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मेरठवासियो, क्या आपने कभी ठंडी छांव में खड़े किसी पुराने बरगद के नीचे बैठकर यह सोचा है कि हमारे चारों ओर खड़े ये वृक्ष केवल ऑक्सीजन (Oxygen) देने वाले जैविक तत्व नहीं हैं, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं के जीवित प्रतीक हैं? मेरठ की गलियों, गांवों और मंदिरों के आंगनों में कई ऐसे पेड़ आज भी खड़े हैं जो न केवल छाया या फल देते हैं, बल्कि पीढ़ियों से हमारी आस्था और विश्वास के आधार बने हुए हैं। यह वही वृक्ष हैं जिनकी शाखाओं में दादी-नानी की कहानियाँ बसी होती हैं, जिनकी पत्तियों पर कभी तुलसी पूजा हुई होती है, और जिनके नीचे बैठकर न जाने कितनी बार रामायण और भागवत की चौपाइयां पढ़ी गई हैं। भारत जैसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध देश में वृक्षों को केवल वनस्पति नहीं, बल्कि जीवित आत्मा माना गया है - ऐसे आत्मा जो देवताओं के साथ संवाद करती है, जो धार्मिक अनुष्ठानों की साक्षी होती है और जो जीवन, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र को अपने भीतर समेटे रहती है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के विभिन्न धर्मों में वृक्षों को पवित्र और जीवनदायी माना गया है। हम समझेंगे कि कैसे एक पीपल, वट, या खजूर का पेड़, केवल पेड़ नहीं बल्कि एक पवित्र चेतना का प्रतीक बन जाता है - जो ईश्वर के निकट ले जाता है और मानवता को प्रकृति से जोड़ता है।
आज हम इस लेख में समझेंगे कि भारत के धर्मों में वृक्षों का कितना गहरा महत्व है। फिर हम उन पवित्र वृक्षों के बारे में जानेंगे जो देवी-देवताओं से जुड़े हैं। इसके बाद, हम रामायण और महाभारत में वर्णित पवित्र वृक्षों पर नज़र डालेंगे, और देखेंगे कि श्रीराम और अर्जुन जैसे पात्रों से ये वृक्ष कैसे जुड़े हैं। अंत में, हम बाइबिल (Bible) और कुरान में वर्णित पवित्र वृक्षों की धार्मिक और प्रतीकात्मक भूमिका को विस्तार से समझेंगे।
भारत में वृक्षों का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
भारतवर्ष में वृक्षों को केवल पर्यावरणीय संसाधन नहीं, बल्कि जीवंत आत्मा का रूप माना गया है। वैदिक काल से ही यह विश्वास रहा है कि वृक्षों में दिव्य चेतना होती है। शास्त्रों में कहा गया है - वनस्पतयः आत्मानः सन्ति, अर्थात "वृक्षों में भी आत्मा होती है"। यही कारण है कि मंदिरों के प्रांगणों में वृक्ष लगाए जाते हैं, व्रत-उपवास में विशेष वृक्षों की पूजा की जाती है और धार्मिक अनुष्ठानों में वृक्षों के अंगों - जैसे पत्ते, फूल, फल, छाल - का उपयोग किया जाता है। पीपल, वट, अशोक, आम, नीम, केले जैसे वृक्ष न केवल धार्मिक प्रतीक हैं, बल्कि आयुर्वेदिक औषधियों के स्रोत भी हैं। समाजिक दृष्टि से ये वृक्ष सामूहिकता, छाया और संरक्षण के प्रतीक हैं। वृक्षों की पूजा केवल हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि बौद्ध धर्म में बोधिवृक्ष, जैन धर्म में अशोक, सिख धर्म में बेर और इस्लाम व ईसाई धर्म में खजूर व ज़ैतून जैसे वृक्षों को भी गहराई से सम्मान प्राप्त है। भारतीय परंपरा में वृक्ष पूजन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवन-दृष्टिकोण है - प्रकृति के साथ संवाद और संतुलन का मार्ग।

भारत में पूजनीय वृक्ष और उनके देवताओं से संबंध
भारतीय धार्मिक परंपरा में कुछ विशेष वृक्षों को विशिष्ट देवताओं से जोड़ा गया है, जो उन्हें और अधिक पूजनीय बनाते हैं।

