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क्या आप जानते हैं कि गणित की समृद्ध विरासत, जिसने दुनिया की सोच को नई दिशा दी, उसकी जड़ें भारत में ही पड़ी थीं? मेरठ भी इस ऐतिहासिक यात्रा का एक अहम पड़ाव रहा है। हमारे प्राचीन विद्वानों, जैसे कि आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर, ने शून्य की अवधारणा, दशमलव प्रणाली और उन्नत बीजगणित की नींव रखी, जिनका प्रभाव आज भी वैश्विक गणितीय अनुसंधानों में देखा जाता है। मेरठ शहर भी भारत की अकादमिक परंपरा का अभिन्न हिस्सा रहा है, जहाँ वैदिक काल से ही गणित और खगोलशास्त्र को विशेष स्थान दिया गया। मेरठ स्थित चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय (सी सी एस यू) और शोभित विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों ने कई गणित शोधकर्ता तैयार किए हैं, जिन्होंने अकादमिक प्रकाशनों और पत्रिकाओं में बहुत बड़ा योगदान दिया है। आज के इस लेख में हम भारतीय गणित की इस समृद्ध धरोहर का अवलोकन करेंगे और जानेंगे कि कैसे हमारे प्राचीन ग्रंथों में अंकगणित, ज्यामिति और त्रिकोणमिति के बीज बोए गए। साथ ही, हम 12वीं शताब्दी तक के भारतीय गणितज्ञों की उन उपलब्धियों को समझेंगे, जिनकी वजह से संख्याओं की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव आ गए।
भारतीय गणित की जड़ें प्राचीन वैदिक काल से जुड़ी हैं। उस दौर के महान गणितज्ञों ने कई महत्वपूर्ण गणितीय अवधारणाएँ विकसित कीं, जिनका प्रभाव केवल भारत तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि बीजगणित और त्रिकोणमिति के माध्यम से पूरे विश्व में फैला।
कुछ महत्वपूर्ण गणितीय अवधारणाओं में शामिल हैं:
वैदिक काल क्या था?
वैदिक काल वह समय था जब दुनिया की सबसे पुरानी लिपियों में से एक, संस्कृत में लिखे गए ग्रंथों की रचना हुई। इन्हें वेद कहा जाता है, जो हिंदू धर्म से जुड़े हैं। शुरुआत में, ये ग्रंथ केवल मौखिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाए जाते थे। यह काल लगभग 1700 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक चला। हमें इस काल के कोई लिखित गणितीय ग्रंथ नहीं मिले हैं, क्योंकि उस समय हर जानकारी मौखिक रूप से याद की जाती थी। ज्ञान को संरक्षित रखने के लिए लोग इसे बार-बार सुनाते और दोहराते थे। हालाँकि, वैदिक काल में गणित का उपयोग खासकर अनुष्ठानों और ज्योतिषीय गणनाओं में बड़े पैमाने पर किया जाता था। ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है कि वैदिक लोग सूर्य ग्रहण की तारीखों की सटीक भविष्यवाणी कर सकते थे। उन्होंने 10⁶² तक की बड़ी संख्याओं का उपयोग किया, जो अनुष्ठानों में काम आती थीं।
एक अनुष्ठान के दौरान, एक ऋषि 10¹² तक गिनती कर सकते था। जब अनुष्ठानों के लिए ईंटें बनाई जाती थीं, तब ऋषि अग्नि देवता की प्रार्थना करते थे।
आइए अब आपको वैदिक काल में गणित के वैभव से परिचित कराते हैं:
खगोल विज्ञान में योगदान: यजुर्वेद के अनुसार, वैदिक लोग समय की सटीक गणना करने में निपुण थे। उन्होंने वर्ष, महीने और दिन की गणना करके पाया कि एक वर्ष की अवधि 365 से थोड़ा अधिक लेकिन 366 से कम दिनों की होती है। इससे साबित होता है कि उनकी खगोल विद्या काफ़ी उन्नत थी।
ज्यामिति का ज्ञान: वैदिक युग के लोग जानते थे कि एक वृत्त 360 डिग्री से बना होता है। इसी गणना के आधार पर वे राशियों और ग्रहों की गति का अध्ययन करते थे। जब वे रथों के पहियों में तीलियाँ लगाते थे, तब भी वे 360 डिग्री के सिद्धांत का पालन करते थे। बाद में, सुलभसूत्रों में और अधिक जटिल ज्यामितीय गणनाएँ दर्ज़ की गईं।
