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मेरठवासियों, हमारा शहर हमेशा से साहस और कर्तव्य की मिसाल रहा है। यह वही मिट्टी है, जहाँ से बहादुरी की कहानियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती रही हैं। जब प्रथम विश्व युद्ध का समय आया और दुनिया भर में संघर्ष की आग भड़क उठी, तब मेरठ और आसपास के इलाकों के अनगिनत जवान दूर-दूर के देशों में मोर्चों पर पहुँचे। अनजान धरती, कड़ाके की सर्दी और कठिन हालात के बीच उन्होंने डटकर जिम्मेदारी निभाई। उनके पास न तो अपने परिवार का सहारा था और न ही अपने घर का सुकून, लेकिन उनके हौसले कमजोर नहीं पड़े। उन्होंने अनुशासन और हिम्मत के बल पर न सिर्फ अपनी भूमिका निभाई, बल्कि दुनिया को यह दिखा दिया कि भारतीय सैनिकों में अटूट धैर्य और समर्पण की कितनी ताकत होती है। यह कहानी केवल युद्ध की नहीं, बल्कि उन दिलों की है, जिन्होंने अपने शहर और देश की इज़्ज़त के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया।
इस लेख में हम देखेंगे कि प्रथम विश्व युद्ध के कठिन दौर में भारतीय सैनिकों ने किस तरह साहस और कर्तव्य का परिचय दिया। हम विशेष रूप से 7वें मेरठ डिवीजन (7th Meerut Division) की भूमिका और उनके अद्भुत योगदान पर बात करेंगे। आगे हम उन महत्वपूर्ण लड़ाइयों को भी समझेंगे, जहाँ हमारे जवानों ने दुश्मनों का डटकर सामना किया। साथ ही हम यह भी चर्चा करेंगे कि युद्ध के दौरान उन्होंने किन कठिनाइयों का सामना किया और अंत में उनके बलिदान तथा अंग्रेज़ों के अधूरे वादों की कहानी को भी जानेंगे।
प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों की भूमिका
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों का योगदान पूरी दुनिया के लिए साहस और समर्पण का उदाहरण बन गया। ब्रिटिश (British) साम्राज्य की सेना का एक बड़ा हिस्सा भारतीय जवानों पर ही निर्भर था। लगभग 11 लाख भारतीय सैनिकों को यूरोप, अफ्रीका और मध्य पूर्व के युद्ध मोर्चों पर भेजा गया। फ्रांस (France), बेल्जियम (Belgium), मिस्र, गैलीपोली (Gallipoli), फिलिस्तीन (Palestine) और मेसोपोटामिया (Mesopotamia) जैसे दूर-दराज़ के इलाकों में उन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बिना लड़ाई लड़ी। कई बार उन्हें अनजाने और कठोर मौसम में युद्ध करना पड़ा, लेकिन फिर भी उनका मनोबल अडिग रहा। उनका साहस केवल लड़ाई तक सीमित नहीं था, बल्कि कई बार उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में भी दुश्मनों का रास्ता रोककर पूरे युद्ध की दिशा ही बदल दी। इन सैनिकों का यह योगदान आज भी भारतीय इतिहास में अद्वितीय मिसाल के रूप में दर्ज है।
मेरठ डिवीजन का योगदान
प्रथम विश्व युद्ध के समय मेरठ डिवीजन की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है। 1829 में स्थापित यह सैन्य इकाई 1914 में 7वें मेरठ डिवीजन के रूप में पुनर्गठित की गई। युद्ध की शुरुआत होते ही इस डिवीजन को पश्चिमी मोर्चे के लिए रवाना किया गया। इसमें मेरठ कैवेलरी ब्रिगेड (Cavalry Brigade), बरेली, दिल्ली और देहरादून ब्रिगेड जैसी कई इकाइयाँ शामिल थीं। इस डिवीजन ने न्यूवे चैपल (Neuve Chapelle) की लड़ाई में पहला बड़ा हमला किया, जिसने ब्रिटिश सेना को शुरुआती बढ़त दिलाई। हालांकि यूरोप की कड़ाके की ठंड, नए हथियारों की अनभिज्ञता और संसाधनों की कमी ने इन सैनिकों के लिए युद्ध को बेहद कठिन बना दिया। इन परिस्थितियों के चलते उन्हें बाद में मेसोपोटामिया के युद्ध क्षेत्र में भेजा गया, जहाँ उन्होंने नए मोर्चों पर फिर से अपने साहस का परिचय दिया और इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया।
