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मेरठवासियों को शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!
भारत का इतिहास केवल राजाओं, सम्राटों और स्वतंत्रता सेनानियों की वीरगाथाओं से ही नहीं रचा गया, बल्कि उन महान शिक्षकों (teachers) के विचारों और उनके ज्ञान से भी गढ़ा गया है, जिन्होंने समाज को नई दिशा दी और आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा की मशाल प्रज्वलित की। भारतीय संस्कृति में शिक्षक को ‘गुरु’ कहा गया है, और यह माना गया है कि गुरु केवल ज्ञान देने वाला नहीं, बल्कि जीवन का सच्चा मार्गदर्शक होता है। यही कारण है कि गुरु को माता-पिता के समान दर्जा दिया गया है और उनकी वाणी को अमूल्य माना गया है। हर साल 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस (Teachers’ Day) मनाते हैं। यह दिन डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के रूप में पूरे देश में समर्पित होता है, जिन्होंने न केवल भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में देश का नेतृत्व किया, बल्कि एक आदर्श शिक्षक और महान दार्शनिक के रूप में भी शिक्षा को नई दिशा दी। इस अवसर पर छात्र अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, उन्हें धन्यवाद देते हैं और उनकी प्रेरणा को अपने जीवन में उतारने का संकल्प लेते हैं। भारत की शिक्षा परंपरा इतनी गहरी और समृद्ध है कि इसमें प्राचीन गुरुकुलों से लेकर आधुनिक विश्वविद्यालयों तक का योगदान रहा है। यहाँ ऐसे शिक्षक हुए जिन्होंने सिर्फ़ पाठ्यक्रम पढ़ाने तक खुद को सीमित नहीं रखा, बल्कि समाज सुधार, राष्ट्रनिर्माण और मानवीय मूल्यों की स्थापना को ही शिक्षा का मूल उद्देश्य माना। आइए, इस लेख में हम कुछ ऐसे ही प्रमुख शिक्षकों के जीवन और योगदान को जानें, जिन्होंने भारतीय समाज और शिक्षा की धारा को हमेशा के लिए बदल दिया।
इस लेख में हम ऐसे ही पाँच महान शिक्षकों के योगदान पर चर्चा करेंगे। सबसे पहले, हम पढ़ेंगे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में, जिन्होंने दर्शनशास्त्र (philosophy) और शिक्षा को जीवन का ध्येय बनाया और बाद में राष्ट्रपति पद तक पहुँचे। फिर हम देखेंगे सावित्रीबाई फुले की संघर्षमयी यात्रा, जिन्होंने जाति और लिंग भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ते हुए लड़कियों के लिए शिक्षा का द्वार खोला। इसके बाद हम जानेंगे चाणक्य के बारे में, जो राजनीति और कूटनीति (statecraft and strategy) के शिक्षक के रूप में आज भी प्रासंगिक हैं। आगे हम चर्चा करेंगे महामना मदन मोहन मालवीय के उस सपने पर, जिसने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू - BHU) जैसी महान संस्था को जन्म दिया। अंत में, हम पढ़ेंगे रवीन्द्रनाथ टैगोर यानी गुरुदेव की शांति निकेतन पद्धति के बारे में, जिसने शिक्षा को पुस्तकों से बाहर निकाल कर रचनात्मकता और जीवन से जोड़ा।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन - वह शिक्षक जो राष्ट्रपति बने
डॉ. राधाकृष्णन न केवल एक महान शिक्षक थे बल्कि दार्शनिक और शिक्षाविद भी। उन्होंने मैसूर और कलकत्ता विश्वविद्यालय में पढ़ाया और ऑक्सफोर्ड (Oxford) में तुलनात्मक धर्म (comparative religion) पर व्याख्यान दिए। बाद में वे स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति बने। उनकी जन्मतिथि 5 सितम्बर को ही शिक्षक दिवस (Teachers’ Day) के रूप में मनाई जाती है। उनका यह विश्वास कि “सच्चा शिक्षक वह है जो हमें अपने लिए सोचने की प्रेरणा दे” आज भी हर पीढ़ी को मार्गदर्शन देता है।

सावित्रीबाई फुले - भारत की पहली महिला शिक्षिका और समाज सुधारक
सावित्रीबाई फुले का नाम भारतीय समाज सुधार आंदोलन की अग्रणी पंक्ति में आता है। 1848 में जब उन्होंने अपने पति ज्योतिराव फुले के सहयोग से पुणे में लड़कियों और दलित बच्चों के लिए पहला स्कूल खोला, तो यह अपने आप में एक क्रांति थी। उस दौर में स्त्रियों को शिक्षा देना सामाजिक अपराध माना जाता था। लोग उन्हें स्कूल जाते समय अपमानित करते, गालियाँ देते और यहाँ तक कि रास्ते में पत्थर और गोबर फेंकते। लेकिन सावित्रीबाई ने हार नहीं मानी। उन्होंने साफ़ कहा था - “अगर लोग हमें रोकेंगे तो इसका मतलब है कि हम सही रास्ते पर चल रहे हैं।” आगे चलकर उन्होंने केवल पाँच विद्यालय ही नहीं खोले, बल्कि विधवा महिलाओं के लिए आश्रयगृह और अनाथ बच्चों के लिए ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह’ की भी स्थापना की। उन्होंने जाति प्रथा, स्त्री-पुरुष असमानता और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ खुलकर आवाज़ उठाई। उनकी दृढ़ता और साहस ने आने वाली पीढ़ियों की महिलाओं के लिए शिक्षा और सम्मान का दरवाज़ा खोला। आज पुणे विश्वविद्यालय को उनके नाम से जाना जाता है, जो उनके अदम्य योगदान की जीवित पहचान है।