उत्तर वैदिक काल (1000 - 500 ई.पू.): इस समय भारत में गणित से जुड़े पहले ग्रंथ लिखे गए, जिन्हें सुल्बसूत्र कहा जाता है। ये ग्रंथ यज्ञ वेदियों के निर्माण से संबंधित नियमों को समझाने के लिए रचे गए थे।
सुल्बसूत्र को वैदिक काल में भारतीय गणित का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। इनका रचनाकाल 800 ई.पू. से 200 ई.पू. के बीच माना जाता है। हालांकि, इनका मुख्य उद्देश्य यज्ञ अनुष्ठानों में उपयोग होने वाली वेदियों का सही निर्माण करना था, लेकिन इन ग्रंथों में गणित और ज्यामिति की गहरी समझ भी देखने को मिलती है।
यज्ञ वेदियों का निर्माण एक सटीक ज्यामितीय पद्धति के अनुसार किया जाता था, जिससे उनके आकार, ऊंचाई और क्षेत्रफल का सही निर्धारण हो सके। यदि किसी वेदी के आकार में बदलाव किया जाता, तो उसका क्षेत्रफल समान रखना आवश्यक होता। यही कारण था कि गणितीय गणनाओं का महत्व इस समय बढ़ गया।
सुल्बसूत्रों की रचना विभिन्न विद्वानों द्वारा की गई थी:
ये सभी विद्वान अपने समय के महान गणितज्ञ थे। इनके सुल्बसूत्रों ने भारतीय गणित और ज्यामिति की आधारशिला रखी, जिससे आगे चलकर गणित का और अधिक विकास हुआ।
आइए अब जानते हैं कि 12वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय गणित किन ऊँचाइयों तक पहुँच गई थी:
1. पाइथागोरस प्रमेय: भारत के शुल्व सूत्र (800-500 ईसा पूर्व) में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि आयत का विकर्ण उसकी लंबाई और चौड़ाई द्वारा दिए गए क्षेत्रफलों के योग के बराबर होता है। यानी, यह वही प्रमेय है जिसे बाद में पाइथागोरस (Pythagoras) (572-501 ईसा पूर्व) के नाम से जाना गया।
2. पाइथागोरस त्रिक: शुल्व सूत्र में पाइथागोरस संख्याओं का उल्लेख मिलता है। ये वे संख्याएँ हैं जो इस संबंध को संतुष्ट करती हैं:
x² + y² = z²
उदाहरण के लिए, आपस्तम्ब के शुल्व सूत्र में 3, 4, 5; 5, 12, 13; 8, 15, 17; और 12, 35, 37 जैसे संख्यात्मक समूह दिए गए हैं, जिन्हें डोरी से नापकर समकोण बनाया जा सकता है।
3. पास्कल का त्रिभुज और संयोजन: संयोजन के नियमों का उपयोग प्राचीन भारतीय ग्रंथों में भी किया गया था। सुश्रुत संहिता (6वीं शताब्दी ईसा पूर्व) में लिखा गया है कि 6 अलग-अलग रसों (कड़वा, खट्टा, नमकीन, कसैला, मीठा और तीखा) को विभिन्न तरीकों से मिलाकर 63 संयोजन बनाए जा सकते हैं।
अगर इन्हें एक-एक, दो-दो, तीन-तीन आदि समूहों में बाँटा जाए, तो हमें 6, 15, 20, 15, 6 और 1 संयोजन मिलते हैं। इनका कुल योग 63 होता है, जो आधुनिक संयोजन गणना के नियमों से मेल खाता है।
4. पाई (π) का अनुमानित मान: आर्यभट्ट (499 ईसा पूर्व) ने आर्यभटीय में पाई का एक सटीक अनुमान दिया:
"100 में 4 जोड़ें, उसे 8 से गुणा करें और 62,000 जोड़ें। जो उत्तर मिलेगा, वह उस वृत्त की परिधि होगी जिसका व्यास 20,000 है।"
अगर इसे हल करें, तो हमें मिलता है:
π ≈ 3.1416
जो कि आज प्रचलित मान के बहुत करीब है।
5. किसी संख्या का घनमूल निकालने की विधि: आर्यभट्ट ने अपने ग्रंथ आर्यभटीय (499 ईसा पूर्व) में घनमूल निकालने का नियम भी दिया। हालाँकि, यह स्पष्ट नहीं है कि उनकी विधि पहले से ज्ञात थी या नहीं, लेकिन यह निश्चित रूप से उस समय की गणितीय उन्नति को दर्शाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गणितीय क्षेत्र में भारत का योगदान काफ़ी पुराना और समृद्ध रहा है। कई प्रमेय, जिनका श्रेय बाद में पश्चिमी गणितज्ञों को दिया गया, वे यहाँ पहले से प्रचलित थे। इन खोजों ने न सिर्फ़ भारतीय गणित को समृद्ध बनाया, बल्कि आगे चलकर पूरी दुनिया में गणितीय विकास की नींव भी रखी।
संदर्भ
मुख्य चित्र में आर्यभट्ट और एक बालिका का स्रोत : flickr, wikimedia
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