो गलत जानकारियों से बच पाएंगे।
2. मासिक धर्म को सामान्य प्रक्रिया के रूप में समझाएं: उन्हें बताएं कि मासिक धर्म, महिलाओं की प्रजनन प्रणाली का एक ज़रूरी हिस्सा है। यह वैसा ही प्राकृतिक बदलाव है, जैसा लड़कों और लड़कियों दोनों के शरीर में किशोरावस्था के दौरान होते हैं। इसे लेकर नकारात्मक भाषा का इस्तेमाल न करें, क्योंकि इससे अनजाने में ही शर्मिंदगी और झिझक पैदा हो सकती है।
3. उनके सवालों को नज़रअंदाज़ न करें: अगर लड़के सैनिटरी नैपकिन, ऐंठन या इससे जुड़ी किसी भी चीज़ के बारे में पूछें, तो उनके सवालों को टालें नहीं। ऐसा करने से वे गलत या अधूरी जानकारी वाले स्रोतों की ओर जा सकते हैं, जिससे उनके मन में भ्रम पैदा हो सकता है।
4. सरल भाषा में वैज्ञानिक जानकारी दें: अगर बच्चा, टैम्पोन या अन्य मासिक धर्म उत्पादों के बारे में पूछे, तो उसे आसान शब्दों में समझाएं। उन्हें बताएं कि महिलाओं के शरीर में गर्भाशय होता है, जहां गर्भ ठहरता है। हर महीने गर्भाशय की अंदरूनी परत मोटी होती है ताकि गर्भधारण हो सके। अगर गर्भधारण नहीं होता, तो यह परत रक्त के रूप में बाहर निकलती है, जो आमतौर पर एक सप्ताह तक चलता है। इस दौरान टैम्पोन या अन्य उत्पाद इस रक्त को सोखने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
5. उम्र को लेकर मिथक न बनाएं: लड़कों को यह समझाना ज़रूरी है कि अधिकतर लड़कियों में मासिक धर्म 10 से 15 साल की उम्र के बीच शुरू होता है, लेकिन हर किसी का शरीर अलग होता है। इसलिए, इसका कोई 'सही' समय नहीं होता। इस बदलाव को स्वाभाविक रूप में देखने और समझने की आदत डालें।
जब हम इस तरह से खुलकर बात करेंगे, तो लड़के मासिक धर्म को एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया के रूप में समझेंगे और इसे लेकर किसी भी तरह की नकारात्मक सोच नहीं रखेंगे। भारत में मासिक धर्म स्वच्छता को बेहतर बनाने के लिए हमें नीतियों में बदलाव और जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है।
आइए, समझते हैं कि इस दिशा में क्या कदम उठाए जा सकते हैं।
मासिक धर्म, स्वास्थ्य को लेकर बातें ज़रूर हो रही हैं, लेकिन क्या वास्तव में ज़मीन पर बदलाव आ रहे हैं? कई महिलाएँ और लड़कियाँ आज भी उचित सुविधाओं से वंचित हैं। ज़रूरत है कि हम न सिर्फ़ इस विषय पर खुलकर बात करें, बल्कि ठोस कदम भी उठाएँ। आइए, समझते हैं कि इस दिशा में क्या किया जा सकता है।
1. कार्यस्थलों पर मासिक धर्म सहायता अनिवार्य हो: स्कूली छात्राओं की तरह 18 साल या उससे ज़्यादा उम्र की महिलाओं को भी मासिक धर्म के दौरान उचित सहायता मिलनी चाहिए। कई संगठनों में समावेश और विविधता की नीतियाँ हैं, लेकिन अभी और सुधार की ज़रूरत है। अगर राष्ट्रीय मासिक धर्म स्वास्थ्य नीति कार्यस्थलों पर इन सुविधाओं को अनिवार्य बना दे, तो महिलाओं को बेहतर सहयोग मिलेगा।
2. स्थानीय ज़रूरतों के अनुसार समाधान तैयार करना: भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में एक ही नीति पूरे देश में कारगर नहीं हो सकती। हर राज्य और क्षेत्र की अपनी ज़रूरतें हैं, इसलिए, पहले पायलट प्रोजेक्ट किए जाने चाहिए। इससे यह समझने में मदद मिलेगी कि किस इलाके में कौन-से समाधान सबसे ज़्यादा कारगर होंगे। राष्ट्रीय नीति को विकेंद्रीकृत किया जाए, ताकि राज्यों को अपनी ज़रूरत के हिसाब से फैसले लेने की आज़ादी मिले।
हर क्षेत्र में सैनिटरी उत्पाद और स्वच्छता सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध कराई जाएँ।
3. ज़रूरतमंद लड़कियों तक सहायता पहुँचाना: जो लड़कियाँ, स्कूल नहीं जातीं, उन्हें मासिक धर्म से जुड़ी कोई सहायता नहीं मिलती। मौजूदा नीतियाँ इस विषय पर कुछ नहीं कहतीं। इसका असर उनके स्वास्थ्य और भविष्य दोनों पर पड़ता है।
4. सैनिटरी पैड की गुणवत्ता में सुधार: सरकार जो मुफ़्त सैनिटरी पैड बाँटती है, वे अक्सर कमज़ोर गुणवत्ता के होते हैं। उनकी अवशोषण क्षमता कम होती है और सही साइज़ न होने के कारण उनका उपयोग करना भी मुश्किल हो जाता है।
5. पर्यावरण का भी ध्यान रखना ज़रूरी: भारत में हर साल लगभग 12 अरब सैनिटरी पैड इस्तेमाल किए जाते हैं, जिससे करीब 1,12,800 टन कचरा पैदा होता है। यह पर्यावरण के लिए गंभीर समस्या है।
लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए सरकार को इस दिशा में निवेश करना चाहिए, ताकि वे सही और पर्यावरण हितैषी विकल्प चुन सकें।
संदर्भ:
मुख्य चित्र : मासिक धर्म के दर्द का अनुभव (Wikimedia)