चाणक्य - राजनीति और कूटनीति के प्राचीन शिक्षक
चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य और विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली गुरुओं में गिने जाते हैं। वे नालंदा विश्वविद्यालय के विद्वान थे और राजनीति, अर्थशास्त्र तथा कूटनीति के गहन जानकार। उन्होंने बालक चंद्रगुप्त मौर्य को न केवल शिक्षा दी बल्कि उसे प्रशिक्षित करके एक शक्तिशाली सम्राट बना दिया। चाणक्य की दूरदर्शिता और नीति ने नंद वंश को समाप्त कर मौर्य साम्राज्य की नींव रखी, जो आगे चलकर भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य बना। उनकी रचना ‘अर्थशास्त्र’ आज भी प्रशासन, कानून, वित्त और शासन व्यवस्था का एक प्राचीन मार्गदर्शक ग्रंथ माना जाता है। इसमें कर-प्रणाली, युद्ध-नीति, जासूसी, शिक्षा और राज्य संचालन के सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन है। उनकी ‘चाणक्य नीति’ जीवन दर्शन की तरह है, जिसमें नैतिकता, मित्रता, नेतृत्व और व्यवहार से जुड़ी शिक्षाएँ दी गई हैं। उनका कथन - “शिक्षा सबसे अच्छा मित्र है, एक शिक्षित व्यक्ति हर जगह सम्मान पाता है”, उनकी दृष्टि की गहराई और कालातीत महत्व को दर्शाता है। चाणक्य केवल एक शिक्षक नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माता थे।

महामना मदन मोहन मालवीय - बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक
मदन मोहन मालवीय भारतीय शिक्षा और राजनीति के इतिहास में महामना के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका मानना था कि यदि भारत को आधुनिक और मजबूत बनाना है तो उच्च शिक्षा को हर वर्ग तक पहुँचाना होगा। इसी सोच से उन्होंने 1916 में काशी में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) की स्थापना की। उस समय भारत में ऐसा विश्वविद्यालय स्थापित करना, जहाँ भारतीय संस्कृति और आधुनिक विज्ञान का समन्वय हो, एक असाधारण सपना था। बीएचयू आज एशिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय है, जहाँ लाखों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते हैं। यहाँ से निकलने वाले विद्वानों ने विज्ञान, चिकित्सा, साहित्य, कला और राष्ट्रनिर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मालवीय जी स्वयं भी स्वतंत्रता आंदोलन के सक्रिय नेता थे और कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कई बार रहे। उनकी राष्ट्रभक्ति और शिक्षा के प्रति निष्ठा ने उन्हें ‘महामना’ की उपाधि दिलाई। उनका दिया गया संदेश - “भारत की आत्मा शिक्षा से ही जीवित रह सकती है”, आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर - गुरुदेव और शांति निकेतन का मॉडल
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर केवल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी महान सुधारक थे। उनका मानना था कि शिक्षा को केवल परीक्षा और डिग्री (Degree) तक सीमित नहीं करना चाहिए, बल्कि यह बच्चों के मन, हृदय और आत्मा को विकसित करने का माध्यम होना चाहिए। इसी सोच से उन्होंने 1901 में पश्चिम बंगाल के बोलपुर में शांति निकेतन की स्थापना की। यहाँ बच्चों को प्रकृति के बीच खुला वातावरण दिया गया, ताकि वे रचनात्मकता, कला, संगीत, नृत्य और खेलों के माध्यम से सीख सकें।
टैगोर की शिक्षा पद्धति इस विचार पर आधारित थी कि “मनुष्य केवल पुस्तकों से नहीं, बल्कि जीवन से सीखता है।” उन्होंने शिक्षा में स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता और मानवीय संवेदना पर ज़ोर दिया। यही कारण है कि शांति निकेतन ने आगे चलकर विश्व-भारती विश्वविद्यालय का रूप लिया, जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी आकर सीखने लगे। टैगोर का मानना था कि “शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं, बल्कि मनुष्य को अधिक मानवीय बनाना है।” उनकी यह सोच आज की शिक्षा व्यवस्था को भी मानवीय दिशा प्रदान करती है।
संदर्भ-