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मेरठ की गलियों में जब बैंड-बाजे की धुन गूंजती है, तो वह सिर्फ़ एक संगीत नहीं, बल्कि सदियों पुरानी विरासत की गूंज होती है। यह वही नगर है, जहाँ के पीतल वाद्ययंत्रों की खनक ने भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाई है। दशकों से मेरठ को अपने बेहतरीन बैंड-बाजे, तुरही, ट्रम्पेट (Trumpet), ढोल और अन्य वाद्ययंत्रों के लिए जाना जाता है। यहाँ के कारीगर पारंपरिक हुनर और आधुनिक डिज़ाइनों का ऐसा संगम तैयार करते हैं, जो वाद्ययंत्रों को एक अनोखी और उत्कृष्ट पहचान देता है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के महान तबला उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब भी मेरठ के अजराड़ा घराने की तारीफ़ किए बिना नहीं रह पाते थे? यही वह धरती है, जहाँ तबला वादन और क़व्वाली की धुनें मिलकर ऐसा समां बांधती हैं, मानो अमीर ख़ुसरो की विरासत फिर से जीवंत हो उठी हो। साहित्य और संगीत की दुनिया में अमीर ख़ुसरो का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं। वे केवल कवि ही नहीं, बल्कि एक विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने फ़ारसी, हिंदवी और अरबी में ऐसी रचनाएँ दीं, जो प्रेम, आस्था और जीवन के सार को सरल शब्दों में गहरे अर्थों के साथ व्यक्त करती हैं। ग़ज़ल और ख़याल जैसी काव्य शैलियों के जन्मदाता के रूप में उनका योगदान अमूल्य है। उनकी रचनाएँ—"तुहफ़त-उल-सिग़्र", "वस्त-उल-हयात", "ग़ज़लियत-ए-ख़ुसरो" और "ख़ज़ैन-उल-फ़ुतुह"—आज भी साहित्य प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।
मेरठ की गलियों में आज भी उनकी संगीत साधना की झलक देखी जा सकती है। क़व्वाली के जनक के रूप में पहचाने जाने वाले ख़ुसरो ने फ़ारसी और भारतीय संगीत परंपराओं को इस तरह जोड़ा कि एक नई, अनोखी और आत्मा को छू लेने वाली धुनों से भरपूर संगीत विधा का जन्म हुआ। कहा जाता है कि सितार और तबला जैसे वाद्ययंत्रों के विकास में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा, और यही वाद्ययंत्र भारतीय शास्त्रीय संगीत की पहचान बन गए।
आज के इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे अमीर ख़ुसरो ने क़व्वाली की नींव रखी और इस अनूठी संगीत परंपरा को जन्म दिया। इसके बाद, हम उनके द्वारा विकसित तराना शैली पर चर्चा करेंगे, जिसमें लय और माधुर्य का विलक्षण संगम देखने को मिलता है। और अंत में, हम उन संगीत नवाचारों को समझेंगे, जिनकी बदौलत सितार और तबला भारतीय संगीत की आत्मा बन गए।
अमीर ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) एक ऐसा नाम है, जिसका विस्तार केवल एक कवि या संगीतकार तक सीमित नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की बहुआयामी विरासत का प्रतीक है! उन्हें भारत के प्रथम मुस्लिम संगीतज्ञ के रूप में देखा जाता है! उनके योगदान ने भारतीय इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी ख़ुसरो ने अपने समय में विद्वान, दार्शनिक, रहस्यवादी, वैज्ञानिक, इतिहासकार और राजनयिक के रूप में गहरा प्रभाव डाला। लेकिन उनकी सबसे बड़ी पहचान उनकी कविताएँ बनीं, जिन्हें उन्होंने फ़ारसी और ब्रजभाषा (मध्यकालीन साहित्यिक हिंदी) में रचा।
दिल्ली में निवास के दौरान, वे महान सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1325) के प्रिय शिष्य बने। ऐसा कहा जाता है कि अपने गुरु से गहरा लगाव होने के कारण, उनके निधन के केवल छह महीने बाद ही ख़ुसरो ने भी इस संसार को अलविदा कह दिया। ख़ुसरो को मुख्य रूप से क़व्वाली—एक भक्तिपूर्ण सूफ़ी गायन शैली—के जनक के रूप में जाना जाता है। लेकिन उनका संगीत नवाचार केवल यहीं तक सीमित नहीं था; उन्होंने उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत में कई नई शैलियों की भी नींव रखी।
आज भी ख़ुसरो की मूल रचनाएँ शास्त्रीय क़व्वाली प्रस्तुतियों की आधारशिला मानी जाती हैं। क़व्वाली की इस परंपरा का जन्म और विकास निज़ामुद्दीन औलिया के दरबार में हुआ, और अब उनकी दरगाह दिल्ली का एक प्रमुख सूफ़ी तीर्थ स्थल है। कहा जाता है कि प्रतिदिन निज़ामुद्दीन औलिया तब तक भोजन नहीं करते थे, जब तक कि वे संगीत का आनंद न ले लें। अपने गुरु को प्रसन्न करने के लिए, ख़ुसरो ने विशेष रूप से उनके लिए नई संगीत रचनाओं की रचना की और इन्हें कोरस सहित प्रस्तुत किया। यही वह क्षण था जब क़व्वाली एक नई शैली के रूप में उभरी और संगीत की दुनिया में अमर हो गई।
तराना का जन्म कैसे हुआ?
