रक्षाबंधन: मेरठ की संस्कृति में सहेजे रिश्तों, परंपराओं और भावनाओं का पर्व

अवधारणा II - नागरिक की पहचान
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रक्षाबंधन: मेरठ की संस्कृति में सहेजे रिश्तों, परंपराओं और भावनाओं का पर्व

रक्षाबंधन का पर्व भारत की सांस्कृतिक आत्मा में रचा-बसा है, और मेरठ जैसे ऐतिहासिक शहर में यह उत्सव केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि पारिवारिक आत्मीयता और सामाजिक जुड़ाव का जीवंत प्रतीक बन चुका है। यहाँ की गलियों, मोहल्लों और परिवारों में रक्षाबंधन सिर्फ राखी बाँधने की रस्म नहीं, बल्कि उन रिश्तों को दोबारा जीने का अवसर है, जो समय और दूरी के कारण कभी-कभी धुंधले पड़ने लगते हैं। मेरठ की संस्कृति में जहाँ एक ओर पारंपरिक मूल्य अभी भी सांस लेते हैं, वहीं आधुनिक जीवनशैली के बीच रक्षाबंधन जैसे पर्व पुराने भावनात्मक धागों को फिर से मजबूत कर देते हैं। बदलते दौर में जब परिवार बिखर रहे हैं और रिश्ते औपचारिक हो रहे हैं, तब रक्षाबंधन मेरठवासियों के लिए एक ऐसा दिन बन गया है जब घर के आंगन में सिर्फ राखी नहीं बंधती, बचपन लौटता है, अपनापन गहराता है और रिश्तों को फिर से संजोने की कोशिश होती है।

इस लेख में हम सबसे पहले हम इसके सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व को समझेंगे, जहाँ यह त्योहार केवल पारंपरिक बंधन नहीं बल्कि एक भावनात्मक और सांप्रदायिक जुड़ाव का प्रतीक बनता है। फिर हम देखेंगे कि वैश्विक स्तर पर यह उत्सव कैसे प्रवासी भारतीयों और विविध संस्कृतियों में अपनी पहचान बना रहा है। इसके बाद, हम जानेंगे कि भारत के अलग-अलग राज्यों में रक्षाबंधन किन विशिष्ट परंपराओं के साथ मनाया जाता है। चौथे हिस्से में हम विश्लेषण करेंगे कि भाई-बहन का संबंध कैसे एक व्यक्ति के बचपन से वयस्कता तक उसके भावनात्मक विकास में भूमिका निभाता है। अंत में, हम इस बात पर प्रकाश डालेंगे कि कैसे भाई-बहन एक-दूसरे के समाजीकरण के सहायक बनते हैं, और एक संतुलित व्यक्तित्व के निर्माण में योगदान करते हैं।

रक्षाबंधन का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व और सार्वभौमिकता
रक्षाबंधन कोई साधारण पर्व नहीं है, यह भारतीय संस्कृति में रिश्तों की गरिमा और भावनात्मक स्थायित्व का प्रतीक बन चुका है। यह केवल धागा नहीं, बल्कि एक विश्वास का बंधन है, एक ऐसा सामाजिक अनुबंध जो भाई-बहन के रिश्ते को सम्मान, सुरक्षा और आत्मीयता की कानूनी मान्यता जैसा दर्जा देता है। आज जब शहरीकरण और व्यस्त जीवनशैली के चलते परिवारों में भावनात्मक संवाद कम होते जा रहे हैं, ऐसे में रक्षाबंधन जैसे पर्व रिश्तों में एक जरूरी विराम बनकर सामने आते हैं, जहाँ बचपन की मीठी तकरारें, बुआ की भेजी राखियाँ, नानी का डिब्बा और भाइयों की जेबें, सब एक साथ याद आ जाते हैं। मेरठ जैसे शहर, जहाँ मोहल्ला, चबूतरा और छतों पर रिश्ता जीया जाता है, वहाँ यह पर्व केवल एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि पूरे परिवार के भावनात्मक पुनर्मिलन का अवसर बन जाता है।

वैश्विक परिदृश्य में रक्षाबंधन का उत्सव
ग्लोबलाइजेशन (Globalization) के इस युग में जब मेरठ जैसे शहरों के युवा भी शिक्षा, रोजगार या व्यवसाय के लिए विदेशों में बसते जा रहे हैं, तब रक्षाबंधन उनके लिए अपने देश और परिवार से जुड़े रहने का भावनात्मक जरिया बन गया है। अमेरिका (America), ब्रिटेन (Britain), कनाडा (Canada), खाड़ी देशों और ऑस्ट्रेलिया (Australia) जैसे देशों में बसे मेरठवासी अब डिजिटल (digital) राखियों, ऑनलाइन (online) मिठाइयों और वर्चुअल (virtual) समारोहों के माध्यम से इस पर्व को मनाते हैं। कई बार बहनें अपने जैविक भाई से दूर होते हुए भी 'रक्षा सूत्र' किसी ऐसे पुरुष मित्र या रिश्तेदार को भेजती हैं, जो उनके लिए स्नेह और विश्वास का प्रतीक बन चुका हो। रक्षाबंधन अब सिर्फ धार्मिक उत्सव नहीं रहा, बल्कि यह प्रवासी भारतीयों की सांस्कृतिक अस्मिता, भावनात्मक जुड़ाव और अपनी जड़ों से रिश्ते को निभाने की जीवंत परंपरा बन गया है, और मेरठ के लोगों के लिए यह जुड़ाव विदेश में भी उतना ही मजबूत है जितना घर के आंगन में।

