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कभी मेरठ की गलियों में सुबह की रौनक कुल्हड़ में चाय की सौंधी भाप से होती थी। गांवों के आँगन में मिट्टी के घड़ों में पकता अचार, और दादी के हाथों से बनी मिट्टी की हांडी वाली दाल — ये सिर्फ खाने के स्वाद नहीं थे, ये घर की खुशबू हुआ करते थे। मिट्टी की वो गंध, धीमी आँच पर पकता खाना, और बरामदे में बैठकर खाते समय जो सुकून मिलता था — वो सब जैसे अब किसी पुराने सपने का हिस्सा लगने लगा है।
समय बदला, और साथ में हमारी ज़िंदगी भी। आज जब हम चमकते किचन और पैक्ड फूड की दुनिया में जी रहे हैं, तो वह पुरानी मिट्टी की गंध जैसे कहीं पीछे छूट गई है। स्टील, प्लास्टिक और तेज़ रफ्तार ज़िंदगी ने हमारी रसोइयों से मिट्टी के बर्तनों को लगभग बेदख़ल कर दिया है। लेकिन क्या वाकई हमने जो छोड़ा है, वह सिर्फ एक परंपरा थी? स्टील, नॉन-स्टिक, माइक्रोवेव और प्लास्टिक की चकाचौंध में वो मिट्टी के बर्तन चुपचाप पीछे छूटते गए — जैसे किसी पुराने गीत की मद्धम होती धुन। अब जब हवा दूषित है, पानी में रसायन घुले हैं और बीमारियाँ घर-घर दस्तक दे रही हैं, तब दिल एक बार फिर वही पुराना सवाल पूछता है — क्या हमें मिट्टी की ओर लौटना चाहिए?
इस लेख में हम पहले समझेंगे कि भारत में मिट्टी के बर्तनों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व क्या रहा है और कैसे यह हमारी सभ्यता से जुड़ा हुआ है। फिर हम जानेंगे कि ये बर्तन पर्यावरण के लिए किस प्रकार लाभकारी हैं और प्लास्टिक के विकल्प के रूप में कैसे उभर सकते हैं। इसके बाद हम चर्चा करेंगे कि मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से हमारे स्वास्थ्य को क्या-क्या लाभ मिलते हैं। अंत में, हम देखेंगे कि आधुनिक तकनीक जैसे टेराकोटा ग्राइंडर जैसी पहलें किस प्रकार इन पारंपरिक बर्तनों को फिर से मुख्यधारा में ला रही हैं।
भारत में मिट्टी के बर्तनों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व
भारत की सभ्यता और संस्कृति में मिट्टी के बर्तनों की भूमिका सदियों से रही है। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर हड़प्पा और मोहनजोदड़ो तक की खुदाइयों में हमें मिट्टी के पात्र, भंडारण के बर्तन और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि मिट्टी के बर्तन हमारे सामाजिक और धार्मिक जीवन में कितने गहराई से जुड़े हुए थे। मेरठ सहित उत्तर भारत के गाँवों में कुछ दशक पहले तक इनका प्रयोग बहुत आम था—घरों में पानी रखने के लिए घड़े, पकवान बनाने के लिए हांडी, और चाय के लिए कुल्हड़ हर घर का हिस्सा हुआ करते थे। ये बर्तन केवल उपयोगी नहीं थे, बल्कि इनपर की गई चित्रकारी, नक्काशी और बनावट हमारी लोककला और शिल्प परंपरा का भी हिस्सा थीं।
आज भी देश के कई क्षेत्रों में धार्मिक अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों में मिट्टी के दीये, मूर्तियाँ और बर्तन प्रयोग में लाए जाते हैं। विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में मिट्टी के बर्तन अभी भी सांस्कृतिक पहचान से जुड़े हुए हैं। बच्चों को मिट्टी से खिलौने बनाना सिखाना एक पारंपरिक अभ्यास रहा है, जो रचनात्मकता और प्रकृति से जुड़ाव को बढ़ावा देता है। इसके अलावा, शादियों और पारंपरिक आयोजनों में कई बार मिट्टी के बर्तनों को शुभ माना जाता है। मेरठ के आसपास के इलाकों में भी कई कुम्हार आज भी अपनी पीढ़ियों पुरानी इस कला को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। यदि उन्हें पर्याप्त बाज़ार और प्रोत्साहन मिले, तो यह परंपरा फिर से अपने चरम पर लौट सकती है।
मिट्टी के बर्तनों के पर्यावरणीय लाभ और प्लास्टिक पर प्रभाव
मिट्टी के बर्तन पूरी तरह से प्राकृतिक और जैविक होते हैं। इनसे किसी प्रकार का कोई रासायनिक या प्लास्टिक प्रदूषण नहीं होता। जहाँ प्लास्टिक के कंटेनर गरम होने पर विषैली गैसें छोड़ते हैं, वहीं मिट्टी के बर्तन पर्यावरण को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाते। मेरठ से 90 किलोमीटर दूर खुर्जा जैसी जगहों पर आज भी मिट्टी के बर्तनों का निर्माण बड़े पैमाने पर होता है। सरकार द्वारा माटी कला बोर्ड जैसे प्रयासों के ज़रिए इस पारंपरिक शिल्प को पुनर्जीवित किया जा रहा है, ताकि पर्यावरणीय दृष्टिकोण से हानिकारक प्लास्टिक को हटाया जा सके। चाय के कुल्हड़, पानी की बोतलें और अचार रखने वाले घड़े—ये सभी मिट्टी से बने उत्पाद न केवल कारगर हैं, बल्कि पुनःप्रयोग और जैविक विघटनशील भी हैं।