ऐसा कहा जाता है कि ख़ुसरो ने तराना की रचना तब की, जब वे राग कदंबक में प्रसिद्ध गायक गोपाल नायक की प्रस्तुति को समझने का प्रयास कर रहे थे। वे इस प्रस्तुति की बारीकियों को पकड़ने के लिए लगातार छह दिन तक गुप्त रूप से अभ्यास करते रहे। अंततः, उन्होंने मृदंग के बोलों और अन्य विशिष्ट वाक्यांशों का प्रयोग करते हुए तराना शैली को विकसित किया।
सितार और तबला के जन्मदाता?
तराना और क़ौल जैसी विशिष्ट संगीत शैलियों के प्रवर्तक होने के साथ-साथ, अमीर ख़ुसरो को सितार और तबला का जनक भी माना जाता है! तबला, दो अलग-अलग आकार के ड्रमों की जोड़ी है, जिनमें से प्रत्येक का स्वरूप और ध्वनि अलग होती है।
बायाँ ड्रम (बायन) गहरी और गंभीर ध्वनियाँ उत्पन्न करता है और संगीतमय धुन को आधार प्रदान करता है। दायाँ ड्रम (दायन) मुख्य स्वर उत्पन्न करता है और रचनात्मक अभिव्यक्ति का केंद्र होता है।
इतना ही नहीं सितार की उत्पत्ति भी ख़ुसरो के नाम से जोड़ी जाती है। इसकी लंबी गर्दन और खोखले, लौकीनुमा शरीर ने इसे एक विशिष्ट पहचान दी। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इसका स्थान बेहद महत्वपूर्ण है। इसे बजाने के लिए मिज़राब नामक विशेष नाड़ी का प्रयोग किया जाता है।
कहा जाता है कि 16वीं शताब्दी में मुग़लों ने भारत में सितार को लोकप्रिय बनाया, और इसकी जड़ें मध्य पूर्व तक फैली हुई थीं। लेकिन ख़ुसरो ने ही सबसे पहले तीन तारों वाले सितार का निर्माण किया। उन्होंने त्रितंत्री वीणा का नाम बदलकर ‘सहतार’ रखा, जिसे आगे चलकर ‘सितार’ के नाम से जाना गया। उनके इस नवाचार ने भारतीय संगीत को एक नया आयाम दिया और यह यंत्र आने वाले युगों तक संगीतकारों की प्रेरणा बना रहा।
आइए अब आपको बसंत के उत्सव और अमीर ख़ुसरों की एक अनोखी साझा परंपरा से रूबरू कराते हैं:
जब पीली सरसों के फूल खिलते हैं और हवाओं में बसंत का रंग घुलने लगता है, तब चिश्तिया दरगाहों पर एक अलग ही रौनक नज़र आती है। लकिन क्या आप जानते हैं कि यह परंपरा कोई साधारण उत्सव नहीं, बल्कि वह धरोहर है, जो 12वीं सदी में अमीर ख़ुसरो के समय से चली आ रही है। इस्लामिक महीने रजब की 3 तारीख को मनाया जाने वाला यह उत्सव, सूफ़ी प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक है। कहा जाता है कि अमीर ख़ुसरो ने इसे अपने आध्यात्मिक गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को प्रसन्न करने के लिए शुरू किया था।
इसके पीछे एक दिलचस्प कहानी है:
एक समय की बात है, जब अमीर ख़ुसरों के पीर (आध्यात्मिक गुरु) हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया अपने भांजे की मृत्यु से अत्यंत दुखी थे। उनकी उदासी अमीर ख़ुसरों से देखी नहीं गई। वसंत ऋतु का आगमन हुआ, तो खुसरो ने सरसों के पीले फूलों का गुलदस्ता तैयार किया और श्रद्धा से दरगाह पहुंचे। वह इतना मगन होकर नाचे कि निज़ामुद्दीन औलिया के चेहरे पर वर्षों बाद फिर से मुस्कान लौट आई। तभी से बसंत उनके जीवन का हिस्सा बन गया और आगे चलकर यह परंपरा सूफ़ी दरगाहों में भी गूंजने लगी। यह रस्म अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और अन्य चिश्तिया दरगाहों पर हर साल प्रेम और भक्ति के रंग बिखेरती है। जब कव्वाल ख़ुसरों के कलाम गाते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है कि सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी उतनी ही जीवंत है।
अमीर ख़ुसरों सिर्फ एक कवि या संगीतकार ही नहीं, बल्कि एक योद्धा भी थे। उनकी लेखनी उतनी ही शक्तिशाली थी, जितनी कि उनके शब्दों की गूंज। इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार, ख़ुसरो ने 38 बसंत देखे। उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए बादशाह ने उन्हें ‘अमीर’ की उपाधि और 1200 सालाना की तनख्वाह प्रदान की। ख़ुसरो कहते थे— "जब तलवारें ख़ामोश हो जाती हैं, तब कवि की आवाज़ इतिहास रचती है।"
इस तरह, सूफ़ी बसंत केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और संगीत की वह परंपरा बन चुका है, जो न केवल अतीत में जीवंत थी, बल्कि आज भी हर दरगाह में गूंजती है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में तबला और अमीर ख़ुसरो दिहलवी का ख़मसा का स्रोत : Wikimedia