विश्व हाथी दिवस पर मेरठ को जानना होगा हाथियों का सांस्कृतिक और पर्यावरणीय मोल

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विश्व हाथी दिवस पर मेरठ को जानना होगा हाथियों का सांस्कृतिक और पर्यावरणीय मोल

मेरठ, जो आज उत्तर भारत का एक प्रमुख और गतिशील शहर है, केवल इतिहास और व्यापार के लिए नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक चेतना के लिए भी जाना जाता है, जो प्रकृति और जीवों के साथ गहरे संबंध को दर्शाती हैं। इसी संदर्भ में हाथियों का ज़िक्र केवल एक वन्यजीव चर्चा नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और सांस्कृतिक अनुभव है। भारत में हाथी सदियों से बुद्धिमत्ता, धैर्य और शक्ति के प्रतीक रहे हैं, वे हमारे मंदिरों में पूजे जाते हैं, हमारी लोककथाओं का हिस्सा हैं, और हमारे त्योहारों की शोभा बढ़ाते हैं। लेकिन आज, यही गौरवशाली जीव मानव लालच, अवैध शिकार, और पर्यावरणीय असंतुलन के चलते संकट में हैं। विश्व हाथी दिवस जैसे अवसर हमें यह सोचने का मौका देते हैं कि क्या हम उस जीवन की कल्पना कर सकते हैं जहाँ जंगल तो हों, पर उसमें हाथियों की गूँज न हो? मेरठ जैसे शहर, जहाँ चेतना और संवेदना का इतिहास रहा है, वहाँ के नागरिकों के लिए यह दिन केवल एक जानकारी का विषय नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी और जागरूकता का आह्वान भी है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इन महान जीवों की उपस्थिति को महसूस कर सकें। 

इस लेख में हम सबसे पहले, हम जानेंगे कि भारतीय संस्कृति में हाथियों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व क्या रहा है। फिर, हम देखेंगे कि एशियाई और भारतीय हाथियों की जैविक रचना, शारीरिक विशेषताएँ और उनका व्यवहार कैसा होता है। इसके बाद, हम पढ़ेंगे कि भारत में हाथियों के प्राकृतिक आवास कौन-कौन से हैं, उनका भौगोलिक वितरण कैसा है, और उत्तर प्रदेश में उनकी वर्तमान स्थिति क्या है। आगे, हम चर्चा करेंगे कि हाथी आज विलुप्ति की कगार पर क्यों पहुँच गए हैं और इसके पीछे कौन-कौन से कारण ज़िम्मेदार हैं। अंत में, हम जानेंगे कि मेरठ के निकट शिवालिक क्षेत्र में 50 लाख वर्ष पुराना हाथी का जो जीवाश्म मिला है, उसका वैज्ञानिक और ऐतिहासिक महत्त्व क्या है।

भारतीय हाथी: एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रतीक
भारतीय इतिहास और संस्कृति में हाथी सदियों से शक्ति, समृद्धि और राजसत्ता का प्रतीक रहा है। प्राचीन काल में ये केवल एक जानवर नहीं थे, बल्कि राजाओं की सैन्य शक्ति और शाही वैभव का प्रदर्शन करने वाले महत्वपूर्ण अंग हुआ करते थे। युद्धों में हाथियों का उपयोग निर्णायक माना जाता था, क्योंकि इन पर सवार होकर सेनापति युद्धभूमि में प्रवेश करते थे और शत्रु को भयभीत करते थे। इसके अतिरिक्त, हाथियों की उपस्थिति शाही काफ़िलों में अनिवार्य थी, वे सत्ता, गरिमा और महिमा के परिचायक माने जाते थे। हाथी केवल सामरिक दृष्टि से ही नहीं, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत पूजनीय रहे हैं। भारत के कई मंदिरों में हाथी की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं, जिनका उद्देश्य स्वागत और समर्पण का भाव दर्शाना होता है। लोक कथाओं, पौराणिक आख्यानों और धार्मिक ग्रंथों में भी हाथी एक विशेष स्थान रखते हैं, भगवान इन्द्र का वाहन 'ऐरावत' इसका एक प्रमुख उदाहरण है। इस सांस्कृतिक समृद्धि के बावजूद, जिस जीव को कभी देवतुल्य सम्मान प्राप्त था, वही आज आधुनिक समय में अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है।

एशियाई और भारतीय हाथियों की जैविक विशेषताएँ
भारतीय हाथी, एशियाई हाथी की एक विशिष्ट उपप्रजाति है, जिसका वैज्ञानिक नाम एलिफस मैक्सिमस इंडिकस (Elephas maximus indicus) है। यह उपप्रजाति शारीरिक संरचना और व्यवहार दोनों में अफ्रीकी हाथियों से अलग होती है। औसतन एक वयस्क नर भारतीय हाथी की ऊँचाई 2.75 मीटर तक होती है और उसका वज़न लगभग 4.4 टन तक पहुँच सकता है, जबकि मादाएं आकार और वज़न में अपेक्षाकृत छोटी होती हैं। हाथियों के शरीर की प्रमुख हड्डियों में पसलियाँ भी शामिल होती हैं, भारतीय हाथियों में सामान्यतः 19 पसलियाँ पाई जाती हैं, जबकि कुछ मामलों में यह संख्या 20 तक भी हो सकती है। इनकी सूंड हाथी की सबसे विशेष जैविक संरचना मानी जाती है। यह दरअसल उनकी नाक और ऊपरी होंठ का विस्तारित रूप होती है, जिसमें लगभग 60,000 अलग-अलग मांसपेशियाँ होती हैं। इस जटिल संरचना के कारण सूंड अत्यधिक लचीली, संवेदनशील और शक्तिशाली बनती है। यही सूंड हाथी को न केवल भोजन ग्रहण करने, जल पीने, वस्तुओं को उठाने और संवाद करने में सहायता करती है, बल्कि यह उसके सामाजिक व्यवहार और भावनात्मक जुड़ाव का भी माध्यम होती है।