इन बर्तनों का उत्पादन करने में न तो ऊर्जा की अत्यधिक खपत होती है और न ही किसी कार्बन उत्सर्जक प्रक्रिया का सहारा लिया जाता है। इसके विपरीत, प्लास्टिक उद्योग भारी मात्रा में ऊर्जा, रसायन और जल संसाधनों का उपभोग करता है। मिट्टी के बर्तनों का जीवनचक्र पूरा होने पर ये आसानी से मिट्टी में मिल जाते हैं, जिससे भूमि की उर्वरता बनी रहती है। आज जब दुनिया भर में 'जीरो वेस्ट' और 'सस्टेनेबल प्रोडक्ट्स' की माँग बढ़ रही है, तब भारत के पारंपरिक मिट्टी के बर्तन एक आदर्श विकल्प के रूप में उभर सकते हैं। यदि इन उत्पादों को शहरी बाज़ारों और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म्स से जोड़ा जाए, तो यह पर्यावरण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था दोनों के लिए क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है।
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने के स्वास्थ्यवर्धक लाभ
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से भोजन का स्वाद प्राकृतिक रूप से बढ़ता है। यह केवल स्वाद ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी होता है। टेराकोटा बर्तन भोजन में उपस्थित अतिरिक्त अम्लता को निष्क्रिय कर देते हैं। ये माइक्रोवेव-सुरक्षित होते हैं और डेयरी उत्पादों के भंडारण के लिए आदर्श माने जाते हैं। मिट्टी से बने इन बर्तनों में धीमी आंच पर पकाए गए खाने में खनिज तत्व भी घुलकर मिलते हैं जो शरीर के लिए लाभकारी होते हैं। राजस्थान, तमिलनाडु और हैदराबाद जैसे राज्यों में आज भी कई पारंपरिक व्यंजन मिट्टी के बर्तनों में पकाए जाते हैं क्योंकि वहां यह विश्वास किया जाता है कि इन बर्तनों में पकाया गया खाना अधिक पोषण युक्त होता है। मेरठ में भी यदि इनका दोबारा चलन बढ़े, तो यह न केवल स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होगा बल्कि परंपराओं से जुड़ाव भी पुनः स्थापित होगा।
इसके अलावा, मिट्टी के बर्तन रासायनिक लेप या टेफ्लॉन जैसी कोटिंग से मुक्त होते हैं, जिससे हानिकारक पदार्थ भोजन में शामिल नहीं होते। मिट्टी की छिद्रयुक्त संरचना भोजन को धीरे-धीरे पकाती है जिससे आवश्यक पोषक तत्व नष्ट नहीं होते। यह विशेषता विशेष रूप से आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से भी लाभकारी मानी जाती है। आजकल कई पोषण विशेषज्ञ भी प्राकृतिक बर्तनों के उपयोग की सलाह देते हैं। साथ ही, जो लोग पाचन संबंधी समस्याओं से जूझ रहे हैं, उनके लिए मिट्टी में पकाया गया भोजन हल्का और सुपाच्य होता है। यदि शिक्षा संस्थान और हॉस्पिटल कैंटीन जैसी जगहों पर इन बर्तनों का प्रयोग बढ़ाया जाए, तो समाज में स्वास्थ्य को लेकर एक सकारात्मक संदेश भी जाएगा।
मिट्टी के बर्तनों के आधुनिक प्रयोग और तकनीकी नवाचार
आज की तकनीक भी मिट्टी के बर्तनों को नए रूप में प्रस्तुत कर रही है। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग द्वारा वाराणसी के सेवापुरी में ‘टेराकोटा ग्राइंडर’ नामक मशीन शुरू की गई है, जो टूटे-फूटे बर्तनों को पीसकर उन्हें फिर से उपयोग के लायक बनाती है। इससे मिट्टी की बर्बादी भी रुकती है और उत्पादन लागत में भी कमी आती है। एक अनुमान के अनुसार, कुम्हार इस तकनीक से 20% तक मिट्टी की बचत कर सकते हैं, जिससे उन्हें ₹500 से ₹600 तक की प्रत्यक्ष बचत होती है। यह पहल न केवल कारीगरों के लिए आर्थिक रूप से लाभकारी है, बल्कि गांवों में रोज़गार के नए अवसर भी पैदा कर रही है। केंद्र सरकार द्वारा रेलवे स्टेशनों पर कुल्हड़ और अन्य टेराकोटा उत्पादों को बढ़ावा देने की योजना, इस दिशा में एक सराहनीय कदम है। मेरठ जैसे शहरों में भी यदि इस तकनीक को अपनाया जाए, तो यह परंपरा, पर्यावरण और प्रगति—तीनों का संगम बन सकता है।
इसके साथ ही, ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म जैसे अमेज़न और फ्लिपकार्ट पर अब ‘हैंडमेड टेराकोटा’ उत्पादों की मांग बढ़ रही है, जिससे कुम्हारों को नया बाज़ार मिल रहा है। नई पीढ़ी के डिज़ाइनर और स्टार्टअप्स पारंपरिक टेराकोटा बर्तनों को आधुनिकता से जोड़कर फैशनेबल बना रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, टेराकोटा से बनी बोतलें और थाली सेट आज शहरों के कैफे और रेस्तरां में भी प्रयोग हो रहे हैं। अगर मेरठ जैसे शहरों में भी युवाओं को प्रशिक्षण और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स से जोड़ा जाए, तो यह शिल्प आधुनिक मार्केट से कदम से कदम मिला सकता है। साथ ही, ऐसी तकनीकी पहलों से मिट्टी की गुणवत्ता को सुरक्षित रखने और बर्तन निर्माण की प्रक्रिया को तेज़ करने में मदद मिलती है। यह नवाचार परंपरा को जीवंत रखने का सशक्त साधन बन रहा है।
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