श्रीराम से जुड़े विशिष्ट वृक्षों का वर्णन (रामायण आधारित संदर्भ)
वाल्मीकि रामायण में वृक्ष केवल पृष्ठभूमि नहीं हैं, बल्कि कथा के सक्रिय पात्र हैं। श्रीराम का वनवास केवल मानव जीवन की परीक्षा नहीं, बल्कि प्रकृति से उनका संवाद भी दर्शाता है। इंगुदी वृक्ष वह स्थान है जहां श्रीराम ने श्रृंगवेरपुर में पहली रात बिताई। दशरथ के निधन की खबर मिलने के बाद, उन्होंने इंगुदी फल के गूदे से जल तर्पण किया - यह दर्शाता है कि प्रकृति उनके दुख की साक्षी बनी। बरगद के वृक्ष की शाखाओं से उन्होंने अपनी जटाएं बाँधीं। यही वृक्ष प्रयाग में स्थित था, जहाँ देवी सीता ने वट वृक्ष की परिक्रमा की और प्रार्थना की - यह श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक बन गया। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने शाल वृक्षों पर एक ही तीर से वार कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया - यह प्रकृति के साथ मानव की मर्यादित शक्ति का परिचायक है। समुद्र तट पर तीन दिन तक कुश घास पर लेटकर श्रीराम ने समुद्र देवता से मार्ग देने की विनती की। यह एक नायक का प्रकृति के आगे झुकाव और उसके नियमों का सम्मान दिखाता है।

शमी वृक्ष का पौराणिक महत्व और महाभारत से जुड़ाव
शमी वृक्ष - साहस, विजय और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक है। दशहरे पर इस वृक्ष की पत्तियों को ‘स्वर्ण’ मानकर लोगों में आदान-प्रदान किया जाता है, जो सौभाग्य की कामना का सूचक है। श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई से पहले शमी वृक्ष की पूजा की थी - यह उन्हें शक्ति, संकल्प और विजय के आशीर्वाद से जोड़ता है। महाभारत में अर्जुन ने अपने हथियार - विशेषकर गांडीव - को अज्ञातवास के समय शमी वृक्ष की शाखाओं में छिपाया था। इस घटना ने शमी को धर्मयुद्ध और रणनीतिक विजय का प्रतीक बना दिया। आज भी शमी के पत्तों का प्रयोग गणेश पूजा, दुर्गा पूजा में होता है। यह वृक्ष उन जीवन परिस्थितियों में सहारा देता है जब शक्ति और विवेक दोनों की आवश्यकता होती है।
बाइबिल में वर्णित पवित्र वृक्ष और उनका प्रतीकात्मक अर्थ
ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल में वृक्षों को दिव्य चेतना के वाहक और मानव जीवन की दिशा तय करने वाले प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ज्ञान वृक्ष, जो ईडन गार्डन (Eden Garden) में स्थित था, आदम और हव्वा द्वारा इसके फल खाने के कारण पाप का प्रवेश हुआ। यह पेड़ मनुष्य के स्वतंत्र निर्णय और उसके परिणामों का प्रतीक बना। जीवन वृक्ष परमात्मा के शाश्वत प्रेम और अमरता का प्रतिनिधित्व करता है। पाप के बाद, मनुष्य को इस वृक्ष से दूर कर दिया गया - जो ईश्वर और मानवता के बीच दूरी का प्रतीक है। जलती झाड़ी के माध्यम से ईश्वर ने मूसा से संवाद किया - बिना भस्म हुए जलती यह झाड़ी ईश्वरीय उपस्थिति का एक चमत्कारी संकेत है। अंजीर का पेड़ समृद्धि और दंड दोनों का प्रतीक है - सकारात्मक रूप में यह सुख-शांति का प्रतीक है और नकारात्मक रूप में निर्णय का सूचक। ज़ैतून का पेड़ शांति, ईश्वर की कृपा और पुनः मिलन का प्रतीक है, जबकि देवदार वृक्ष दिव्यता और शौर्य का - यह राजा सोलोमन के मंदिर की वास्तुशिल्प आत्मा बना।

पवित्र कुरान में उल्लिखित वृक्ष और उनका इस्लामी महत्व
पवित्र कुरान में भी वृक्षों को प्रतीकात्मक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा गया है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/cgDfd