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मेरठवासियों, सावन का आगमन होते ही जैसे पूरा शहर श्रद्धा की बयार में बहने लगता है। गंगाजल से भरे कांवड़ों के साथ "बोल बम" की गूंज, मेरठ की गलियों और हाईवे को भक्तिमय रंग में रंग देती है। हर साल हजारों श्रद्धालु जब हरिद्वार से लौटते हुए मेरठ से गुजरते हैं, तो यह शहर सिर्फ एक मार्ग नहीं, बल्कि स्नेह, सेवा और समर्पण का संगम बन जाता है। जगह-जगह लगे शिविर, ठंडे पेय, प्राथमिक उपचार की व्यवस्था और मुस्कुराकर स्वागत करते चेहरे, ये सब मेरठ की गंगा-जमुनी तहज़ीब का जीवंत प्रमाण हैं। प्रशासनिक चौकसी हो या आम लोगों की सेवा भावना, हर कोई इस यात्रा को सहज और सम्मानजनक बनाने में अपनी भूमिका निभाता है। कांवड़ यात्रा यहां एक परंपरा नहीं, बल्कि वो उत्सव है जिसमें मेरठ खुद शिवभक्त बन जाता है, हर कदम पर श्रद्धा, हर मोड़ पर सेवा।
इस लेख में हम सबसे पहले, हम जानेंगे कांवड़ यात्रा का धार्मिक और पौराणिक महत्व, जहाँ भगवान शिव, गंगाजल और सावन के संबंधों की चर्चा होगी। फिर हम इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को खंगालेंगे, यह जानने के लिए कि कैसे यह यात्रा सदियों में बदलती हुई परंपरा बन गई। इसके बाद हम कांवड़ यात्रा के प्रमुख प्रकारों, डाक कांवड़, सहारा कांवड़ और खड़ी कांवड़, की विशेषताओं को देखेंगे। चौथे हिस्से में आधुनिक संरचना, प्रशासनिक प्रबंधन और तकनीकी निगरानी की बात करेंगे, जिससे लाखों यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है। अंत में, हम मेरठ में कांवड़ यात्रा के आयोजन, सामाजिक सहभागिता, सेवा भावना और सांस्कृतिक समरसता पर विशेष ध्यान देंगे, जो इसे सिर्फ यात्रा नहीं, बल्कि जन-आस्था का उत्सव बना देती है।

कांवड़ यात्रा का धार्मिक व पौराणिक महत्व
कांवड़ यात्रा हिन्दू धर्म में भगवान शिव की आराधना का एक अत्यंत विशेष और भावनात्मक रूप है। इस यात्रा का गहरा संबंध शिवपुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों से है। मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले हलाहल विष को जब भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया, तो देवताओं और ऋषियों ने गंगाजल से उनका अभिषेक कर उनके ताप को शांत किया। तभी से सावन के महीने में गंगाजल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाने की परंपरा आरंभ हुई। आज भी यह परंपरा "जलाभिषेक" के रूप में निभाई जाती है, जिसमें गंगाजल को विशेष रूप से हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख या सुल्तानगंज (अजगैबीनाथ मंदिर) जैसे तीर्थों से लाकर 12 ज्योतिर्लिंगों समेत कई प्रमुख शिव मंदिरों में अर्पित किया जाता है। भक्तों का विश्वास है कि यह कार्य उनके पापों का शमन करता है और शिव कृपा प्राप्त होती है। यह यात्रा भक्तों के लिए केवल एक धार्मिक कर्तव्य नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, समर्पण और तपस्या का मार्ग बन गई है।
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिक जड़ें भारतीय धार्मिक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई हैं। ऐसी मान्यता है कि पूर्व में कुछ तपस्वी और भक्तगण विशेष पर्वों पर गंगा नदी से जल लाकर शिवलिंग पर चढ़ाया करते थे। धीरे-धीरे यह एक संगठित रूप में सामने आया और विभिन्न क्षेत्रों में इसकी अलग-अलग धारणाएँ बनने लगीं। 18वीं शताब्दी में बिहार के सुल्तानगंज से देवघर (बाबा बैद्यनाथ धाम) तक की यात्रा को भी इसका एक आरंभिक स्वरूप माना जाता है, जहाँ श्रद्धालु अजगैबीनाथ मंदिर से गंगा जल लेकर बैद्यनाथ मंदिर तक नंगे पाँव चलते हैं। इसी तरह उत्तर भारत में हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख और ऋषिकेश जैसे स्थानों से भी यह परंपरा विकसित हुई, जो अब कांवड़ यात्रा का केंद्रीय आधार बन चुके हैं। उत्तर भारत में यह यात्रा विशेष रूप से हरिद्वार से आरंभ होकर विभिन्न राज्यों और शहरों से होती हुई शिवधामों तक पहुँचती है। जैसे-जैसे समय बढ़ा, वैसे-वैसे इस यात्रा ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप ले लिया, जहाँ जाति, वर्ग, उम्र और लिंग की सीमाएँ टूटने लगीं और भक्ति की एकजुटता सामने आई।

