मेरठ का आलमगीरपुर: सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा और सांस्कृतिक पहचान

सभ्यता : 10000 ई.पू. से 2000 ई.पू.
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मेरठ का आलमगीरपुर: सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा और सांस्कृतिक पहचान

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ ज़िले में स्थित आलमगीरपुर, सिंधु घाटी सभ्यता का एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, जिसे इस सभ्यता की पूर्वी सीमा माना जाता है। यमुना नदी के किनारे बसे इस स्थल को स्थानीय रूप से “परशुराम का खेड़ा” भी कहा जाता था। आलमगीरपुर न केवल हड़प्पा संस्कृति के विस्तार को दर्शाता है, बल्कि यह उस समय की जीवनशैली, कला, और शिल्पकला का भी जीवंत प्रमाण है। मेरठ की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान में आलमगीरपुर का नाम बेहद खास है। यमुना नदी के किनारे बसा यह स्थान सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा माना जाता है, जिसने प्राचीन भारत के इतिहास को नई दिशा दी। स्थानीय लोगों के बीच “परशुराम का खेड़ा” के नाम से मशहूर आलमगीरपुर, सिर्फ पुरानी ईंटों और मिट्टी के बर्तनों का ढेर नहीं, बल्कि उस समय की जीवनशैली, व्यापारिक गतिविधियों, कला और शिल्पकला का सजीव प्रमाण है। यहां से मिले बारीक नक्काशी वाले बर्तन, टेराकोटा (terracotta) मूर्तियां और आभूषण यह बताते हैं कि हड़प्पा संस्कृति मेरठ तक पहुंची और यहां पनपी भी। आलमगीरपुर की हर खुदाई की परत मानो अतीत का दरवाज़ा खोल देती है, जो हमें यह एहसास कराती है कि मेरठ न सिर्फ आज के समय में, बल्कि हजारों साल पहले भी सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। 
इस लेख में हम चरणबद्ध तरीके से आलमगीरपुर की कहानी जानेंगे। सबसे पहले, हम इसके ऐतिहासिक महत्व और पहचान पर चर्चा करेंगे। फिर, हम खोज और उत्खनन का इतिहास जानेंगे, जिसमें 20वीं शताब्दी के मध्य में हुए पुरातात्विक सर्वेक्षण शामिल हैं। इसके बाद, हम मिट्टी के बर्तन और कार्यशाला के साक्ष्य देखेंगे, जो उस समय के औद्योगिक कौशल को दर्शाते हैं। आगे, हम मिली हुई कलाकृतियों के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे, जिनमें टेराकोटा, सिरेमिक (ceramic), और धातु की वस्तुएं शामिल हैं। फिर, हम कालखंडों का क्रम और अंतर समझेंगे, जो चार अलग-अलग सांस्कृतिक चरणों में बंटे थे। अंत में, हम जानेंगे आलमगीरपुर का सांस्कृतिक महत्व और भारतीय पुरातत्व में इसकी भूमिका।

आलमगीरपुर का ऐतिहासिक महत्व और पहचान
आलमगीरपुर, जिसे सिंधु घाटी सभ्यता की पूर्वी सीमा के रूप में जाना जाता है, भारतीय पुरातत्व के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह स्थल लगभग 2600 ईसा पूर्व से 2200 ईसा पूर्व के बीच सक्रिय था, जब हड़प्पा संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी। यमुना नदी के किनारे बसा यह स्थान उस समय व्यापार, शिल्पकला, कृषि और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक केंद्र रहा होगा। यहां पाए गए साक्ष्य यह दर्शाते हैं कि यह क्षेत्र न केवल स्थानीय बल्कि दूर-दराज़ के क्षेत्रों से भी जुड़ा हुआ था। स्थानीय लोककथाओं में इसे “परशुराम का खेड़ा” कहा जाता था, जो इस क्षेत्र की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रमाण है।