भारत के विभिन्न राज्यों में रक्षाबंधन की अनूठी परंपराएं
भारत की सांस्कृतिक विविधता रक्षाबंधन को भी विभिन्न रंगों में रंग देती है। कहीं यह रक्षा का पर्व है, तो कहीं आत्म-शुद्धि और ज्ञान के नवीकरण का अवसर। जैसे दक्षिण भारत में अवनि अवित्तम के दिन ब्राह्मण समुदाय जनेऊ बदलते हैं और वैदिक मंत्रों के साथ आत्मशुद्धि का संकल्प लेते हैं। महाराष्ट्र में नारियल पूर्णिमा के रूप में समुद्र देवता की पूजा की जाती है, जिससे यह त्योहार मछुआरों और तटीय समुदायों के लिए खास बन जाता है। उत्तर भारत में जहाँ बहनें भाइयों की लंबी उम्र की कामना करती हैं, वहीं पूर्वोत्तर में राखी का त्योहार अब धार्मिक सीमाओं से परे जाकर मानवता और भाईचारे का प्रतीक बन गया है। मेरठ जैसे शहरों में, जो सांस्कृतिक संगम का केंद्र रहे हैं, यहाँ की रक्षाबंधन परंपराओं में न केवल पारंपरिक पूजा होती है, बल्कि कई मोहल्लों में स्थानीय समुदाय भी सामूहिक आयोजन कर त्योहार को सामुदायिक एकता के प्रतीक के रूप में मनाते हैं।

भाई-बहन का संबंध: बचपन से वयस्कता तक एक गहरा प्रभाव
भाई-बहन का रिश्ता जीवन की पहली संगति है, जहाँ एक-दूसरे के साथ रोना, हँसना, लड़ना और फिर बिना शर्त माफ कर देना, सब कुछ सहज रूप से सीखा जाता है। मनोवैज्ञानिक इस रिश्ते को एक  ‘social mirror’ मानते हैं, जिसमें हम अपने व्यवहार, स्वभाव और भावनाओं को पहचानना शुरू करते हैं। यह रिश्ता ही वह ज़मीन है जहाँ आत्मविश्वास, निर्णय क्षमता और सामाजिक समझ के बीज बोए जाते हैं। मेरठ के पारंपरिक संयुक्त परिवारों में जब बड़े भाई बहनों की पढ़ाई, करियर (career) और आत्मनिर्भरता में मार्गदर्शक बनते हैं, या जब बहनें घर के भावनात्मक संतुलन को संभालती हैं, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि राखी का बंधन सिर्फ रक्षा का नहीं, बल्कि परस्पर प्रेरणा, साझेदारी और आजीवन समर्थन का बंधन है।

भाई-बहन: समाजीकरण के सहायक 
समाजशास्त्रियों के अनुसार, सामाजिक सीखने (social learning) की सबसे पहली कक्षा परिवार होता है, और उसमें भी भाई-बहन का संबंध सबसे प्रभावशाली होता है। एक बहन अपने छोटे भाई को यह सिखा सकती है कि कैसे सम्मान और संवेदनशीलता से पेश आना चाहिए, जबकि एक बड़ा भाई अपने बहन को आत्म-रक्षा, नेतृत्व या हिम्मत का पाठ पढ़ा सकता है। भावनात्मक बुद्धिमत्ता (emotional intelligence), यानी दूसरों की भावनाओं को समझने, सहानुभूति दिखाने और सामाजिक तनाव को संभालने की क्षमता, यह सब इस रिश्ते के रोज़मर्रा के अनुभवों में सहजता से सिखाया जाता है। मेरठ जैसे शहर, जहाँ मोहल्लों में अब भी सामूहिकता की भावना बची हुई है, वहाँ भाई-बहन का रिश्ता कई बार एक-दूसरे के लिए स्कूल से पहले शिक्षक बन जाता है। यही वजह है कि राखी का त्योहार केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक गहन सामाजिक शिक्षण प्रक्रिया का प्रतीक भी है।

संदर्भ-
https://tinyurl.com/33z7tjzx 

https://tinyurl.com/nrdknz8s