भारत में हाथियों के प्राकृतिक आवास और वितरण का वर्तमान परिदृश्य
भारतीय हाथी विविध पारिस्थितिक तंत्रों में पाए जाते हैं, जिनमें नम पर्णपाती वन, शुष्क पर्णपाती वन, अर्ध-सदाबहार वन, उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन और घास के विस्तृत मैदान शामिल हैं। इनका वितरण समुद्र तल से लेकर लगभग 3,000 मीटर की ऊँचाई तक के क्षेत्रों में पाया गया है, विशेषकर पूर्वोत्तर भारत में जहाँ जैव विविधता अत्यंत समृद्ध है। यह भी देखा गया है कि हाथी अपनी मौसमी गतिशीलता के आधार पर इन अलग-अलग आवासों में भ्रमण करते हैं। भारत में वर्तमान में जंगली हाथियों की कुल संख्या लगभग 26,000 से 28,000 के बीच अनुमानित है, जो कि विश्व में पाए जाने वाले एशियाई हाथियों की आबादी का लगभग 60% है। लेकिन उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह संख्या अत्यंत सीमित हो चुकी है। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में केवल 232 हाथी बचे हैं, जिनका अधिकांश हिस्सा राजाजी टाइगर रिज़र्व (Rajaji Tiger Reserve), कॉर्बेट नेशनल पार्क (Corbett National Park) और लैंसडाउन वन प्रभाग (Lansdowne Forest Division) तक ही सीमित रह गया है। इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि उत्तर प्रदेश में हाथियों का प्राकृतिक आवास लगातार सिमटता जा रहा है, जिससे इनका अस्तित्व संकट में पड़ गया है।

विलुप्ति की कगार पर हाथी: कारण और संरक्षण संबंधी चिंताएँ
हाथियों के अस्तित्व पर मंडराते संकट के पीछे कई गंभीर कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है, प्राकृतिक आवास का तेज़ी से क्षरण और मानव अतिक्रमण। जैसे-जैसे वनों की कटाई होती जा रही है और कृषि एवं शहरीकरण का विस्तार हो रहा है, हाथियों को अपने पारंपरिक गलियारों से भटकना पड़ रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि वे अक्सर बस्तियों में प्रवेश कर जाते हैं, जिससे मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत क्षेत्र में ऐसी ही एक घटना में दो हाथी जंगल से भटक कर बस्ती में आ गए और पाँच लोगों पर हमला कर दिया। ये घटनाएँ इस बात का संकेत हैं कि हाथी और मनुष्य के बीच का संतुलन अब अस्थिर हो चुका है। वहीं दूसरी ओर, कैद में रखे गए हाथियों की स्थिति भी चिंताजनक है। धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में उपयोग किए जाने वाले हाथियों को अक्सर कठोर परिस्थितियों में रखा जाता है। उनमें गठिया, पैरों की सड़न, पोषण की कमी और मानसिक तनाव जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ आम होती जा रही हैं। आज यह परंपरा, जिसमें हाथी मंदिरों, शोभायात्राओं और मेलों में कैद रहते हैं, गंभीर नैतिक और पारिस्थितिक प्रश्नों को जन्म दे रही है।

शिवालिक वन क्षेत्र में मिला 50 लाख वर्ष पुराना हाथी का जीवाश्म
मेरठ क्षेत्र के पास स्थित सहारनपुर जिले के शिवालिक वन प्रभाग में हाल ही में एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोज हुई है। इस क्षेत्र में 50 लाख वर्ष पुराना एक हाथी का जीवाश्म प्राप्त हुआ है, जो स्टेगोडॉन (Stegodon) नामक एक प्राचीन, अब विलुप्त हो चुकी प्रजाति से संबंधित है। यह जीवाश्म आकार में विशाल और संरचना में जटिल है, जो उस युग के पारिस्थितिक संतुलन और जैविक विविधता की झलक देता है। वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (Wadia Institute of Himalayan Geology), देहरादून के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में यह निष्कर्ष निकला है कि यह जीवाश्म उन जीवों में गिना जा सकता है जो संभवतः डायनासोर (dinosaur) के काल के बाद अस्तित्व में आए। इस खोज से यह भी प्रमाणित होता है कि मेरठ और उसके आसपास का भूभाग लाखों वर्ष पूर्व विशालकाय स्तनधारियों का प्राकृतिक आवास रहा है। यह जीवाश्म न केवल एक वैज्ञानिक चमत्कार है, बल्कि मेरठ की पारिस्थितिक और ऐतिहासिक विरासत को भी उजागर करता है, यह दर्शाते हुए कि हाथियों का संबंध इस धरती से केवल वर्तमान तक सीमित नहीं है, बल्कि इसकी जड़ें हमारे भूवैज्ञानिक अतीत तक जाती हैं।

संदर्भ-

https://shorturl.at/C23G0 

https://shorturl.at/VcKCw