प्रमुख लड़ाइयाँ और भारतीय वीरता
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों ने कई महत्वपूर्ण युद्धों में अपनी बहादुरी की छाप छोड़ी। गैलीपोली की लड़ाई में लगभग 16,000 भारतीय सैनिकों ने आठ महीने तक बेहद कठिन और खतरनाक परिस्थितियों में दुश्मनों का सामना किया। इसी तरह 1918 में हुई हाइफ़ा (Haifa) की ऐतिहासिक लड़ाई में भारतीय कैवेलरी ब्रिगेड ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए वर्तमान इज़राइल के हाइफ़ा शहर को ओटोमन (Ottoman) शासन से मुक्त कराया। थेसालोनिकी (Thessaloniki) की लड़ाई में 520 भारतीय सैनिकों ने ग्रीस (Greece) की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। इन लड़ाइयों के अलावा मेसोपोटामिया अभियान युद्ध का सबसे बड़ा मोर्चा रहा, जहाँ लगभग 5.8 लाख भारतीय सैनिकों ने कठिन परिस्थितियों के बावजूद साहस के साथ लड़ाई लड़ी। इन सभी युद्धों में भारतीय सैनिकों की वीरता ने मित्र राष्ट्रों की जीत में निर्णायक भूमिका निभाई।
युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों की चुनौतियाँ
युद्ध का मैदान हमारे सैनिकों के लिए केवल दुश्मनों का सामना करने का स्थान नहीं था, बल्कि यह एक कठिन परीक्षा भी थी। उन्हें यूरोप की कड़ाके की ठंड और बर्फीली हवाओं का सामना करना पड़ा, जबकि वे गर्म जलवायु के आदी थे। आधुनिक हथियारों का अनुभव न होने के कारण शुरुआती समय में उन्हें युद्ध में भारी परेशानियाँ आईं। युद्ध के लंबे दौर में संसाधनों की कमी और घर से दूर रहने की पीड़ा ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कमजोर किया। कई सैनिक दुश्मन के हाथों युद्धबंदी बन गए, और बंदी शिविरों में उन्हें कड़ी यातनाएँ सहनी पड़ीं। फिर भी इन कठिनाइयों के बीच उनका साहस और धैर्य कभी नहीं टूटा, और उन्होंने अपनी आखिरी साँस तक लड़ना जारी रखा।
बलिदान, अनदेखा योगदान और अधूरी उम्मीदें
प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों का बलिदान अत्यंत महान रहा। लगभग 75,000 भारतीय सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए, और लाखों अन्य घायल हुए या फिर युद्धबंदी बन गए। इतने बड़े योगदान और बलिदान के बावजूद उन्हें वह मान्यता नहीं मिल पाई जिसके वे हकदार थे। युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्रता देने का वादा किया था, लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद यह वादा अधूरा रह गया। यह अन्याय उन सैनिकों के बलिदान पर भारी पड़ा। फिर भी, उनकी वीरता और त्याग ने आने वाले स्वतंत्रता आंदोलन को नई ऊर्जा दी और पूरे देश को यह एहसास दिलाया कि भारतीय सिपाही किसी से कम नहीं हैं। उनका इतिहास आज भी देश के लिए गर्व और प्रेरणा का स्रोत है।
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