कांवड़ यात्रा के प्रमुख प्रकार
कांवड़ यात्रा की सुंदरता इसकी विविधता में छिपी है। हर भक्त अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार यात्रा करता है और प्रत्येक रूप में भक्ति का अनोखा रंग दिखाई देता है।
सामान्य कांवड़: यह सबसे अधिक प्रचलित रूप है, जिसमें भक्त पैदल चलते हुए गंगाजल अपने गंतव्य तक लेकर जाते हैं। आमतौर पर यह भक्त नंगे पाँव चलते हैं और दिन-रात के अंतर से परे पूरी निष्ठा से आगे बढ़ते हैं।
डाक कांवड़: इस प्रकार के कांवड़िये तेजी से दौड़ते हुए जल पहुँचाते हैं, अक्सर ये युवा होते हैं और कम समय में अधिक दूरी तय करते हैं। इनके लिए दलों में काम करना और समय-सीमा के भीतर जल पहुँचाना एक सामूहिक संकल्प होता है।
कड़ी कांवड़: इस यात्रा में जल से भरी कांवड़ को ज़मीन पर नहीं रखा जाता, इसे हमेशा हवा में ही टांगा जाता है। यह रूप उन श्रद्धालुओं द्वारा निभाया जाता है जो मानते हैं कि पवित्र गंगाजल को पृथ्वी पर नहीं टिकाना चाहिए।
डंडी कांवड़: सबसे कठिन रूप, जिसमें भक्त प्रत्येक कदम पर साष्टांग प्रणाम करते हुए आगे बढ़ते हैं। कुछ कांवड़िए तो इस यात्रा को पूरा करने के लिए जमीन पर लेटते हुए आगे बढ़ते हैं, जिसे पूर्ण समर्पण और तपस्या का प्रतीक माना जाता है।
इन सभी रूपों में एक बात समान होती है, भक्ति की गहराई और भगवान शिव के प्रति अटूट श्रद्धा।

कांवड़ यात्रा की आधुनिक संरचना और आयोजन
आज की कांवड़ यात्रा एक विशाल आयोजन में बदल चुकी है, जो धार्मिक आस्था के साथ-साथ सामाजिक संगठनों, प्रशासन और तकनीक का समन्वय भी दिखाती है। करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु हर वर्ष इस यात्रा में भाग लेते हैं। कांवड़ियों के लिए बांस से बने विशेष उपकरण “कांवड़” का उपयोग किया जाता है, जिसमें दोनों ओर जल से भरे घड़े टंगे होते हैं और इसे कांधे पर रखकर संतुलन बनाकर ले जाया जाता है। आधुनिक युग में कुछ कांवड़िए साइकिल, बाइक या वाहन काफिलों का भी प्रयोग करते हैं, किंतु पारंपरिक श्रद्धालु अब भी नंगे पाँव और पैदल यात्रा को प्राथमिकता देते हैं। अधिकतर भक्त गेरुए वस्त्र धारण करते हैं, जो संन्यास और साधना का प्रतीक है। सड़कों पर विशेष ट्रैफिक मैनेजमेंट (Traffic Management), मोबाइल मेडिकल यूनिट्स (Mobile Medical Units), साफ-सफाई की व्यवस्था, और महिला सुरक्षा दल जैसे इंतज़ाम इसे सुव्यवस्थित बनाते हैं। जगह-जगह पर भव्य सेवा शिविर बनाए जाते हैं, जहाँ निःशुल्क भोजन, पेय, दवाई और रात्रि विश्राम की सुविधा उपलब्ध होती है।

मेरठ में कांवड़ यात्रा: आस्था की राह पर सेवा और सजगता
सावन का महीना आते ही मेरठ की सड़कों पर केसरिया रंग की लहर दौड़ जाती है। हजारों कांवड़िए, "बोल बम" के नारों के साथ, हरिद्वार से गंगाजल लेकर मेरठ के रास्ते अपने-अपने शिव मंदिरों की ओर बढ़ते हैं। यह सिर्फ एक धार्मिक यात्रा नहीं, बल्कि श्रद्धा, संकल्प और सामाजिक समर्पण का प्रतीक है। मेरठ, इस विशाल यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बनकर हर साल अपने प्रबंधन और मेहमाननवाज़ी से देशभर में मिसाल कायम करता है। इस वर्ष 10 जुलाई से कांवड़ यात्रा के लिए दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे (express) को पूरी तरह से कांवड़ियों के लिए समर्पित कर दिया गया है। सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से 3000 से अधिक CCTV कैमरे, 25 ड्रोन (drone), और 50 वॉच टावर (watch tower) लगाए गए हैं। पुलिस और प्रशासनिक टीमें 24 घंटे मुस्तैद हैं, ताकि हर कांवड़िया सुरक्षित और ससम्मान यात्रा पूरी कर सके। शहर भर में सैकड़ों शिविर लगाए गए हैं जहाँ ठहरने, भोजन, प्राथमिक उपचार, और आराम की बेहतरीन व्यवस्था है। नगर निगम द्वारा सफाई, पानी और रोशनी की व्यवस्था लगातार की जा रही है। स्क्रीन (LED Screen ) के ज़रिए सूचनाएँ दी जा रही हैं और 107 से अधिक पुलिस चौकियाँ बनाए गई हैं ताकि कोई भी परेशानी तुरंत सुलझाई जा सके। मेरठ के नागरिक भी इस दौरान बढ़-चढ़कर सेवा में जुटते हैं, कहीं जलपान की व्यवस्था करते हैं, तो कहीं थके यात्रियों के पैरों की सेवा। कांवड़ यात्रा यहां सिर्फ एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, अनुशासन और श्रद्धा की साझा अभिव्यक्ति है, जहाँ भक्तों के कदमों की आहट में भक्ति भी है और प्रशासन की तैयारियों में भरोसे का एहसास भी।
संदर्भ-