खोज और उत्खनन का इतिहास
आलमगीरपुर का पुरातात्विक महत्व 1958–59 में सामने आया, जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यहां खुदाई की। इस खुदाई में चार अलग-अलग सांस्कृतिक कालखंडों के स्पष्ट प्रमाण मिले, जिन्होंने इस स्थल के लंबे ऐतिहासिक सफर को उजागर किया। बाद में, 1974 में पंजाब विश्वविद्यालय ने भी इस स्थल का अध्ययन किया और कुछ और विवरण जोड़े। हालांकि खुदाई सीमित क्षेत्र में ही हुई, फिर भी इससे सिंधु घाटी सभ्यता के भौगोलिक विस्तार को यमुना के पूर्वी किनारे तक प्रमाणित किया जा सका। यह खोज भारतीय इतिहास में एक नए दृष्टिकोण को जन्म देने वाली साबित हुई।

मिट्टी के बर्तन और कार्यशाला के साक्ष्य
खुदाई के दौरान सबसे उल्लेखनीय खोजों में से एक थी हड़प्पा कालीन मिट्टी के बर्तन, जिनमें कप, प्लेट, फूलदान, ढक्कन और अन्य उपयोगी वस्तुएं शामिल थीं। इन बर्तनों के आकार, डिजाइन (design) और सतह पर की गई सजावट से पता चलता है कि यहां एक संगठित और कुशल बर्तन निर्माण कार्यशाला थी। बर्तनों की बनावट और गुणवत्ता इस बात का प्रमाण है कि उस समय शिल्पकला का स्तर काफी ऊँचा था और यह क्षेत्र न केवल स्थानीय आवश्यकताओं बल्कि संभवतः व्यापार के लिए भी वस्तुएं तैयार करता था।

मिली हुई कलाकृतियाँ
आलमगीरपुर से प्राप्त कलाकृतियां इसकी सांस्कृतिक समृद्धि का जीवंत प्रमाण हैं। यहां से सिरेमिक टाइलें (ceramic tiles), टेराकोटा मूर्तियां, घनाकार पासे, मोती और धातु के अवशेष मिले हैं। विशेष रूप से कूबड़ वाले बैल और सांप की मूर्तियां संभवतः धार्मिक आस्था या सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक सोने-मढ़ी हुई टेराकोटा आकृति और उच्च गुणवत्ता वाले वस्त्रों के प्रमाण इस बात को दर्शाते हैं कि यह स्थल आर्थिक और कलात्मक दृष्टि से उन्नत था। इन कलाकृतियों की विविधता यह भी बताती है कि यहां के लोग विभिन्न कलाओं और हस्तशिल्प में निपुण थे।

कालखंडों का क्रम और अंतर
आलमगीरपुर के उत्खनन से चार प्रमुख सांस्कृतिक कालखंड सामने आए - (I) हड़प्पा काल, (II) चित्रित ग्रे वेयर (gray ware) काल, (III) प्रारंभिक ऐतिहासिक काल, और (IV) मध्यकालीन काल। इन कालखंडों के बीच की परतों में स्पष्ट भौतिक अंतर देखने को मिलता है। हड़प्पा काल की परत ठोस और भूरी थी, जो निर्माण और बस्तियों की स्थिरता को दर्शाती है। इसके विपरीत, चित्रित ग्रे वेयर काल की परत ढीली थी और राख में लिपटी हुई ग्रे रंग की थी, जो संभवतः अलग जीवनशैली और तकनीकी बदलाव का संकेत देती है। इस क्रमिक विकास ने इस क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा को और स्पष्ट किया।

आलमगीरपुर का सांस्कृतिक महत्व
आलमगीरपुर की खोज ने यह साबित कर दिया कि सिंधु घाटी सभ्यता केवल पंजाब, सिंध और गुजरात तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका विस्तार पूर्व में यमुना नदी तक भी था। यह स्थल भारत की सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यहां से प्राप्त साक्ष्य हमें न केवल प्राचीन समय की औद्योगिक और शिल्पकला की झलक देते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि उस समय के लोग सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से कितने संगठित और उन्नत थे। भारतीय पुरातत्व में आलमगीरपुर की भूमिका अमूल्य है, क्योंकि यह हमें अतीत के बारे में ठोस प्रमाण और नई दृष्टि प्रदान करता है।

संदर्भ- 

https://short-link.me/1aZzp 

https://short-link.me/16A2M